प्रधानमंत्री जी, उच्च शिक्षा तबाह हो रही है, उसका प्रसार रोकिये

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: एक पूर्व ब्यूरोक्रेट ने भेजा नरेंद्र मोदी को खुला पत्र : माध्यमिक शिक्षा तक गुणवत्ता और संख्या बढाना जरूरी : शिक्षा का ढांचा और राजनीति में गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया गया तो सब हो जाएगा तबाह :

संवाददाता

लखनऊ : क्या आपको ऐसा नहीं लगता है कि हम जिस विकास की दौड़ में अंधाधुंध भागते जा रहे हैं, दरअसल उसके पीछे मूलभूत सवाल बुरी तरह रौंदते जा रहे हैं। हमारे राजनीतिक दल और क्षुद्र स्वार्थों पर लटकी सरकारें विकास के नाम पर सड़क, बिजली जैसे सवालों को आम आदमी के सामने चुनौती की तरह पेश करते जा रहे हैं, लेकिन हकीकत यही है कि इससे अहम सवाल छूटे जा रहे हैं, अक्‍सर अनजाने में, या फिर जानबूझ कर। वहज है शिक्षा और उसके साथ ही साथ राजनीतिक सुधार।

यूपी के एक पूर्व बड़े नौकरशाह देवेंद्र नाथ दुबे इस मसले पर अब बड़ी चर्चा की वकालत कर रहे हैं। इलाहाबाद के मंडलायुक्त पद से सेवानिवृत्त देवेंद्र दुबे ने इन सवालों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक खुला पत्र भेजा है। आपके पास अगर समय हो, और आप अगर देवेंद्र दुबे के सवालों को समीचीन मानते हैं और चाहते हैं कि वाकई यह मसले बेहद अहम और उनके परिणाम दूरगामी होंगे, तो आइये इन पर बहस छेड़ दीजिए। पेश है देवेंद्र दुबे का वह पत्र:-

परम आदरणीय प्रधान मंत्री जी ,

आपके शासन के, या सेवा के जैसा आप कहते हैं , ढाई वर्ष पूरा होने की हार्दिक बधाई कृपया स्वीकार करें | वर्तमान जनादेश के ढाई वर्ष अवशेष हैं और पूर्ण बहुमत वाली सरकार के लिए दृढ निश्चय के साथ काम करके परिणाम देने के लिए कुछ समय अवश्य है | परन्तु देश की ठोस प्रगति के लिए शायद यह आवश्यक है कि कुछ प्राथमिकताएं तय की जाएँ | जनसँख्या की वृद्धि एक बहुत बड़ी समस्या है परन्तु उस पर कोई क्रांतिकारी निर्णय लेना संभवतः राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में संभव  नहीं होगा | परन्तु आंकड़े बतलाते हैं कि जो प्रदेश शिक्षा के क्षेत्र में आगे रहा है उसकी जनसँख्या वृद्धि भी उसी अनुपात में नियंत्रित रही है | केवल जनसँख्या के क्षेत्र में ही नहीं अपितु सभी क्षेत्रों में शिक्षा मूलभूत आधार है और यदि सरकारों ने स्वतन्त्रता के पश्चात इस पर गंभीर ध्यान दिया होता तो संभवतः यह देश चीन से आगे ही होता | इस विषय पर मेरे सुझाव संक्षेप में निम्न प्रकार हैं –

1 उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रसार अविलम्ब रोक दिया जाए तथा नए – नए संस्थानों , चाहे वह सरकारी क्षेत्र में हों या निजी क्षेत्र में , को खोलने के बजाय पहले से अवस्थित शिक्षा संस्थानों को मजबूत किया जाए | हो यह रहा है कि पहले से काम कर रही उच्च शिक्षण संस्थाएं आवश्यक धन तथा सहायता के अभाव में जर्जर होती जा रही हैं जिनको पुनः सुद्रढ़ करने में नयी संस्थाओं के सृजन में होने वाले व्यय की तुलना में अपेक्षाकृत काफी कम धन , शक्ति एवं  समय लगेगा |

2 शिक्षा में केवल गुणवत्ता तथा प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा में गुणवत्ता के साथ संख्या – यह हमारा सूत्र वाक्य  होना चाहिए |

