मैं कंगाल-मुफलिस इंसान ही नहीं, असफल पत्रकार भी हूं

बिटिया खबर
: मुझे अपनी असफल पत्रकारिता पर गर्व है, रहेगा भी : मालिक के नौकरों का मकसद क्रांति नहीं, दौलत कमाना है : बरसों तक होटलों में कप-प्‍लेट धोया और रिक्‍शा चलाया, उसका भी तो हिसाब दो : माफी चाहता हूं अपनी बेटियों से जो बेहाल हो गयीं मेरी मुफलिसी में :

कुमार सौवीर
लखनऊ : इंसान के रूप में मैं अपनी जिन्‍दगी में क्‍या या कितनी उपलब्धि हासिल कर पाया, अथवा नहीं, इस पर तो बहस हो सकती है। लेकिन पहले यह बहस तो कर ली जाए कि कुमार सौवीर क्‍या इस योग्‍य है भी या नहीं, जिस पर कोई चर्चा की जा सके। कुछ भी हो, मगर लेकिन कम ये कम इतना जरूर तो है ही, कि एक पत्रकार के तौर पर कुमार सौवीर पूरी तरह असफल शख्‍स साबित हुआ है।
कई दिनों से इसी मसले पर सोचता रहा हूं। उहापोह तो पहले से ही कसमसा रही थी, लेकिन उसका कोई छोर नहीं पकड़ पा रहा था। कई लोगों से बातचीत की। और अन्‍तत: इस नतीजे पर पहुंच ही गया कि मैं वाकई एक असफल पत्रकार हूं। और मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि मेरी इस स्‍वीकारोक्ति को सुनते ही आपके चेहरे पर शांति और कलेजे पर ठण्‍डक हो जाएगी। क्‍या मैं कुछ गलत कह रहा हूं ?
खैर, कुछ विद्वानों से लगातार कई दिनों से इसी मसले पर चर्चा करता रहा हूं। सच बात तो यही है कि पहले-पहल तो मैं यह मानने को ही तैयार ही नहीं होता था कि मैं यानी कुमार सौवीर एक असफल पत्रकार है। मैं अपने आप को बाजार में सरेआम कैसा नंगा कर पाता ? न तो इस बारे में कोई ठोस सुबूत था, न यकीन और न ही इतना साहस था मुझ में। लेकिन गर्त-धूल की परतें एक के बाद जैसे-जैसे उधड़ने लगीं, मैं संतुष्‍ट होने लगा कि और चाहे कुछ भी हो, कुमार सौवीर अपनी जिन्‍दगी में पत्रकारिता के मानदण्‍डों पर कत्‍तई खरा नहीं उतर पाया है।
तो आइये, पहले यही तय कर लें कि कुमार सौवीर को असफल व्‍यक्ति अथवा असफल पत्रकार के तौर पर फतवा जारी करने वाले ऐसे लोगों को ऐसा कहते समय कैसा अनुभव होता होगा। वैसे एक खास बात मैं आपकी बता दूं कि लोगों को मेरे बारे में मुझसे ज्‍यादा जानकारी है कि मैं इंसान के तौर पर पूरी तरह असफल व्‍यक्ति हूं। न तो माता-पिता और परिवारीजनों की अपेक्षाओं में पूरा कर पाया, और न ही विद्यालय अथवा औपचारिक शिक्षा के रजिस्‍टर में अपना नाम दर्ज करा पाया। पढ़ नहीं पाया, हां कढ़ा खूब। लेकिन उससे क्‍या होता है। इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मैंने एमए तक की परीक्षा पास कर ली। कई बरसों तक होटलों में कप-प्‍लेट धोया, रिक्‍शा चलाया, बसों में आवाज लगा कर कंघी-नेलकटर वगैरह बेचा, वगैरह-वगैरह। मगर उसे भी अपना जीवन-ध्‍येय या लक्ष्‍य नहीं बना पाया। दूसरों के सामने दम्‍भ भरने को अपना गाल बजाने के लिए मैं यह दावा तो कर सकता हूं कि मैंने उन हालातों को जीता है, लेकिन यह भी महज लफ्फाजी ही होगी। खेल के मैदानों पर रिपोर्टिंग तो खूब की हैं, लेकिन कभी भी खेल सीखने अथवा खेल करने का वक्‍त ही नहीं मिल पाया। मगर इतना जरूर हो गया कि अपने हालातों से मजबूर होकर मेरी जिन्‍दगी खुद ही एक खेल बन कर रह गयी।
