: ट्रम्प के होश फ़ाख्ता हैं, लेकिन हिंदी मीडिया अलग ही बीन बजा रही है : वहां जन-आंदोलन है, नस्लवादी ज्वर नहीं : नस्लवाद का आरोप लगाना समूची नस्ल पर अपमानजनक :
ओम थानवी
नई दिल्ली : अमेरिका सुलग उठा है। कोरोना की आग में नहीं। गोरे पुलिसकर्मी डेरिक शोवाँ ने काले नागरिक जॉर्ज फ़्लॉय्ड की गर्दन को घुटने तले इस तरह कुचला कि जॉर्ज की जान चली गई। पुलिसकर्मी हत्या के जुर्म में अंदर है। पर इस दर्दनाक हत्या से अमेरिका की नस्लीय वेदना फिर भड़क उठी है। पूरे अमेरिका में क्या काले, क्या गोरे, क्या सांवले – तमाम वर्णों के लोग जान की परवाह न कर सड़कों पर उतर आए हैं। ट्रम्प के होश फ़ाख्ता हैं।
मगर हिंदी के अख़बार और टीवी चैनल जॉर्ज फ़्लॉय्ड और अन्य काले या अफ़्रीकी मूल के आंदोलनकारियों को “अश्वेत” क्यों कह रहे हैं? यह क्या अब भी बहसतलब है किसी नागरिक की पहचान उसकी अपनी होती है, उसे किसी दूसरे की पहचान से नहीं पहचाना जाना चाहिए?
अश्वेत का शाब्दिक अर्थ हुआ जो व्यक्ति श्वेत नहीं। तो जो शख़्स दूसरे यानी काले वर्ण का है, उसकी पहचान श्वेत के आधार पर कर श्वेत की अनावश्यक प्रतिष्ठा क्यों करनी चाहिए? किसी गोरे को हम गोरा ही कहते हैं, अश्याम तो नहीं कहते।
काला न बुरा रंग है न बुरा शब्द है। ऐसे ही गोरा भी एक वर्ण ही है। अकारण हमने उसकी अत्यधिक प्रतिष्ठा कर डाली। अच्छे और बुरे लोग किसी भी वर्ण में हो सकते हैं। हमारे यहाँ तो “गोरे” आततायी अंगरेज़ शासक भी रहे। पर इससे हम सभी अंगरेज़ों को बुरा नहीं मान लेते।
पश्चिम में भारतवंशी आपस में हिंदी में बात करते वक़्त वहाँ के “वाइट” लोगों अब भी “गोरे” कहते हैं। जब-तब तिरस्कार के भाव से भी। हमारे “एशियाई” गौरवर्ण हों तब भी अफ़्रीका और अन्यत्र “वाइट” नहीं, “ब्राउन” (सांवले) कहलाते हैं।
बहरहाल, काले कहिए चाहे अफ़्रीकावंशी या अफ़्रीकी-अमेरिकी – अश्वेत ग़लत प्रयोग है। एक समूची नस्ल के लिए अपमानजनक भी।