घर से प्रवासी लोगों के लिए देवदूत होते थे पंडित जी

बिटिया खबर

: रक्षाबंधन में फिर हुलस पड़ी कलावा की चमक : जजमान को आशीर्वाद सर्वोच्‍च, बिना सोचे-देखे कि थाली में कितना धन सौंपा जजमान ने : लुच्‍चों-छिनरों को थूक चटाने में माहिर थे निर्दोष पुलिसवाले : अखिलेश यादव के कृपापात्र नवनीत सिकेरा ने मोहनलालगंज में महिला की लाश पर रक्षाबंधन को रौंद डाला :

कुमार सौवीर

लखनऊ : वह दौर मैंने बहुत करीब से देखा है,जब अपने घर-दुआर से दूर रोजी-रोजगार कमाने निकले लोग रक्षाबंधन के दिन अपनी सूनी कलाइयों को कोसा करते रहते थे। दिल धड़कने लगते थे उनकी याद में जिन्‍होंने बचपन से ही उनकी पीड़ाओं को महसूस किया, उन्‍हें मजबूत संबल दिया और जीवन का अर्थ समझा दिया। कथाओं में माना जाता है कि मेवाड़ को सुल्तान बहादुर शाह से बचाने के लिए चितौड़गढ़ की रानी कर्णावती ने हुमायूं को राखी भेजी थी, और हुमायूं ने उस राखी की लाज बहुत लुटा कर बचायी। साहित्‍य में भले ही कम रहा हो, लेकिन अभी तीस-चालीस बरस पहले तक हिन्‍दी फिल्‍म जगत में रक्षाबंधन भाई-बहनों के लिए सर्वोच्‍च उत्‍सव ही नहीं, बल्कि एक पवित्र पर्व हुआ करता था।
मुझे याद है कि घर-दुआर से कोसों-योजनों दूर बैठे भाइयों की कलाइयों को सजाने के लिए पंडित जी थाली में राखी, टीका-तिलक के लिए लोचना और टूटे-फूटे बतासा लिये बड़ी व्‍यग्रता के साथ घूमा करते थे। राखी बंधवाने के लिए तत्‍पर पंडित जी यह अनुष्‍ठान निपटाने के बाद भाई बने जजमान को टीका लगा कर उनकी आरती उतारने के बाद बतासा के एक टुकड़े से उनका मुंह मीठा करते थे। मैंने देखा है कि अपनी गीली आंखों वाले जजमान अपनी जेब से कुछ न कुछ निकाल कर पंडित लोगों की थाली पर अर्पित कर देते थे। उसके बाद ही पंडित जी का चरण-स्‍पर्श होता था। जजमान को आशीर्वाद देने की परम्‍परा कत्‍तई नहीं भूलते थे पंडित लोग, बिना यह सोचे-देखे कि उनकी थाली में कितना धन सौंपा है जजमान ने।
बहराइच के जरवल रोड पुलिस चौकी का दृश्‍य तो मुझे खूब याद है। करीब पचपन बरस पहले की घटना होगी यह, जब रक्षाबंधन के दिन इस पुलिस चौकी पर तैनात सिपाही तथा दारोगा, और आसपास के सरकारी या निजी कर्मचारी या रोजगारी के लिए घर छोड़ कर वहां रहने वाले लोग भी सुबह स्‍नान-ध्‍यान के बाद पंडितों को खोजना शुरू कर देते थे। बेसब्री के साथ। पंडित जी दिखे ही नहीं, कि शोर सा उठ जाता है, हाथ में कलावा-रक्षाबंधन बंधवाने के लिए। क्‍या दिव्‍य माहौल हुआ करता था वह।
मेरी मम्‍मी सत्‍यप्रभा त्रिपाठी जी के साथ हम लोग स्‍कूल परिसर में ही रहते थे। गेट से सटी थी पुलिस चौकी। दरवाजे से बाहर निकले ही नहीं कि बायीं ओर गौरी-शंकर का मंदिर और उससे सटा कुंआ और दाहिनी ओर पुलिसचौकी। लेकिन मजाल, कि कभी हम लोगों ने उन पुलिसवालों की मुंह से गाली सुनी हो। छोटा अपराध तो पुलिसवाले खुद ही निपटा देते थे, मसलन किसी ने छोटी-मोटी चोरी की, तो उसको जमीन पर थूकने ही नहीं, बल्कि उस थूक को चाटने पर बाध्‍य कर देते थे पुलिसवाले। इस चेतावनी के साथ कि आइंदा अगर पता चला तो जेल का दरवज्‍जा तुम्‍हारे लिए फौरन खुलवा देंगे। बात खत्‍तम। कभी सुना ही नहीं था कि कभी किसी पुलिसवाले ने कोई चोरी-सियारी की हो, या किसी निर्बल पर कोई अत्‍याचार किया हो। कहीं अपराध ही नहीं। क्‍या टीचर और क्‍या दीगर सरकारी लोग, किसी को शिकायत का मौका ही नहीं मिलता था। झिड़क का माहौल तो तब बनता था, जब चीनी मिल को जाती गन्‍ने की बैलगाडि़यों-लडि़हा से बच्‍चे गन्‍ना चुरा कर भागते थे। चीनी मिल में डिस्‍पेंसरी थी, जिसमें एक डॉक्‍टर और एक ईसाई नर्स।