उधर दाम्‍पत्‍य-जीवन को देख लीजिए। उसमें भी असफल हूं। हालांकि जमाने में उन हुक्‍का-हुआं करने वालों की तादात खासी है, जो अपनी निजी भड़ास निकालने के लिए मेरे असफल दाम्‍पत्‍य को उंगली पर उचका देते हैं। अब वे असफल हैं, या नहीं उस पर मैं कोई भी टिप्‍पणी नहीं कर सकता। मगर इतना जरूर कहूंगा कि मैं कभी भी इतना नहीं कमा पाया कि ठीक से परिवार को पाल सकूं, और उनके पेट की आग शांत कर सकूं। घर के लिए एक सोफा तो दूर, एक पलंग तक नहीं जुटा पाया। सिर्फ दो तख्‍त ही मेरे परिवार में उपलब्‍ध है। तीन अलमारियां हैं, जो मैंने नीलामी से खरीदीं। परिवारीजनों के अधिकांश गरम कपड़े मैं सेकेंड्स से ही बटोर लाता था। हां, किताबें बेशुमार हैं मेरे पास।
मैं जानता हूं कि अपने बचपन में मेरी बेटियां को मेरे घर के हर कोने में अटी-भरी पड़ी दरिद्रता और उसे हटा पाने में मेरी असमर्थता पर क्षोभ और शर्म भी आती रही होगी। अपनी सहेलियों को घर आमंत्रित करने में उन्‍हें झिझक होती होगी। समय से फीस अदा न कर पाने के चलते बेटियों का नाम उनके स्‍कूलों में दर्जनों बार कटा। हमारा परिवार कभी सुचारू और सुविधा-सम्‍पन्‍न होगा, उन्‍हें ठीकठाक तरीके से और समुचित लालन-पालन मुहैया हो पायेगा, यह तो सपने में भी नहीं सोचा होगा मेरी बेटियों ने।
लेकिन उसके लिए भी मैंने बनारस के काशी विद्यापीठ पास मलदहिया चौराहे से कब्रिस्‍तान से सटे बड़े नाले पर रख कर भोजन कराने वाले ठेले के यहां बेंच पर बैठ कर चार से छह रूपयों में भोजन किया। एक रूपया पर एक रोटी, सब्‍जी और मिर्चा फ्री। नाले की भीषण दुर्गन्‍ध के बीच। वह भी महीने के आखिरी दस-पंद्रह दिनों में केवल एक वक्‍त, वह भी आफिस छूटने के बाद, यानी रात ग्‍यारह बजे के बाद के ही। पूरा दिन या तो भूखे रह कर या फिर प्रेस-कांफ्रेंस की चाय-पकौड़ी के सहारे बिताया। हां, इतना जरूर है कि इसके बावजूद किसी के भी सामने कभी उफ तक नहीं की मैंने।