3 भारत के प्रत्येक बच्चे को समान अधिकार प्राप्त हैं |परन्तु जन्म  के क्षण से ही उसके साथ इस तथाकथित समाजवादी देश में भेद-भाव प्रारम्भ हो जाता है जिसमें उसका कोई दोष नहीं केवल सरकारी नीतियाँ ही जिम्मेदार हैं , क्योंकि यहाँ पर हम शिक्षा की बात कर रहे हैं इसलिए वहीँ सीमित रहते हुए  यह अत्यंत आवश्यक है कि “नेबरहुड स्कूल”  की व्यवस्था लागू की जाए | यदि उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री के बच्चे भी उसी स्कूल में पढेंगे जहाँ पर उनके आउट हाउस में रहने वाले बच्चे पढ़ते हैं तो निश्चित रूप से उस विद्यालय का शैक्षणिक तथा अन्य  स्तर  अपने आप सुधर जाएगा | इसका दूसरा सबसे महत्वपूर्ण परिणाम यह होगा कि सब बच्चे जिन्दगी की दौड़ एक ही तथा समान प्रारम्भिक बिंदु से प्रारम्भ करेंगे और यह देश कह सकेगा कि वह प्रत्येक बच्चे को समान अवसर दे रहा है | इसके बाद वह बच्चा क्या कर पाता है यह उसके परिश्रम और उसकी मेधा पर निर्भर करेगा |

4 शिक्षा के अधिकार अधिनियम  , बाल श्रम अधिनियम तथा समान प्रकार के अन्य अधिनियमों के अंतर्गत इस प्रकार की व्यवस्थाएं होना आवश्यक है जिसमें बच्चे यदि विद्यालय ना जाएँ और / या कहीं मजदूरी करें तो  उसके लिए उसके माता-पिता , शिक्षक तथा नियोक्ता , तीनों के ही विरुद्ध कार्यवाही की जाए न कि केवल नियोक्ता के विरुद्ध ,क्योंकि सत्य यह है कि ऐसे अधिसंख्य माताओं/पिताओं के लिए बच्चा उनकी पारिवारिक आमदनी बढ़ने का साधन है और उनकी सोच इसके आगे नहीं जाती है |

5 कक्षा आठ तक शिक्षा सभी के लिए एक सी हो और सबके लिए  अनिवार्य हो | कतिपय राज्यों में  आज कल सभी छात्रों को उत्तीर्ण करने का जो चलन हो गया है उसको तत्काल प्रभाव से समाप्त करने की आवश्यकता है क्योंकि वास्तविक शिक्षा का उद्देश्य तब तक प्राप्त नहीं हो सकता जब तक बच्चों की प्रतिभा तथा रुझान की कड़ी परीक्षा न ली जाए | कक्षा आठ की परीक्षा यह बतलाएगी कि कौन से बच्चे शिक्षा में रूचि नहीं रखते और उनका साक्षर होना ही पर्याप्त है | यदि ऐसे बच्चे अन्यथा प्रयत्न नहीं करते हैं तो वह अकुशल श्रमिक के रूप में अपना भविष्य तय कर सकते हैं |

6 कक्षा नौ और दस की पढाई में यह ध्यान दिया जाना है कि अब बच्चों को साक्षरता से आगे ले जाना है और इसके लिए उनकी कड़ी परीक्षा लेने के साथ साथ उनके रुझान को समझने की प्रक्रिया भी चालू करनी होगी ताकि वह यह समझना प्रारम्भ कर सके कि वास्तव में वह क्या बनना चाहता है | कक्षा दस की परीक्षा पुनः यह तय करेगी कि विद्यार्थी अग्रिम शिक्षा के योग्य है अथवा नहीं | यदि वह अग्रिम शिक्षा के योग्य है तो अपनी रूचि तथा परीक्षाफल के आधार पर कक्षा ग्यारह में प्रवेश पायेगा  अन्यथा आई० टी० आई० जैसे पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेकर कुशल श्रमिक या मैकनिक बन सकता है | फ़ौज में सिपाही के लिए भी कैरियर यहीं तय हो जाएगा |

