मेरी अगाध श्रद्धा थी शिक्षकों पर, अब जुतियाने का मन करता है

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: गुरूजी ! पानी लाया हूं, अब तो मुंह धो लो (दो) : शिक्षालयों में पाखण्ड बंद करो, सिर्फ तुम् ही तो हो अराजकता के प्रणेता : कट-पेस्ट शोध कराते हो चोर-गुरू, सार्थक काम कराना तुम्हारे वश में नहीं : लाइब्रेरी की किताबें बेच जल्दी ही कालेज में स्मैकियों का मैच कराओ न :

कुमार सौवीर

लखनऊ : लगातार विद्रूप और जटिल होते जा रहे समाज में जिस तरह भयावह असन्तुलन बढ़ रहा है, उसमें मासूम बच्चियों के साथ हो रहे जघन्य अपराध तेजी से रफ्तार पकड़े हैं। जौनपुर में सामूहिक दुराचार के चलते अपना होश तक खो चुकी बच्ची से लेकर लखनऊ में मुख्यमंत्री आवास के पास एक स्कूली बच्ची की दुराचार के बाद हुई हत्या की घटना साबित करती है कि पानी अब सिर के ऊपर तक निकलता जा रहा है। ऐसे में हैरत नहीं कि बहुत जल्दी ही ऐसे हादसे हमारे-आपके घर के आसपास तक होना शुरू हो जाएंगे।

लेकिन समाज में प्रकाश-स्तम्भ कहा जाने वाला शिक्षक-समुदाय इस पूरे मामले में शुतुरमुर्गी नजरिया अपनाये है। कहने की जरूरत नहीं, कि यह हालत या तो इस समुदाय के स्खलन और दायित्व-हीनता के चलते पनपती जा रही है, या फिर उनमें यह माद्दा ही नहीं कि वे कुछ नया सोच-कर सकें। ऐसे में इस समुदाय अब लाइट-हाउस की अपनी भूमिका पर कालिख पोतते जा चुके हैं। सच बात तो यही है कि वे अब सिर्फ हवाई शोध के गुब्बारे फुलाने में जुटे हैं, जमीनी और ठोस काम कर पाना उनके वश की बात नहीं।

पिछले चंद बरसों के बीच समाज में लगातार ऐसे-ऐसे हादसे हुए हैं जिससे देख-सुन कर जनमानस दहल गया। ऐसे मामलों पर विरोधी नेताओं ने हल्ला मचाया, पत्रकारों ने अपने-अपने राजनीतिक सोच के आधार पर खबरें लिखीं या रचीं और पुलिस ने जो भी सच-झूठ का बखान किया। लेकिन इस पूरे दौरान वह समुदाय बिलकुल चुप्पी साधे रहा, जिसका ऐसे मामलों पर सीधा-सीधा रिश्ता–जिम्मेदारी थी। वह समुदाय है स्नातकोत्तर कक्षा के बाद छात्रों को शोध कराने का जिम्मा सम्भालने वाले शिक्षक और उसका छात्र समुदाय। मगर शिक्षा-जगत इस मामले में खामोश रहा।

आप गौर से देखिये कि समाज को बुरी तरह प्रभावित कर डालने वाली किसी भी हौलनाक घटना का सीधा-सीधा रिश्ता समाज के मानसिक रोग, मनोविज्ञान, मनोशास्त्र, समाजशास्त्र, समाजकार्य, वाणिज्य, अर्थशास्त्र् जैसे विषयों से जुड़े लोगों से होता है। क्योंकि यही समुदाय ही समाज से जुड़े ऐसे मसलों पर गहन शोध कर उसके कारण-कारक तत्वों की खोज करते हैं, और ऐसी समस्याओं का समाधान भी खोजते हैं। यही वह विषय होते हैं जिस पर छात्रों को शोध कराने का जिम्मा शिक्षकों पर होता है ताकि वे अपने छात्रों को ऐसे जमीनी मसलों पर जुटना सिखायें।

मेरे पास कुछ आंकड़े हैं, कुछ तर्क, और कुछ सवाल भी, जो आपकी आंखें खोल सकते हैं। मसलन, स्नातक व उससे बड़ी कक्षा का कोई भी शिक्षक अपने किसी भी छात्र को पीएचडी करा सकता है। शोध की सीमा के तहत लेक्चर चार, रीडर छह और प्रोफेसर 8 बच्चों को शोध-कार्य करा सकता है। अब लखनऊ विश्वविद्यालय और चिकित्सा विश्वविद्यालय को ही देख लीजिए। इन दोनों यूनिवर्सिटी में ऐसे विषयों पर कम से कम 300 शिक्षक और डॉक्टर मौजूद हैं। इसके अलावा इनसे सम्बद्ध कालेज तथा अकेले लखनऊ में मुख्यालय बनाये आठ से ज्या्दा विश्वविद्यालय भी मौजूद हैं। इनमें ऐसे विषयों के शिक्षकों की संख्या ढाई हजार से भी ज्यादा बतायी जाती है। अनुमानत: इन शिक्षकों के साथ कम से कम दस हजार शोधार्थियों की बड़ी तादात मौजूद है।

उधर जौनपुर के पूर्वांचल विश्वविद्यालय में शिक्षकों की और शोधार्थियो की बड़ी मण्‍डी-आढत है। यहां तो कार्यरत कर्मचारियों में से ज्यादातर कर्मचारी पीएचडी कर चुके हैं। जौनपुर की गलियों-नालियों में बदबूदार पानी से ज्यादा डॉक्टर परत-दर-परत बिछे रहते हैं। देश में उन शिक्षकों की खासी तादात है जो अपना खुद का शोध दूसरों की किताबों से चोरी करके मालामाल हो गये। कई तो जौनपुर से आज कई बड़ी यूनिवर्सिटीज में अपना डंका बजा रहे हैं।

और गुरू जी, इस हालत के असली जिम्‍मेदार तो तुम खुद हो। मैं पानी ले आया हूं गुरू जी, जाओ, अपना मुंह धो लो।

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