ब्रेन-स्‍ट्रोक पड़ा, तो उसका भी स्‍थाई नुकसान नहीं उठा पाया। तीन महीने तक स्‍मृति के घुप्‍प अंधेरे से वापस रौशनी में तो आया, लेकिन रह-रह कर उसका ताप-दबाव महसूस करता रहता हूं। सन-12 से दिमाग कुछ ऐसा प्‍यूज होने लगा कि आखिरकार तय किया कि नौकरी नहीं करूंगा, और पूर्णकालिक बेरोजगार की तरह जिन्‍दगी निभाने का संकल्‍प ले लिया। यह भी संकल्‍प लिया कि करूंगा तो सिर्फ पत्रकारिता, लेकिन न तो विज्ञापन लूंगा और न ही चंदा मांगूंगा। जीवन-यापन के लिए भिक्षा मांगूंगा, मगर लोगों को यह भी पसंद नहीं आया। वे अपना काम तो ढेरों बता देंगे, लेकिन मुझे भिक्षा देने में उनकी नाक कटने लगती है। अधिकांश लोग भिक्षा का नाम सुनते ही मुझे हिकारत से देखने लगते हैं, या फिर मेरा उपहास उठाने लगते हैं। कई लोग मुझे भिक्षा देने का संकल्‍प इस शर्त पर करते हैं, कि पहले उनका काम निकल जाए। यानी वे भिक्षा को मेहनताना मानते हैं। उन्‍हें भिक्षा और पारिश्रमिक में फर्क तक नहीं समझ में आता है। वे भिक्षा को अपने सामाजिक दायित्‍व में मानते, समझते, जोड़ते ही नहीं। ऐसे लोगों का काम तो मैं भरसक कर देता हूं, लेकिन उनसे मैं भिक्षा लेता ही नहीं।
हां, एक प्‍लॉट जरूर अलॉट हो पाया, मगर उसकी किश्‍तें आज तक अदा कर कर रहा हूं। और मेरा यह फैसला बेहद कष्‍टकारी है, लेकिन उसे सिर्फ यही सोच-सोच कर ही बर्दाश्‍त करता रहा हूं, कि यह मेरी बेटियों को उनके भविष्‍य में किसी मजबूत तोहफा बन सकेगा।
अब बात किया जाए इश्‍क और मुश्‍क की। मुश्‍क तो खैर न कभी किया, और न ही कभी इसकी जरूरत ही पड़ी। लेकिन इसके बावजूद मैंने सु्ब्रत राय के भाई जयव्रत राय को जूतों से भरी भीड़ कूट डाला। मगर वह तो श्रमिक आंदोलन का जोश था, कोई निजी झगड़ा-टंटा नहीं, जिसमें सहारा के निदेशक ओपी श्रीवास्‍तव जैसे कई लोगों के साथ भी इस मामले को लात-घूंसों से निपटाया।
दाम्‍प‍त्‍य जीवन बिखरने के बाद काफी समय तो मैं सन्निपात में रहा। एक के मुकाबले बाकी सब। पूरा मैच इकतरफा होने वाला था, मगर मैं जीत गया। विडम्‍बना यह कि यह युद्ध मैं इस शर्त पर जीता कि मेरी जीत ही मेरी हार बन गयी। पारिवारिक विघटन ने मनो-विचलन की गम्‍भीर हालत स्थिति कर डाली। मैं बिलकुल अकेला। शुरूआत में दिमाग हूम-हूम ही करता रहता था। न कोई सटीक योजना, और न ही कोई ठोस क्रियान्‍वयन। दोषारोपण के ढेले-कंकर और बड़े-बड़े आरोपों की गठरियां भी मेरे सिर फोड़ती थीं, या कमर दोहरा देने पर आमादा थीं। घर के मुखिया को मोहल्‍ले में सर्वाधिक उपेक्षित खुजैला कूकुर जैसा बना दिया हालातों ने।
इश्‍क की कोशिश की, लेकिन उसमें भी मुंह के बल धड़ाम से जा गिरा। कभी प्रस्‍ताव ही खारिज हुए, तो कभी-कभी चारों खाने चित्‍त। हालांकि मैं इतना तो जानता-समझता ही था कि व्‍यष्टि यानी एकल व्‍यक्ति के तौर पर कोई भी शख्‍स बेहद ईमानदार होता है, मगर जैसे ही उसके जीवन से किसी दूसरे व्‍यक्ति का समष्टि-भाव जुड़ता है, सबसे पहले अहंकार-भाव ही जुड़ जाता है।