7  कक्षा बारह की परीक्षा के पश्चात विद्यार्थी को यह तय करना होगा कि वह भविष्य में क्या बनना चाहता है -डॉक्टर ,इन्जीनियर ,प्रशासक ,वकील , फौजी अधिकारी ,शिक्षक, वैज्ञानिक ,आदि आदि सभी व्यवसाय या जीवन के समस्त क्षेत्रों में से कोई एक | यहाँ महत्वपूर्ण यह है कि प्रत्येक क्षेत्र के लिए पाठ्य अवधि समान होगी  तथा सभी प्रतियोगी  परीक्षाओं का स्तर एवं उच्च शैक्षणिक कक्षाओं की प्रवेश परीक्षाओं का स्तर एक समान ही होगा | इसमें विषयवार अथवा ,प्रतियोगी परीक्षाओं के सन्दर्भ में क्षेत्रवार कोई भी अंतर नहीं होगा | महत्वपूर्ण यह है कि सामान्य स्नातक पाठ्यक्रमों जैसे बी० ए० , बी० एससी० , बी० काम० आदि का स्तर भी वही होगा जो एम्० बी० बी० एस० या बी० टेक० आदि का है | अर्थ यह है कि यह नहीं माना जाना चाहिए कि ये पाठ्यक्रम दोयम दर्जे के हैं और क्योंकि इंजीनीयरिंग में नहीं आ पाए इसलिए बी०एससी० कर रहे हैं  तथा इसी प्रकार | क्योंकि इन्ही सामान्य स्नातक पाठ्यक्रमों में आने वाले विद्यार्थी ही सभी विधाओं के शिक्षक बनेंगे और इसलिए वस्तुतः उनका बौद्धिक स्तर लगभग सर्वश्रेष्ठ होना चाहिए | अर्थ यह है कि स्नातक सभी बराबर योग्यता के हों ,चाहे एम्० बी० बी० एस० हों या बी० एससी० |

8 कुछ व्यवसायिक पाठ्यक्रम ऐसे हो सकते हैं जैसे बी० एड० , एम्० एड० जिनमें प्रवेश इन्टर के बाद संभव नहीं है | उसके लिए स्नातक या स्नातकोत्तर परीक्षा के बाद ही चयन किया जाना उचित एवं संभव होगा परन्तु यह शिक्षा का क्षेत्र है और हमको सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्क चाहिए जो शिक्षा के क्षेत्र में आयें और अपने को उतना ही सम्मानित और गौरवान्वित अनुभव करें जिसके वे हक़दार हैं |

9 अपने अपने क्षेत्रों में स्नातकोत्तर तथा शोध एवं आविष्कार की व्यवस्था इसी प्रक्रिया का अंग होगी |

10 इस पूरी प्रक्रिया में पुनर्परीक्षा की व्यवस्था सदैव और प्रत्येक स्तर पर रहेगी अर्थात यदि कोई कक्षा आठ के बाद कक्षा नौ में प्रवेश के योग्य नहीं पाया जाता है तो वह सदैव के लिए मजदूरी करने के लिए अभिशप्त नहीं हो जाएगा | वह जब तक चाहे कक्षा आठ , दस , बारह की परीक्षाएं – यथा स्थति – देता रह सकता है परन्तु उसके लिए परीक्षा के स्तर में कोई ढिलाई नहीं की जायेगी | आज-कल जो व्यवस्था है उसके अंतर्गत एम्० ए० की डिग्रीधारक की वास्तविक योग्यता कभी-कभी हाई स्कूल भी नहीं होती है| उद्देश्य यह है कि जिसके पास जो डिग्री या प्रमाण–पत्र है वह  वास्तविक रूप में उसके योग्य हो |

11 इस पूरी प्रक्रिया में क्षैतिज प्रवेश की व्यवस्था सदैव रहेगी क्योंकि ऐसा न करना संविधान के विपरीत  होगा | परन्तु यह गंभीर विचार का बिंदु है कि क्या एक प्रशासनिक अधिकारी और एक पुलिस अधिकारी या एक न्यायाधीश या एक औद्योगिक प्रबंधक बन्ने के लिए एक ही प्रकार की अभिरुचि और योग्यता चाहिए ? प्रश्न यह है कि क्या यह उचित है कि आई० ए० एस० नहीं बन पाए तो आई०पी०एस० बन गए जबकि दोनों क्षेत्रों के लिए मानसिक और वैचारिक संरचनाओं की अपेक्षाएं पूर्णतः पृथक –पृथक हैं | एम्० टेक० किया या एम्० बी० ए० किया और आई० आई० टी० या आई० आई० एम्० से किया और फिर बाद में आई० ए० एस० बने | ऐसा व्यक्ति मन लगा कर के क्या काम करेगा जब उसे अभिरुचि का ही ज्ञान नहीं है तो वह न अपने साथ न्याय कर रहा है न अपने कार्य के साथ | वस्तुतः जो व्यवस्था और दर्शन एन० डी० ए० की परीक्षा में है वही दर्शन सभी क्षेत्रों में होना चाहिए | केवल अच्छी मेधा होना ही अच्छे वकील , अच्छे जज, अच्छे प्रशासक ,अच्छे वैज्ञानिक ,अच्छे शिक्षक होने की गारेंटी  नहीं है | मेधा और परिश्रम के साथ रुझान भी होना चाहिए जिसको जांचने परखने की व्यवस्था कक्षा नौ ,दस, ग्यारह, बारह की पढाई के दौरान प्रस्तावित की गयी है |

