… क्‍योंकि पत्रकार कभी आत्‍महत्‍या नहीं करता

दोलत्ती

: अभिनेता और पत्रकार के गुणों में दायित्‍व, जुझारूपन, संवेदना और लक्ष्‍य समर्पण : पत्रकार में सामाजिक दायित्‍व एक बड़ा पहरुआ : धोनी की जरूरत है, या फिर सिर्फ धोनी का अभिनय करने वाले सुशांत सिंह राजपूत की :
कुमार सौवीर
लखनऊ : अभिनेता और पत्रकार में एक मूलभूत समानता होती है। कार्य-दायित्‍व बोध, जुझारूपन, और लक्ष्‍य के प्रति समर्पण। लेकिन अभिनेता से अलग एक खास गुण एक पत्रकार में होता है, वह है संवेदनापूर्ण व्‍यवहार। पत्रकार में सामाजिक दायित्‍व-बोध उसके जीवन और उसकी जिजीविषा में एक बड़ा पहरुआ होता है, जो उसकी संवेदना को निजी तौर पर स्‍वत: विकसित होने लगता है। और यही गुण किसी अभिनेता में नहीं दिखायी पड़ता। और यही वजह है कि कोई भी पत्रकार आत्‍महत्‍या नहीं करता है, जबकि अभिनेता तनिक भी बात पर भी आत्‍महत्‍या कर लेता है। आत्‍मघाती हरकत बैठता है, जैसा सुशांत सिंह राजपूत ने कर डाला। सुशांत ने खुद अपने आप को ही खत्‍म नहीं किया है, बल्कि अपने इस फैसले के क्रियान्‍वयन से अनजाने में ही युवाओं को यह संदेश देने की पुरजोर कोशिश की है कि निराधार उछालें-कुलांचे भरो, और ऐसा कर पाने में असमर्थ हो जाओ तो आत्‍महत्‍या कर बैठो।
हमें सुशांत सिंह की आत्‍महत्‍या को उसके कार्य-व्‍यवहार के हिसाब से ही देखना-परखना होगा। अभिनेता का काम, धाम, चरित्र और उसका धर्म है कि वह अपनी कहानी में घुसे चरित्र के रूप में किसी की आत्‍महत्‍या, हत्‍या या अन्‍य किसी दर्दनाक हादसे पर रोने का अभिनय करे। ऐसा अभिनय करे, कि दर्शक भी रो पड़ें, बिलख पड़ें, फफक पडें। दरअसल, सच बात तो यही है कि अभिनेता अभिनय के लिए अपने चरित्र को जीता है, और अभिनय खत्‍म होने के बाद उसे भूल जाता है।
पत्रकार भी किसी आत्‍महत्‍या या हत्‍या पर जार-जार रो पड़ सकता है। लेकिन अपने कामधाम, चरित्र और धर्म के तहत नहीं, बल्कि अपने हृदय की पुकार पर। वह फफक कर रो पड़ता है, ठीक उसी तरह जैसे अभिनेता। बल्कि इस मामले में अभिनेता का रोना कहीं ज्‍यादा भाव-प्रवण दिखाया जाता है, मगर पत्रकार के आंसू और उसका दर्द देखने का न तो किसी के पास समय होता है, और न उसकी आवश्‍यकता ही समझते हैं लोग। पत्रकार अभिनेता अपने अभिनय में उसके रोने की कला को हरचंद परखने की कोशिश करता है, लेकिन रोते पत्रकार के हालातों पर कोई भी कोई चर्चा नहीं करता, उसके आंसुओं को देखना भी नहीं चाहता। यह जानते हुए भी अभिनेता का रोना उसका अभिनय है, और उसमें उसने हृदय नहीं, बल्कि अपने कौशल का सहारा लिया है।
लेकिन पत्रकार ऐसा नहीं करता। वह न तो किसी चरित्र को जीने की कोशिश करता है, और न ही उस चरित्र को भूलने की कोशिश। अपने कार्यदायित्‍व ही नहीं, समाज की किसी भी दारूण घटनाओं पर भी वह विह्वल हो सकता है। किसी भी उद्वेग पर उसका हृदय भावनाओं के प्रवाह में घुमड़ने लगता है, द्रवित होने लगता है।
