गुरूजी! पानी लाया हूं, अब तो मुंह धो लो (एक)

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: शिक्षकों में शोध-प्रवृत्ति दफ्न, वरना वर्ना बच जातीं बच्चियां  : लखनऊ पुलिस ने खुलासा कर दिया, गुरूजी कम्बल ओढे ऊंघते रहे : शिक्षा छोड़ कर बाकी सारे कुकर्म करती है शिक्षकों की बड़ी बिरादरी : बेईमान पुलिस ने हादसे का नाट्य-रूपांतरण किया, तुम खामोश ही रहे : तुम्हें वेतन नहीं, छात्रों को नयी दिशा देने की नौकरी दी गयी माष्टरजी :

कुमार सौवीर

लखनऊ : मुख्यमंत्री आवास से चंद कदम दूर सामूहिक बलात्कार और फिर मौत के घाट उतारी गयी बच्ची के हत्यारों को पकड़ने और उस हादसे का सटीक आंकलन-रेखांकन के लिए लखनऊ पुलिस ने घटनास्थल पर घटना का सफल नाट्य-रूपांतरण किया। इसमें मारी गयी बच्चीं, उसके साथ हुए हादसे और उसमें शामिल अपराधियों की हर एक सम्भावित-आशंका का नाट्य-रूपांतरण किया गया था। एसएसपी राजेश पाण्डेय का कहना है कि इस प्रयास में इस हादसे के कई अनसुलझे मामलों को काफी कुछ सुलझा लिया गया।

किसी भी उलझे हुए मसले पर, हादसे पर या फिर कठिन मसले को पर्त-दर-पर्त सुलझाने के लिए ऐसे प्रयास अक्सर तब अपनाये जाते हैं, जब मामले में कई पक्ष उलझाऊ हों। आम तौर पर पुलिसवाले इतना झंझट से बचने की कोशिश करते हैं और मामला सुलझाने-उलझाने की कवायद से दूर हो जाते हैं। इससे मामला अदालतों से छूट जाता है। ठीकरा पुलिस के माथे पर फोड़ा जाता है, जो पहले से ही नागरिकों से वसूली करने की प्रवृत्ति के चलते कुख्यात है। लेकिन, क्या् दायित्व केवल पुलिस का ही है?

क्या समाज में होने वाली किसी भी घटना, हादसे या सवाल को सुलझाने का जिम्मा शिक्षक का नहीं है। पुलिस को अकेले छोड कर आप अपना पल्लू झाड़ लेते हैं, ऐसे मामले में अपनी मूलत: खोजी शिक्षक-वृत्ति का प्रदर्शन करने से बचते हैं। नतीजा, समस्या के समाधान के पहले समस्या का निरूपण नहीं हो पाता है और जाहिर है कि उसका समाधान भी घुप्प अंधेरे में खत्म हो जाता। बिलकुल ब्‍लैक होल।

होना तो यह होता कि शिक्षक वर्ग ऐसे मसलों को अपने शोध का विषय बनाता और अपने शोध-इच्छुक छात्रों को नयी दिशा देता। क्या आपको नहीं लगता कि जब शिक्षक अपने छात्रों के साथ ऐसे हादसों पर काम शुरू करता तो शिक्षक-छात्र का तादात्य पुलिस से सीधा हो जाता है। ऐसे में पुलिस अगर किसी तथ्य को छिपाने, दबाने, कुचलने की कोशिश भी करती, तो उसका सार्वजनिक खुलासा हो जाता। पुलिस और प्रशासन की करतूतों का खुलासा शुरूआत में ही हो जाता। अफसर अगर किसी हादसे-घटना में तर्क, तथ्‍य  या प्रमाण को छिपाना भी चाहते तो ऐसा हर्गिज नहीं कर पाते। क्योंकि तब पूरे समाज में एक सकारात्मक और सक्रिय जन-जागरण की बयार चल चुकी होती। जनता खुद ही अफसरों से निपट लेती। और शिक्षक व शोधार्थी अपने नये जोश के साथ खड़े दिख जाते।

फिर तब आपके शिक्षालय केवल शिक्षा के धंधे में नहीं जुटते, बल्कि खोजी नजर से नये-नये समाधान खोजते। किसी खूंख्‍वार कुत्‍ते के गले में पड़ी जंजीर जैसे आभूषण आपके गले में नहीं दिखते खोजने की प्रवृत्ति आप और आपके छात्रों में  अपने विषय को समझाने, परिष्कृसत करने में सहायक होती। शिक्षक अपने छात्रों को अपनी थ्योरी को मजबूत करने के लिए नये सवाल देकर फील्ड पर भेजता। फिर उसकी फाइंडिंग्स-प्राप्तियों को पुलिस की प्रैक्टिकल सोच से तौलने-मापने  की प्रक्रिया शुरू हो जाती तो समस्याओं को सुलझाने का नया दौर शुरू हो जाता।

लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। जिसका भयावह परिणाम जौनपुर में सामूहिक बलात्कार की पीडि़त बच्ची के तौर पर दिखायी पड़ रहा है। यह बच्ची 17 फरवरी की रात सड़क पर बेहोश मिली। सूत्र बताते हैं कि उसके साथ एकाधिक लोगों ने बलात्कार किया था, लेकिन पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज नहीं की। बताते हैं‍ कि अपने साथ हुए नारकीय हादसे से यह बच्ची‍ बुरी तरह सहम गयी थी, और ठीक से बोल तक नहीं पा रही थी। लेकिन शर्मनाक यह रहा कि एक भी शिक्षक या उसके छात्रों की टोली ने हस्तक्षेप ही नहीं किया। नतीजा, पुलिस ने पहले उस बच्ची को पागल करार देने की साजिश की, और जब यह नहीं हो पाया तो उसे नारी संरक्षण गृह भेज दिया।

गुरूजी पस्त, अफसर मस्त, मामला खत्म।

और गुरू जी, इस हालत के असली जिम्‍मेदार तो तुम खुद हो। मैं पानी ले आया हूं गुरू जी, जाओ, अपना मुंह धो लो।

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