12 राजनीति के क्षेत्र में आने के लिए कोई परीक्षा आज तक कहीं भी तय नहीं की गयी है और न की जानी चाहिए परन्तु राजनीतिक  दल अगर यह तय कर लें कि उपरोक्त कठिन शिक्षा प्रणाली के अनुसार स्नातक व्यक्ति ही किसी राजनीतिक पद पर आ सकता है और सक्रिय राजनीति मे रहने की अधिकतम आयु , जैसा आपने किया है , सभी दल तय कर लें तो राजनीतिज्ञों का सम्मान भी बढेगा और देश की जनता का उन पर विश्वास भी बढेगा | शिक्षक और राजनीतिज्ञ दो ऐसे क्षेत्र हैं जिसमें पर्याप्त गरिमा और स्तर के बगैर देश में  बहुत बड़े सुधार की आशा नहीं की जानी चाहिए | यदि गौर किया जाए तो पाया जाएगा कि ” सकल  घरेलू उत्पाद ” या “प्रति व्यक्ति आय” ही देश की उन्नति का मापदंड नहीं है |असली मापदंड है जनता की सोच जिसको प्रभावित करने और बनाने में शिक्षक और राजनीतिक व्यक्ति का सर्वाधिक महत्त्व है |

13 जो शिक्षक , चाहे वे किसी भी स्तर के हों ,राजकीय कोष से अपना    वेतन प्राप्त करते हों ,उन पर राजनितिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए वही आचरण संहिता लागू होनी चाहिए जो राजकीय सेवकों पर लागू होती है |

यह एक बहुत ही संक्षिप्त रूपरेखा है जिसको लागू करने के लिए केवल दृढ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है जो प्रधानमन्त्री जी आप में है | इसके लिए यह भी आवश्यक होगा कि इसके क्रियान्वयन की रूपरेखा में सहभागिता उनकी हो जो जमीनी स्तर पर समस्याओं से जूझ रहे हैं और अंतिम रूप बेशक बड़े बड़े बुद्धिजीवियों द्वारा दिया जाए | इससे कोई असहमत नहीं होगा कि शिक्षा के क्षेत्र में यदि दस प्रतिशत का भी सुधार होता है तो अन्य क्षेत्रों में इसका परिणामी सुधार कई गुना होता है | अगर हम शिक्षा को शिक्षा के क्षेत्र को संवार लें और प्रत्येक बच्चे को समान अवसर देना सुनिश्चित कर सकें तो तमाम राजनितिक और सामजिक कुरीतियों को यदि शून्य न भी कर पायें तो भी उनकी तीव्रता में कमी अवश्य आ जायेगी | आरक्षण , लिंग-भेद , जाति  , सम्प्रदाय के आधार पर भेद-भाव , दहेज़ प्रथा अत्यधिक जनसँख्या वृद्धि जैसे तमाम मुद्दों की धार स्वयमेव कुंद हो जायेगी |

एक बिंदु और : जो सबसे महत्वपूर्ण है |लोकतंत्र होते हुए भी भारत में कदाचित शासक वर्ग ऐसे वर्ग को पसंद करता रहा है जो बगैर सोचे समझे उनका अनुसरण करें और धीरे – धीरे व्यवस्था व्यक्ति-केन्द्रित होती जा रही है | अब राजनीतिक दल सिद्धांतों के आधार पर नहीं , व्यक्तिगत लाभ – हानि के आधार पर चलने लगे हैं और व्यक्ति से दल की पहचान होने लगी है न कि दल से व्यक्ति की | यह इसलिए हुआ है क्योंकि ऐसा चाहा गया है अन्यथा क्यों डिग्री धारक वास्तविक रूप से पढ़े लिखे नहीं हैं क्योंकि पढ़े लिखे होने की पहचान है विवेकशक्ति का होना और विवेकशील व्यक्ति पूर्णतः अंधभक्त नहीं हो सकता है | कदाचित इसी आधार पर  तय हुई है शिक्षा के प्रति सरकार की गंभीरता |

धन्‍यवाद

आपका

देवेंद्र नाथ दुबे

20 / 31, इंदिरा नगर, लखनऊ- 2260106

फोन 09415408018 फैक्स   – 0522 2349 593

ई-मेल – dubey_dn31@yahoo.co.in

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