लॉकडाउन में बनारस: रस चौपट, स्मृतियां शेष

दोलत्ती


: देख ल, एगो किताबै लिख देहलें रजा बनारस : काशी के सक्रिय और वरिष्ठ पत्रकार ने लॉक-डाउन के माहौल पर एक ग्रन्थ रच डाला : किताब है बनारस लॉकडाउन, कहानियों की कहानी
विजय विनीत
वाराणसी : सुबह-ए-बनारस जिस रौनक से उतरता था, घंटा-घड़ियाल, ढोल-नगाड़ा और शहनाई सुनाता था, बनारस की वो शाम जिसकी तरंगें आरती से गंगा में प्रवाहित होती थीं, वो मेले और तीज-त्योहार जो दुनिया भर से आने वाले लोगों की हर साध पूरी करते थे-वो लॉकडाउन में उदासी और सन्नाटे से घिर गए। कोरोना की आंधी में बनारस का वो वजूद भी मिट गया जो भोर के झुटपुटे में ‘हर-हर महादेव शंभो, काशी विश्वनाथ गंगे’ की गूंज सजाता था। भजन-कीर्तन की ध्वनियां अरुणोदय को निमंत्रण देती थीं। अराधना और भक्तिभाव का संदेश देने वाला बनारस लॉकडाउन में पूरी तरह खामोश हो गया। बनारस का बना हुआ रस चौपट हो गया, बस स्मृतियां ही शेष हैं।
बनारस लॉकडाउन में संकलित रचनाओं में कोरोनाकाल के संकट की सिर्फ उदासी ही नहीं, काशी की मिट्टी की सुगंध भी है। घंटे-घड़ियाल तो हर जगह बजते हैं, लेकिन जब बनारस में बजते हैं उसकी अपनी एक अलग मिठास होती है। यह बनारस ही है जहां गंगा की धारा उलट गई, आम लंगड़ा हो गया और बात बतरस में बदलकर किस्से-कहावतों में बदल गई। बनारस के ‘गप्प’ में जो मजा है, वो सारे जहां के ‘सच’ में भी नहीं है।

  1. विश्व की सांस्कृतिक राजधानी काशी की संस्कृति, संस्कार और रोमांच पर कोरोना के आघात को उजागर करती एक सपाट बनारसी शैली में लिखी कहानियां और कोविड 19 के हमले की गाथा हैं। आप एक-एक रचनाएं पढ़ेंगे तो लॉकडाउन में बनारसी पान, खान-पान, मिठाई, भांग-ठंडई, बनारसी साड़ी और हस्ती-मौजमस्ती पर पड़ने वाले प्रभावों की गहन पड़ताल मिलेगी। विश्वव्यापी महामारी के संकटकाल में मैने बनारस को जैसा देखा-समझा, उसका सही-सही चित्रण ईमानदारी से किया है। मेरा विश्वास है, लॉकडाउन के दौरान आंखों-देखी यह देश की पहली पुस्तक आपको जरूर पसंद आएगी।
    यह पुस्तक प्ले स्टोर, अमेजॉन और फ्लिपकार्ट पर जल्द मिलेगी।

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