पाकिस्‍तान से छूटे भारतीय गांव कुर्तुक को समझने की कोशिश

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

45 साल पहले वाली लड़ाई ने कुर्तुक के अपनों को हमेशा के लिए छीना
पाक-सेना या सरकार के पास इस गांव का कोई कागज ही मौजूद नहीं
सीज-फायर से किसी का शौहर-बीवी, बेटा-बेटी और दामाद सरहद पार

कुमार सौवीर

कुर्तुक : लेह से करीब साढ़े तीन सौ किलोमीटर दूर जहां भारत की वर्तमान सीमा खत्‍म होती है, वहीं से पाकिस्‍तान की सीमा शुरू होती है। लेकिन इस सीमा से ठीक पहले है कुर्तुक गांव। करीब पांच हजार लोगों की आबादी है।

लेकिन यह गांव लेह-लदाखी संस्‍कृति से कोसों दूर है। कई कारण है। एक तो पहले एक भी गैर-मुस्लिम आदमी नहीं है। दूसरा यह कि इतना बड़ा गांव लदाख इलाके में दूसरा नहीं है। तीसरी बात कि इस पूरे इलाके में सिर्फ उर्दू ही बोली-लिखी जाती है, लदाखी या तिब्‍बती नहीं। चौथी बात कि इस पूरे इलाके में आलू-बुखारा की इकलौती खेती यहीं होती है। पांचवीं बात कि यहां के लोग दीगर लदाखियों की तरह खुद को विशिष्‍ट नागरिक के तौर पर नहीं मानते हैं।

छठीं, सातवीं, आठवीं, बीसवीं और सैकड़ों बात से भी पहले इसकी इस गांव का दर्द महसूस कीजिए। दरअसल आजादी के बाद यह गांव पाकिस्‍तान में आ गया था। दूसरे देशों के गांवों की ही तरह वहां के लोग भी अपने देश के विभिन्‍न शहरों-गांवों में रहते थे, व्‍यवसाय करते थे, सेना, पुलिस या दीगर सेवाओं में शामिल थे। जाहिर है कि मांगलिक रिश्‍ते भी उनमें थे।

सन-71 की लड़ाई हुई और थम भी गयी। करीब 94 हजार पाकिस्‍तानी सैनिकों को भारतीय सेना ने गिरफ्तार किया और इसी बीच सीज-फायर हो गया। यानी जो जहां थे, वहीं रह गया। लेकिन न जाने किस तरह यह कुतुर्क गांव सीज-फायर के चलते भारतीय सीमा में आ गया।

बातें तो खूब हैं और कभी-कभी अनर्गल भी होती हैं, लेकिन हकीकत यह है कि उस वक्‍त इस गांव के कुछ युवा पाकिस्‍तानी सेना में थे, जो उसी लड़ाई में या तो मारे गये, आहत हुए या रिटायर हो गये। अब उनकी पेंशन-मुआवजा का सवाल उठा तो पाकिस्‍तान सेना ने भारतीय सरकार से पत्राचार किया।  गांव वालों ने भी पाकिस्‍तान से बात की, लेकिन वे कोई भी जवाब नहीं दे पाये। पाकिस्‍तानी सेना केवल इतना ही कहती है कि इस बारे में भारतीय सेना से बात करो। लेकिन अब भारतीय सेना के पास से उनकी सेवा-सम्‍बन्‍धी कोई फाइल तो बनायी नहीं थी, तो आखिर उन्‍हें मुआवजा कैसे दिया जा सकता है।

अब हालत यह है कि कुर्तुक के लोग खुद को पाकिस्‍तानी नहीं, भारतीय मानते हैं। लेकिन दर्द यह है कि सीमा के उस पार उनमें से किसी के माता-पिता, किसी की बीवी, किसी का शौहर, किसी का भाई, किसी का बेटा है जो अब कभी भी इस पार नहीं आ पायेगा और न ही वे खुद जा पायेंगे। आना भी चाहें तो हजारों मील दूर वे दिल्‍ली की दौड़ लगाने का खर्चा तक नहीं उठा सकते हैं।

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