जागरण और हिन्दुस्तान को बीस लाशें नहीं दिखीं, उजाला को दिख गयीं

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

:  मथुरा हादसे में दर्जनों लाशें बिखरती रहीं, लेकिन पत्रकार सूंघ तक नहीं पाये : हद कर दी है हिन्दी पत्रकारिता के बहादुर पहरूओं ने : यह नहीं खोज पाये कि रामबृक्ष यादव कौन है, जिसे गुरूजी पुकारा जाता है : इस हादसे में सिर्फ दारोगा और एसपी की लाश उठाते रहे यह नामचीन अखबार :

कुमार सौवीर

लखनऊ : मथुरा में दिल दहला देने वाले हादसे ने प्रशासन ही नहीं, अखबारों की भी कलई नोंच कर फेंक डाली है। आज लखनऊ के तीन बड़े हिन्दी अखबारों के रंग-बिरंगे पन्नों पर एक नजर डालिये। साफ लगेगा कि यह लोग आम आदमी की नहीं, पुलिस और प्रशासन आंखों से ही देख रहे हैं और उनकी जुबान ही बोल रहे हैं। हैरत की बात है कि यह अखबार खुद को आम आदमी की जुबान बनने का दावा करते हैं। दैनिक जागरण और हिन्दुस्तान अखबारों ने तो पत्रकारीय दायित्वों को ही ठेंगा दिया आज। पूरा अखबार ही पुलिस और प्रशासन की आवाज में कदमताल करता दिख रहा है। हर्फ दर हर्फ ठीक वही लिखा है, जो पुलिस ने बताया है मथुरा कांड पर। सरकारी भोंपू के तौर पर। इन समाचारपत्रों ने इस हादसे पर न तो आम आदमी की आवाज बनने की कोशिश की है और न ही अपनी ओर से तनिक भी छानबीन करने की जहमत उठायी है।

देख लीजिए कि दैनिक जागरण ने क्या खबर लिखी है। इसके पहले पन्ने पर सबसे बड़ी खबर यकीनन मथुरा कांड ही है। लेकिन खबर का शीर्षक है:- मथुरा में उपद्रव, एसपी-दारोगा शहीद।

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बड़ाबाबू

हैरत की बात है कि खबर के उप शीर्षक में लिखा गया है:- कथित सत्याग्रहियों से मुठभेड़, डेढ़ दर्जन पुलिस कर्मी और दो दर्जन आंदोलनकारी घायल। हिन्दुस्तान ने दो कदम और बढ़ा लिया। शीर्षक लिखा है कि :- मथुरा में पुलिस पर हमला, एसपी-एसओ शहीद।

इसकी सब-हेडिंग में लिखा गया है कि:- खूनी संघर्ष: अवैध कब्जा हटाने गयी पुलिस टीम पर की गयी अंधाधुंध फायरिंग, पुलिस की जवाबी कार्रवाई में एक अवैध कब्जेदार भी मारा गया।

जबकि अमर उजाला ने इस खबर पर हेडिंग लगायी है:- मथुरा में कब्जा हटाने पहुंची पुलिस पर फायरिंग और बमबारी में एसपी सिटी समेत 20 की मौत।

इन तीनों अखबारों की चिंता क्या है, इसमें आप साफ-साफ समझ सकते हैं। कमाल की है इस पत्रकारिता का, कि 18 आम आदमी की मौत की खबर ही गोल कर दी गयी।

यहां के जां-बाज पत्रकारों को केवल यह दिखा जो पुलिस प्रशासन ने बताया। उससे तनिक भी हेरफेर नहीं की। न कुछ खोजने की कोशिश की और न जानने की जहमत उठायी। नहीं खोज पाये कि रामबृक्ष यादव कौन है जो हजारों निरीह लोगों को दो साल पहले जवाहरबाग में अवैध कब्जा किये बैठे था। वह कहां से आया और उसे कहां जाना था, उसका शिजरा क्या है, उसका मकसद क्या है। उसके सत्याग्रह का मकसद क्या है। रामबृक्ष कौन था। उसके पास इतने आदमी कैसे आ गये। उसकी और उसके समर्थकों की आय का स्रोत क्या है। पिछले ढाई साल से तीन सौ एकड़ जमीन पर कब्जा किये लोगों की मंशा क्या थी। जब इस जवाहर बाग को खाली कराने के लिए चार जून की तारीख मुकर्रर की गयी थी, तो अचानक उसे क्यों दो जून में बदल दिया गया। सवाल तो यह भी पूछा जाना चाहिए था कि दो दिन की वैध मोहलत के बावजूद प्रशासन ने उस कब्जे को हटाने के लिए ढाई साल का वक्त क्यों लिया।

आईएएस और आईपीएस अफसरों से कोसों दूर, इन और ऐसे ही अनेक सवालों पर यह पत्रकार भी चुप्पी साधे हैं।

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