मैं तीन गुंडों से निपट सकता हूं, तेरी आंखों से नहीं
कुमार सौवीर
लखनऊ : लेकिन तुम मेरी यह शर्त मान लो कि तुम मुझे छक्का नहीं मानोगे, तब ही बताऊंगा। हां नहीं तो…
तो दोस्तों, यह करीब पचीस साल पहले की बात रही होगी। एक रात करीब डेढ़ बजे मैं अपने एक मित्र के साथ आफिस से लौट रहा था। दैनिक जागरण में वरिष्ठ संवााददाता हुआ करता था तब मैं।
कपूरथला चौराहे के पास दो स्कूटर सवार युवकों ने अपना वाहन लहरा दिया। दारू में टल्ली थे वह दोनों। मैं अचकचा गया। टोका, तो भद्दी गालियां देने लगे। बात बढ़ी तो उसमें से एक ने हाथापाई शुरू कर दी। मैंने भी अपना जौहर दिखाया और एक ही कन्टाप में उसका तीन चक्कर दिला कर जमीन-नशीन कर दिया।
इन लोगों का घर पास ही था। गालियां देते हुए उनमें से एक दौड़ा और अपने से घर से दो लाठियां ले आया। एक अपने साथ को थमाया और मुझ पर दोनों लोग जुट गये। रजाई समझ कर कूटना शुरू कर दिया। पक्कर पुक्कर धांय धांय
वे मुझे लठिया रहे थे, जबकि मैं उनसे हाथापाई के असफल प्रयास में था। पचीसों लाठियां मेरी पीठ पर रसीद हो गयीं। मेरे साथी के प्राण सूख गये थे। वह थरथरा रहा था, डर के मारे। जब कि मैं बिलबिला रहा था। मारे दर्द के। लगा, कि यह तो दोनों लोग मुझ को अमझोरा ही बना डालेंगे। कूट-कूट कर गजक बनाने पर आमादा थे वे लोग।
अचानक मैंने एक फैसला किया। लाठियों की बारिश से बेखबर होकर मैंने एक को ठेला और सीधे उसके गाल पर दांतों से नोंच दिया। वह इस तरह के हमले से बेखबर था। दर्द से बिलबिला उठा। गों-गों की आवाज निकलने लगी, मर्मान्तक। यह सुन कर दूसरा साथ भी हाथ खड़ा कर बैठा। वह मुझसे विनती करने लगा, इसीबीच मैंने नीचे गिरे युवक को छोड़ा और तीर की तरह उसके अण्डकोशों को दोनों हाथों से कस कर भींच डाला। दो ही मिनट में वह बेहोश हो गया, और जिसके गाल को पहले मैंने दबोचा था, वह मेरे पैरों पर गिड़गिड़ाने लगा।
इसके बाद किसी दिग्विजयी सम्राट राणा प्रताप की तरह मैंने उन दोनों की ओर निगाह फेंकी और अपने स्कूटर पर अपने साथी को लेकर अपने घर चला गया। अगले तीन दिनों तक पूरा बदन भारी बुखार और टूटन से जूझा। केवल हल्दी मिला गुनगुना दूध और बन्द-बिस्कट के साथ खिचड़ी ही मेरे बिस्तर पर रहा। दफ्तर तो उस दौरान जाने लायक ही नहीं था मैं।
बहरहाल, मैं असल बात जो कहना चाहता हूं वह यह है कि आम तौर पर लोग कविता की गंगोत्री केवल और केवल, प्रेम या वियोग से मानते हैं। जब कि मेरा यह मानना है कि यह धारणा सिरे से ही गलत है।
मेरा मानना है कि दारूण पीड़ा से भी कविता का प्रजनन हो सकता है। जैसे मैं। मैंने उस पिटाई के दर्द के बाद जो कविता लिखी वह भले ही चूतियापंथी रही हो, लेकिन यार, कसम से, वह थी बहुत बढिया। आप भी सुनिये:-
“मैं अपने किसी भी एक विरोधी को मार-मार कर अधमरा कर सकता हूं।
दो लोगों को जमकर पीट सकता हूं।
तीन से बराबर लड़ सकता हूं।
और अगर यह संख्या चार तक पहुंच जाए, तो सुरक्षित भाग भी सकता हूं।
लेकिन तुम्हारी इन जुड़वा आंखों की ओर देख पाने का साहस मुझ में नहीं है।”