अब उस सवाल का जवाब भी खोज लिया जाए कि कुमार सौवीर वाकई असफल पत्रकार हैं। इस बहस की शुरूआत के पहले ही मैं साफ कर देना चाहता हूं और बिना शर्त कहना चाहता हूं कि हां, मैं एक असफल पत्रकार हूं। 2 जून-82 को मैं पत्रकारिता में आया था, लेकिन पहली बार 8 मई-84 से पहली अगस्‍त-85 तक बेरोजगार रहा। फिर 28 जुलाई-92 से पहली मार्च-2001 तक बेरोजगार रहा। इसके बाद 23 दिसम्‍बर-2011 से लेकर आज तक बेरोजगार ही हूं। जाहिर है कि इतना लम्‍बा समय तक मैंने बेरोजगारी में बिताया है, इसलिए साफ है कि मैं असफल पत्रकार हूं। क्‍योंकि मेरे साथ के सारे साथी-संगी देश-विदेश के बड़े अखबारों में सम्‍पादक से लेकर बड़े दीगर ओहदों पर स्‍थापित हैं। मगर चूंकि मैं असफल पत्रकार हूं, इसलिए मुझे नौकरी ही नहीं मिल पा रही है।
अब जरा इस असफलता के दूसरे पहलू पर भी विस्‍तार से चर्चा कर लिया जाए। कुमार सौवीर के असफल पत्रकार होने के सच का अनावरण होने के साथ ही साथ आपको देखना भी पड़ेगा कि आखिर पत्रकारिता है क्‍या। मैं इस मसले को सिलसिलेवार समझाने की कोशिश करना चाहता हूं। तो जनाब, अगर आप पत्रकारिता को कोई अजूबा करतूत समझते हैं, तो साफ समझ लीजिए कि आप सिरे से ही गलत हैं। दरअसल, पत्रकारिता से जुड़े अधिकांश लोग अब किसी मिशन से नहीं, बल्कि अपने जीवन-निर्वाह के लिए जुटे हैं। वे उन मालिकों की नौकरी कर रहे हैं, और उस मालिक का मकसद विप्‍लव या क्रांतिकारिता करना नहीं, बल्कि दौलत कमाना है। और ऐसी हालत में अगर आप यह मान बैठे हैं कि पत्रकार का मतलब क्रांतिकारी है, तो आप अपनी यह गलतफहमी दूर कर लीजिए। ऐसा कोई भी तथाकथित पत्रकार अपने विचार, जन-भावनाएं या क्रांति के लिए मेहनत नहीं कर रहा है, बल्कि अपनी नौकरी बचा कर अपने परिवार का लालन-पालन कर रहा है। और बदले में वह झूठी खबरें व फर्जी साक्षात्‍कार प्‍लांट कर रहा है, खबरें दबा रहा है, खतरनाक विज्ञापन छाप रहा है, ताकत की दवाओं का प्रचार कर रहा है।
मैं आम आदमी की खबर छापता हूं, इसलिए मैंने अपना एक नया मंच तैयार किया है। उसे बनाने और बनाये रखने के लिए मैंने घर फूंक तमाशा देखने की कहावत चरितार्थ कर डाली है। बेहाल लोगों की आवाज गूंजती रही, इसलिए लिए मैं अपने खर्चे पर युद्ध छेड़ता हूं। खतरे उठाता हूं। इसके लिए समर्थ लोगों से भिक्षा मांगता हूं, तो लोग मुझे असफल पत्रकार और असफल इंसान करार देते हैं। भिक्षा देने में भी लोगों को छींकें आ जाती हैं। नतीजा मैं दिक्‍कतों-फक्‍कड़ी और दुश्‍वारियों से दो-चार होता रहता हूं, जबकि चैनलों और अखबारों में काम कर रहे पत्रकार अफसरों-नेताओं की दलाली कर रहे हैं। ट्रांसफर-पोस्टिंग करा रहे हैं। चुगली खा रहे हैं। वगैरह-वगैरह।
और चूंकि मैं ऐसा कुछ नहीं कर रहा हूं, इसलिए मुझे असफल पत्रकार माना जाता है।
और इसीलिए मैं अपनी इस असफलता पर गर्व करता था, करता हूं, और हमेशा करता रहूंगा भी।

