पालतू बाबुओं ने तमीज सिखायी। बिना बाबू मुख्यसचिव ! न बाबा न

मेरा कोना

: क्या माथुर, एपी सिंह और क्या अतुल गुप्ता, एक से बढ़कर एक : चाहे जनार्दन रहे या अरूण अथवा बेंजामिन, चोली-दामन बने रहे : पहले के स्टाफ से ही काम होता था, अब खास के बिना कुछ नहीं : अब तो पीए नहीं, चपरासी तक बदले जाते हैं साहब की सेवा में : लो देख लो, बड़े बाबुओं की करतूतें- तेरह :

कुमार सौवीर

लखनऊ : सचिवालय में अगर किसी भी वरिष्ठ आईएएस अफसर की तैनाती होती है, तो उसके कुर्सी पर बैठने से पहले ही उसके सहयोगी स्टॉफ की तैनाती हो जाती है। ऐसे अफसर के मुंहलगे निजी सचिव ही तय किया करते हैं कि साहब के आफिस में कौन-कौन पीए, बाबू या चपरासी तैनात होगा। इसकी लिस्ट तैयार करने के बाद सीधे साहब को सौंपी जाती है, और जब साहब उसे हरी झण्डी दिखा देते हैं तो फिर उन अमुक-अमुक अधिकारियों-कर्मचारियों को सचिवालय प्रशासन विभाग को पत्र भेज कर साहब की सेवा में भेजने का अनुरोध किया जाता है। ऐसे में जिस भी अधिकारी-कर्मचारी की नियुक्ति साहब के यहां होनी होती है, उसे दूसरे आफसरों से रिलीव कर साहब की हुजूरी में दाखिल किया जाता है। और यह सब पूरी तामा-झामा पूरा हो जाने के बाद ही साहब अपनी नयी पोस्टिंग वाली कुर्सी पर विराजमान होते हैं।

लेकिन करीब ढाई दशक पहले तक ऐसा नहीं होता था। भले ही कोई भी वरिष्ठ अधिकारी रहा हो, वह अपनी नई नियुक्ति पर अपने पूर्ववर्ती के स्टॉफ को सिद्धान्तत: और नैतिकतापूर्वक स्वीकार करते थे। चाहे वह निजी सचिव हो अथवा किसी क्लर्क या फिर चपरासी। किसी भी अफसर को वही स्टॉफ मिला जाता था जो उसके पूर्ववर्ती अधिकारी के समय हुआ करता था। सभी वरिष्ठ अधिकारी इस बात का ध्यान और सम्मान किया करते थे। हां, इतना जरूर ध्यान दिये रहते थे कि कहीं उनका कोई स्टाफ कोई गड़बड़ या सुस्ती तो नहीं कर रहा था। ऐसा होने पर निजी सचिव अपने स्तर से ही उस कर्मचारी के बारे में साहब की ओर से यह पत्र सचिवालय प्रशासन विभाग को भेज दिया देता था।

लेकिन अब यह दौर कहां रहा?

आरएस माथुर मुख्य सचिव तक तैनात हो चुके हैं। लेकिन अपने खासमखास अरूण श्रीवास्तरव के प्रति उनका लगाव बेहद आपत्तिजनक माना जाता रहा है। ठीक वही हाल अखण्ड प्रताप सिंह का है। एपी सिंह भी मुख्यसचिव रह चुके हैं, लेकिन चाहे वे किसी भी पद में रहे हों, जनार्दन सिंह उनकी नाक का बाल ही बने रहे। मुख्ये सचिव रह चुके अतुल गुप्ता के साथ भी यही सग्रास लागू होता रहा। अपने निजी सचिव बेंजामिन के बिना अतुल गुप्ता का एक कदम भी नहीं सरकता था। बड़े-बड़े अफसर तक अरूण श्रीवास्तव, जनार्दन सिंह और बेंजामिन जैसे बाबुओं की मक्खन-मालिश किया करते थे।

सवाल यह है कि आखिर क्यों? शासन-प्रशासन का प्राथमिक सबक चाणक्य के दौर से ही प्रमाणित है कि अधिकारियों को लगातार ताश की तरह फेंटते रहना चाहिए। उन्हें  एक पद से कभी भी लम्बे समय तक नहीं बिठाना चाहिए। वरना किसी भी अधिकारी का लगाव अपने शासकीय दायित्वों के प्रति अनावश्क भड़क जाता है। लेकिन अपने खासमखास स्टॉफ के मामले में यह खुद आला अफसर लोगों ने इन अनिवार्य सूत्रों-नियमों को धता बता दिया।

एक वरिष्ठ अधिकारी ने अपना नाम छिपाने का आग्रह करते हुए बताया कि यह हालत अब दूकानदारी के तौर पर हो चुकी है। वरना किसी भी वरिष्ठ अधिकारी को किसी अधीनस्थ  से क्या लेना-देना होता है? और क्यों वह किसी अपने खासमखास कर्मचारी-अधिकारी को ही अपने पास रखना चाहता है? कोई भी स्टाफ तो किसी अधिकारी की सहायता के लिए आता है, फिर किसी खास के प्रति उनका मोह क्यों उमड़ पड़ता है? जाहिर है कि खासमखास स्टाफ ही वह सारे कामधाम जानता, समझता और करता रहता है। चाहे वह स्याह हो या फिर सफेद। एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी उक्त अधिकारी से असहमत हैं। वे कहते हैं कि अगर कोई वरिष्ठ सरकारी कामकाज के लिए किसी खास आदमी को अपने पास रखना चाहता है तो उसमें किसी को क्या ऐतराज। लेकिन इसी तर्क के खिलाफ एक अन्य अधिकारी का कहना है कि कोई भी सरकारी नौकर अपने किसी खास कर्मचारी-अधिकारी के प्रति बेहिसाब मोह-लोभ क्यों  करता है। जाहिर है कि उसका उसमें निजी लाभ होता है। हो सकता है कि ऐसे काले धंधों को संचालित करने के लिए ऐसे ही विश्वस्त कर्मचारियों-अधिकारियों की जरूरत हो। लेकिन अगर ऐसा है तो भी यह बेईमानी का ही अंग है। उसे जायज कैसे ठहराया जा सकता है?

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लो देख लो, बड़े बाबुओं की करतूतें

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