जबकि कोई भी अभिनेता अपने अभिनय के तत्‍काल बाद अपने कथानक वाले करेक्‍टर से बहुत आसानी से बाहर निकल आता है और सहज व्‍यवहार करना शुरू कर देता है। लेकिन पत्रकार ऐसा नहीं कर पाता। वह फॉलोअप करता है। घटना ही नहीं, उसके बाद भी हो रही प्रतिक्रियाओं, परिघटनाओं और परिणामों पर कड़ी निगाह करता है। यही हालत होती है खिलाड़ी की। वह पराजयों से सीखता है, उससे परास्‍त नहीं होता।
हां, यह सच है कि पत्रकार बेईमान भी होता है और खूब बेईमान होता है। लेकिन सब नहीं। कुछेक पत्रकारों को छोड़ दिया जाए, तो अधिकांश पत्रकार अपने दायित्‍वों को लेकर संवेदनशील होते हैं। खास कर छोटे या संकल्‍प लिये पत्रकार। जो बेईमान पत्रकार होता है, उसे लोग वाकई समझते और जानते-पहचानते हैं। यह दीगर बात है कि ऐसे ही पत्रकारों का सम्‍मान समाज के बड़े सम्‍मानित तबके में धमाके के साथ बजता रहता है।
लेकिन यह तो समाज का स्‍खलन है। वह अपराधियों का सम्‍मान करे, समर्पित पत्रकारों की उपेक्षा करे, तो इसमें समर्पित पत्रकार का क्‍या दोष ? दोष तो समाज के उस तबके का होता है। और यही वजह है कि आज खबरों के लिए पत्रकारों को नहीं, बल्कि अपने जुगाड़ के लिए जुगाड़ी-पत्रकारों का ढोल बजाते हैं, उसकी आव-भगत करते हैं।
हां, तो मैं यह फिर बता दूं कि कोई भी पत्रकार खबरों की हत्‍या कर सकता है, खबर की आत्‍मा या उसके आकार को बदल सकता है, उसकी स्‍पीड कम या बढ़ा सकता है। उसे दबा सकता है, निचोड़ सकता है, बदरंग कर सकता है। साफ शब्‍दों में कह दूं कि अधिकांश पत्रकार दलाली भी करते हैं, कई मामलों में दुराचार और दुष्‍कर्म तक के मामलों में उनका नाम जुड़ चुका है। ऐसे पत्रकार नुमा लोग बेशर्म है, यह भी मैं मानता हूं, लेकिन यह बेशर्मी का असर तो सबसे ज्‍यादा फिल्‍म्‍ और अभिनय में ही व्‍याप्‍त है। सड़ांध के स्‍त्‍र से भी। लेकिन मेरा दावा है कि कोई भी पत्रकार आत्‍महत्‍या नहीं कर सकता। हां, आप कह सकते है कि इसका कारण उस पत्रकार के कार्यक्षेत्र और प्रभाव-प्रभा क्षेत्र किसी अभिनेता के मुकाबले काफी कम होता है। लेकिन आत्‍महत्‍या करने जैसा फैसला पत्रकार नहीं करता। वह लगातार संघर्ष करता है, और सिर्फ संघर्ष।
कुछ भी हो, जीवन को अगर आप खेल की तरह नहीं खेलते हैं, तो फिर पराजय का सेहरा आपके सिर पर सजेगा। और अगर पराजयों से सबक सीख लेते हैं, तो आप वाकई जिन्‍दादिल शख्‍स है। ऐसे शख्‍स जिसे किसी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं पड़ती। ऐसे में हमें ही तय करना होगा कि हमें महेंद्र सिंह धोनी की जरूरत है, या फिर सिर्फधोनी का अभिनय करने वाले सुशांत सिंह राजपूत की। खुद खिलाड़ी बनना और खिलाड़ी का अभिनय करना अलग-अलग बात है।

आप याद कीजिए न पिछले बरस देश की पत्रकारिता में हुई एक बेहद दर्दनाक घटना को। तरुण तेजपाल। जी हां, तरुण तेजपाल पर एक आरोप लगा था। दुराचार के प्रयास का। चलिए इस कहानी का अगला हिस्‍सा हम आपको अगले अंक में दिखायेंगे कि तरुण तेजपाल और सुशांत सिंह में क्‍या और कैसी तुलना की जा सकती है। (क्रमश:)

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