8 thoughts on “मैं कंगाल-मुफलिस इंसान ही नहीं, असफल पत्रकार भी हूं

  1. Mere guru Acharya Shri Ram Sharma kaha kaha karte the-Duniya ka Itihaas asfal logo ka Itihaas hai. Rana pratap se lekar Bhagat Singh tak

  2. सर आपके सामने कुछ बोलू ये मेरी औकात नहीं,
    फिर भी इतना कहना छत हूँ, की आपके जैसा महान पत्रकार अभी तक कोई नही हुआ है, सर अपना आशीर्वाद हमेशा हमपर बनाये रखियेगा

  3. Dear Sauvir,
    You are not a unsuccessful reporter, but you are a brave person, who can speak the truth loudly. You have courage to unveil the truth.
    सौवीर वह शेर है जो चाहे कितना भी भूखा हो पर घास नहीं खा सकता है। मुझे गर्व है अपने भाई से भी बढकर, दोस्त पर, जो किसी भी मुसीबत में अपने सच्चे साथियों को नहीं छोड़ सकता। तुमने किसी भी बड़े से बड़े मालिक के तलवे चाटने की बजाय हमेशा नौकरी छोड़ना बेहतर समझा।
    अपना टाइम आएगा। Don’t worry my dear.

  4. ये समाज बहुत स्वार्थी है। बोता और उगाता बबूल है और इच्छा आमों की रखता है। एक कर्त्तव्य परायण ईमानदार व्यक्ति की खिल्ली ही उड़ायी जाती है। और फिर रोना रोया जाता है कि अच्छे लोग पैदा नहीं हो रहे।

  5. सौवीर जी आप पत्रकारिता के उच्च मानदंडों को किसी तरह बरकरार रखने में सहायक है। चाटुकारो के लिए सफलता की परिभाषा समय-समय पर बदलती है परंतु आप अपने सिद्धांतों पर दृढ़ निश्चय के साथ खड़े रहे। हमारी शुभकामनाएं आप के साथ है।

  6. गुरूवर।सादर साष्टांग दंडवत् प्रणाम्…..अहोभाग्य…तूसी ग्रेट हो…
    जिंदगी में खामोश अकेले मोड़..जिसकी साक्षी केवल हमारी आत्मा होती है…
    आज अपने गिले शिकवे को धनी कर दिया….पैसा न रहे जिंदगी मे कोई बात नहीं…आपके शब्द की शौहरते जिंदगी कायम है…दोनों बिटिया साशा बकुल के अटूट पिता प्रेम ने मिसाल कायम की है…
    पत्रकारिता के बिखरे आयामों की दुनिया मे आज पत्रकारिता के मायने अगर किसी ने तलाशे है तो वो है हमारे गुरू ……सदा प्रसन्न रहे सफल रहे……नया साल मुबारक…..

  7. गुरूवर।सादर साष्टांग दंडवत् प्रणाम्…..अहोभाग्य…तूसी ग्रेट हो…
    जिंदगी में खामोश अकेले मोड़..जिसकी साक्षी केवल हमारी आत्मा होती है…
    आज अपने गिले शिकवे को धनी कर दिया….पैसा न रहे जिंदगी मे कोई बात नहीं…आपके शब्द की शौहरते जिंदगी कायम है…दोनों बिटिया साशा बकुल के अटूट पिता प्रेम ने मिसाल कायम की है…
    पत्रकारिता के बिखरे आयामों की दुनिया मे आज पत्रकारिता के मायने अगर किसी ने तलाशे है तो वो है हमारे गुरू ……सदा प्रसन्न रहे सफल रहे……नया साल मुबारक…..पृथ्वी

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