लेकिन यह तो बहुत सुदूर अतीत की बात है। अब तो राजधानी तक के पुलिसवाले खुद अपराध कराते हैं। मडि़यांव और पीजीआई थाने के इंस्‍पेक्‍टर ने तो घायलों को मौत के घाट उतारने तक का इंतजाम कर दिया, बदले में अभियुक्‍त से मोटी रकम उगाह ली। एप्‍पल कंपनी के मैनेजर विवेक तिवारी के उनके माथे पर एक हेडकांस्‍टेबल ने जिंदा गोली मार दी, तो तब के एसएसपी, डीए ही नहीं, बल्कि डीजीपी रहे ओपी सिंह तक ने हेड कांस्‍टेबल को बचाने के लिए सारी कोशिश कर दी। हालत तक विद्रोह पहुंचा दिया था डीजीपी ओमप्रकाश सिंह ने। लखनऊ में तीन हत्‍याओं का सेहरा आईपीएस अफसरों के माथे पर है, लेकिन न डीजीपी ने हस्‍तक्षेप किया और न ही शासन या सरकार ने। इसके पहले मोहनलालगंज में मिली एम महिला की रक्‍तरंजित लाश के आरोपितों को बचाने और उस कांड को दबाने के लिए अखिलेश यादव के मुंहलगे आईपीएस नवनीत सिकेरा और पूरे पुलिस महकमे व शासन के आला अफसरों ने जो नंगई की, वह रक्षाबंधन जैसे पुनीत दायित्‍व-पर्व पर कालिख है।
आज हालत यह है कि स्‍वास्‍थ्‍य मंत्री अस्‍पतालों में अपनी फोटो तो खूब खिंचवाते हैं, लेकिन मजाल है किसी मरीज की, कि वह अस्‍पताल में कोई सुविधा हासिल कर ले ? दवा का करोड़ों रुपया मेडिकल कालेज में है, लेकिन किसी भी पीएचसी पर भी दवा नहीं मिलती। मेडिकल कालेज में एडमीशन पर एक जज जेल तक पहुंचे, पत्रकार थाने से छुड़ा लिया संपर्कों से, एक जज आज भी बाहर। सन-78 में जरवल के विधायक और मंत्री भी रहे रामकुमार वर्मा, किताब-कापी और छाता की दूकान थी। पक्‍के संघी थे। लेकिन ईमानदारी इतनी कि अपने बेटे की सिफारिश तक नहीं की, बोले कि यह करना बेईमानी होगी। वहां कक्षा चार पास विधायक रहे भगौती सिंह की रखैली मानी जाती थीं मुन्‍नी देवी, लेकिन वह लोग केवल अपवाद ही थे। आज तो हर मोहल्‍ले में श्रीकांत त्‍यागी हैं, और राकेश सचान जैसे मंत्री भी हैं, जो खुद पर एक बरस की सजा सुनने के बाद अदालत से फाइल लेकर ही भाग निकले। रखैल रखने का तमगा अपने माथे पर टांगने वाले जनप्रतिनिधि लोग अधिकांश हैं, और जिनमें इतना दम नहीं, उनके बच्‍चों की शक्‍ल उनके पड़ोसियों में हू-ब-हू दीखती है। आज के डॉक्‍टर तो मरीज के भीतर डंडा घुसेड़ कर रकम उगाह लेते हैं। जौनपुर में एक डॉक्‍टर तो अपने मरीज के गुप्‍तांग मार्ग में घुसा एक ग्‍लास बरामद करने का दावा करने लगा। पत्रकारिता करने वाला तो मानो किसी दैवीय और पूज्‍य धर्म का निर्वहन करने वाला देवता माना जाता था, लेकिन अब हर जेल में बड़ी तादात पत्रकारों की है। वकील तो इतने बेशर्म हो गये हैं कि उनपर बात करने से ही उबकाई आने लगती है।
रही बात बहन की, वह तो अपने भाई के लिए आंसू बहाया करती थी, अब वही बहन अपने भाइयों को खून के आंसू बहाने पर आमादा है। केवल भाई ही नहीं, बल्कि भतीजों-भतीजियों का भी जीना हराम कर रखा है आज की बहनों ने। और भाई भी माशाअल्‍लाह। एक भाई ने अपनी बहन को दूसरा विवाह करने से केवल इस तर्क पर रोक दिया कि लोग क्‍या कहेंगे और समाज क्‍या समझेगा। कमाल यह कि इसी बहन का विवाह इसी भाई ने एक नपुंसक से करा दिया था, जिसके परिवार ने बहन को उसकी ससुराली सम्‍पत्ति और अधिकार से ही वंचित कर दिया।

और पंडित जी? वह तो वाकई धन्‍य हैं। विकास दुबे से लेकर पुलिस वाले अनंत तिवारी और राजनीति में अधिकांश पंडितों को देख लीजिए, आपको घिन न आये तो अपना कोरोना टेस्‍ट करवा लीजिएगा।
इसके बावजूद हमको-आपको अगर रक्षाबंधन पर अपने सामाजिक दोगले चरित्र पर शर्म नहीं आती है, तो फिर आप जानें, और आपका जीवन जाने।

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