चीनी फूल-सब्जियों की फसल लहलहाती है लदाख में

सक्सेस सांग

बदलते लदाख का प्रतीक बनती जा रही हैं दीचेन ताजू जैसी महिलाएं
तिब्‍बत से बिलकुल अलग है लदाख की संस्‍कृति और जीवन-शैली
घर-खेत से लेकर हाट-बाजार तक महिलाओं की सशक्‍त मौजूदगी

कुमार सौवीर

लेह : चीनी सेना के चुमार में हुए हस्‍तक्षेप के बाद से भारत में छटपटाहट और तिलमिलाहट का माहौल है, मगर लेह-लदाख की सीमाओं से सटे खेतों में चीनी फूलों और सब्जियां की खेती लहलहा रही हैं। शान के साथ।

आइये, हम आपको मिलाते हैं लेह से करीब 50 किलोमीटर दूर ताजू निवासी श्रीमती दीचेन आंगो आस्‍लाक्‍मो ताजू से। दरअसल लेह-लदाखी बौद्ध लोग अपने नाम के आखिरी शब्‍द के तौर पर अपने गांव का नाम जोड़ते हैं। आपको किसी के बारे में पता वगैरह कोई जानकारी करनी हो, तो आप  केवल उसके नाम से ही नहीं खोज सकते हैं। इसके लिए आपको उस शख्‍स के गांव का नाम बताना पड़ेगा।

लेकिन इसके पहले मैं आपको बताता हूं कि लदाख-लेह के बौद्ध समुदाय में महिलाओं की हैसियत बेहद मेहनती श्रमिक की होती है। समुदाय में बौद्ध-श्रमण यानी लामाओं की संख्‍या सर्वाधिक है, जो संन्‍यास हासिल कर लेते हैं। पूरी तरह ब्रह्मचर्य-जीवन अपनाते हैं। लेकिन इसके बावजूद वे अपने परिवार से हमेशा जुड़े रहते थे। जाहिर है कि परिवार में महिलाओं की संख्‍या ज्‍यादा होती है। खेती और बाजार-हाट का ज्‍यादातर काम महिलाएं ही सम्‍भालती हैं।

मगर वे बेहद शांत और अंतर्मुखी होती हैं। बाहरी लोगों से बातचीत करना वे आमतौर पर पसन्‍द नहीं करती हैं। खैर,

तो यह है दीचेन आंगो आस्‍लाक्‍मो ताजू। लदाखी महिलाओं के व्‍यवहार के विपरीत, दीचेन बातचीत में पूरी तरह खुली हुई हैं। उम्र है करीब 40 बरस। इंटर तक पढ़ी हैं। इस इलाके में स्‍त्री-सशक्‍तीकरण के अभियान के तहत जिन चंद महिलाओं ने इस अभियान में शिरकत करने की हिम्‍मत दिखायी थी, दीचेन उनमें से एक हैं। उन्‍होंने महिलाओं के आत्‍म-निर्भर समूह से जुड़ कर मुम्‍बई, चेन्‍नई और कलकत्‍ता-गोहाटी तक आत्‍मनिर्भरता की छलांग लगायी। उन्‍होंने मुम्‍बई और चेन्‍नई में पर्यटन-प्रबंधन के तहत ताज होटल समूह पर भी व्‍यवहार-कार्यशाला में पाठ पढ़ा।

लेकिन आखिरकार वे लेह लौटीं और अपने खेत सम्‍भालने लगीं। आज उनके खेत में केवल फूल, शाक-भाजी की फसल लहलहाती है। दीचेन ने मुझे अपने गांव दाजू तक ले चलने का प्रस्‍ताव दिया। लेकिन मेरे पास कम था। इसीलिए अगली बार आने पर मुलाकात का वायदा करके मैंने बातचीत आगे बढ़ायी।

इसके पहले आपको बता दूं कि दीचेन से मेरी मुलाकात लेह के मुख्‍य बाजार के एक पंजाबी रेस्‍टोरेंट में हुई। उनके पति उनके साथ ही थे। नाम है नीमा ताशी। कारगिल के एक सरकारी प्रायमरी स्‍कूल में शिक्षक नीमा बहुत सज्‍जन और अल्‍पभाषी हैं। लेकिन उनकी कमी की भरपाई कर देती हैं दीचेन। मुलाकात के दिन जैसे ही मैंने चाय पीना शुरू किया, दीचेन और ताशी रेस्‍टोरेंट में पहुंचे। दीचेन का हंसता-खिलखिलाता चेहरा मुझे आकर्षित कर गया। बातचीत मैंने ही शुरू की तो दीचेन ने मुझ पर सूचनाओं की वर्षा शुरू कर दी।

दीचेन ने बताया कि खेती के साथ ही साथ उन्‍होंने डेयरी का धंधा शुरू कर दिया। पूरे जम्‍मू-कश्‍मीर-लेह-लदाख के रहने वालोें को सरकारी कर्जा आसानी से मिल जाता है। दस-पांच लाख रूपयों के कर्जा के लिए ब्‍याज का भी लफड़ा नहीं होता है यहां। दीचेन ने यही सुविधा हासिल की और अपने खेतों पर नायाब फूलों की खेती शुरू कर दी। आज उनके खेतों में केवल दिलकश चीनी फूलों की बहार छायी रहती है। इतना ही नहीं, दीचेन बताती हैं कि आज उनके पास एक दर्जन से ज्‍यादा दुधारू गायें हैं। उनके सारे उत्‍पादनों को वे आसानी से खपा लेती हैं। हां, उन्‍हें दुख है कि लेह-लदाख के बाजारों की क्षमताओं की भरपाई यहां के किसान पूरा नहीं कर पाते हैं। लेकिन बदलावों की बयार यहां खूब बह रही है। करीब डेढ़ दशक पहले यहां के बाजार और सेना-शिविरों में सब्जियों और फूलों का नामलेवा तक नहीं था, लेकिन आज हालात बदल चुके हैं। कम ही सही,लेकिन दुम्‍स जैसी सब्जियां यहां के बाजारों में मौजूद हैं।

मेरे हर सवाल का जवाब देती हैं दीचेन। मलसन, तिब्‍बती और लदाखियों की संस्‍कृति मेें फर्क। दीचेन बोलीं:- जमीन-आसमान का फर्क है। हां, लिपि जरूर एक है, मगर अर्थ अलग। तिब्‍बती महिलाएं गाउन-नुमा छिपा वस्‍त्र पहनती हैं, जबकि हम लोग लम्‍बी फ्राकनुमा मोगोस पोशाक पहनते हैं। ( मेरे अनुरोध पर दीचेन फौरन कुर्सी से उठ कर खड़ी हो गयीं और मैंने उनकी और उनके मोगोस की फोटो खींच ली।) दीचेन ने बताया कि पहले लदाख में बहुपत्‍नी का रिवाज खूब था, लेकिन अब काफी कम है। छंग-नुमा शराब पहले हर घर-गांव में बनती थी, लेकिन इक्‍का-दुक्‍का। मांसाहार में भी कमी आ गयी है।

यानी बदलता जा रहा है लदाख, और इसका श्रेय है दीचेन जैसी महिलाएं।

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