जातीय राजनीति में नाक पर टांकते हैं पूंछ का बाल
कुमार सौवीर
नरेंद्र मोदी ने बुर्के के बहाने छिप जाने वाली प्रवृत्ति रखने वालों की मूंछें उखाड़ लीं, तो उससे बौखलाये दिग्विजय सिंह समेत कई लोगों ने अब मोदी की पूंछ उखाड़ना शुरू कर दिया है। राजीव शुक्ला और मीम अफजल समेत कई कांग्रेसी तो अब यह कह रहे हैं कि मोदी की मूंछें इस लायक ही नहीं है कि उनको गंभीरता के साथ उखाड़ा जा सके। लेकिन हकीकत यह है कि ऐसे झूठे हिकारत के भाव रखने वालों ने भी मोदी की मूंछें पूरी तरह न भले पकड़ी हों, लेकिन चुपके-चुपके उनकी पूंछ के एकाध बाल को तो जानबूझकर उखाड़ ही डाला। मगर इस झगड़े में नेताओं ने अपनी नौटंकी में क्रोध का प्रदर्शन कर दिया है, बावजूद इसके कि जनता इससे झगड़े से अलग केवल यह निहार रही है कि आखिरकार किस ने किस की पूंछ या मूंछ उखाड़ लिया है।
दरअसल, मूंछें मुझे हमेशा से ही आंदोलित करती रही हैं। यह मेरे विशिष्ट अध्ययन का विषय भी तो रहा है। ठीक वैसे ही जैसे भूगोलशास्त्री लोगों के लिए ब्लैक-होल। कम से कम, इस मामले में मैं जान हापकिंस से किसी भी तरह खुद को कम नहीं मानता। सिवाय इसके कि वे कुर्सी पर बैठ कर सोचते हैं और मैं सोचते हुए बैठा रहता हू। मगर हम दोनों ही लोग बोलते जरूर हैं।
लेकिन अकेले मूंछ ही क्यों, मेरी सर्वश्रेष्ठ जिज्ञासा का केंद्र तो पूंछ भी है। तुलनात्मक अध्ययन के लिए किसी दूसरे तत्व और पक्ष का होना जरूरी भी तो होता है। है कि नहीं ?
वैसे भी सरसरी निगाह से देखा जाए तो मूंछ और पूंछ ज्यादातर मामलों में एक-दूसरे से काफी मिलते-जुलते हैं। प्रवृत्ति भी दोनों की एक ही तो होती है। खुशी का मौका होता है तो मूंछें अपने आप फडकने लगती हैं जबकि पूंछ हिलने लगती है।
देखिये मूंछ हो चाहे पूंछ, दोनों की सीधे-सीधे अपने धारक की प्रतिष्ठा, गर्व, अहंकार, घमंड, अंदाज, प्रतिकूल अथवा अनुकूल माहौल वगैरह-वगैरह का ही प्रतीक होते हैं। लेकिन इनमें इतनी अधिक साम्यता होने के बावजूद आमतौर पर पूंछ को बहुत हेय नजरिये से देखा जाता है। बीवी को हडकाते ही मूंछ उंची हो गयी, अफसर ने गरियाया नहीं कि पूंछ पीठ के बजाय पेट के नीचे हो गयी। ससुराल में पहुंचे तो मूंछ ऊंची हो गयी, बहन की ससुराल पहुंचे तो पूंछ नीची हो गयी।
पूंछों से जुडे कई क्षुद्र वाक्य तो आप दिन में कई बार सुनते होंगे। मसलनः-
देखो-देखो तो, कैसे पूंछ तान के बैठा है।
क्या टनाटन पूंछ है।
चमचा है साला, देखो कैसे अपनी पूंछ हिला रहा है।
इसकी पूंछ पकड लो, साला औकात में आ जाएगा।
दबाओ, साले की पूंछ दबाओ, काबू में कर लोगे।
पूंछ तो मरोड़ो, फिर देखो कमाल
देखा कैसे डर के मारे साले ने अपनी पूंछ पेट में घुसेड़ ली। वगैरह-वगैरह।
अब देखिये, ऐसे ही तमाम जुमले होते हैं पूंछ को लेकर। तो, जरा एक नजर मूंछ पर। मसलन—
मूंछ पर ताव देना।
मूंछ मरोडना।
मूंछ उठाना।
मूंछ नीची होना।
मूंछ का बाल होना अथवा मूंछ का बाल उखाड़ना। (हालांकि इस कहावत का इस्तेमाल नाक के बाल के लिए भी किया जाता है, मगर नाक का बाल तो मूंछ का पट्टीदार और सगोत्रीय रिश्तेदार है)
मगर आज तक कोई ऐसा शख्स आपको मिला जो मूंछ की जगह पूंछ के बाल उखाडने की वकालत करता मिला हो। नहीं ना ? यानी कुछ ना खास है ही मूंछ में, जो पूंछ में नहीं। एक वजह यह हो सकती है कि पूंछ का बाल उखाडने के लिए आपको चुपके से यह कृत्य करना पडेगा, वरना जिसकी पूंछ का बाल आप उखाडेंगे, वह पलटवार भी कर सकता है। जबकि मूंछ का बाल उखाडने के लिए आपको अपने विरोधी को पहले पटकना होगा। अब चूंकि यह काम सार्वजनिक रूप से ही हो सकता है और इसमें आपका विरोधी चूंकि मानसिक और सामाजिक तौर पर कमजोर हो जाएगा, इसलिए आपके लिए यह काम खतरे के बजाय प्रतिष्ठाव़र्द्धक ही होगा। अब कुछ लोग ऐसे तो होते ही हैं जो चुपके-चुपके किसी पूंछ के गिरे-झड़े बाल को उठाकर बताते हैं कि यह पूंछ का नहीं, बल्कि फलांने-ढमाके की मूंछ का बाल है और उसे मैंने उखाड़ लिया है।
दूसरी वजह यह कि चूंकि पूंछ का स्थान और उसका व्युत्पत्ति-क्षेत्र शूद्र है और नाक और नाक के बाल का स्थान सम्भवतः सर्वोच्च क्षेत्र से। ऐसी हालत में जाहिर है कि यह सर्वोच्च स्थान ही सारी समस्या की इकलौती जड है। इतिहास में कभी ऐसा कोई दृष्टांत नहीं मिलता कि कोई किसी की झोंपडी पर कब्जा करना चाहता रहा हो। कब्जे की लडाई हमेशा उच्च या प्रतिष्ठापूर्ण क्षेत्रों के लिए ही हुई है। कांग्रेस और बसपा की तरह। मगर कुछ ऐसी भी पार्टिंयां हैं जरूर जो इस शर्त के खिलाफ होती हैं। मसलन मायावती वाली बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव वाली समाजवादी पार्टी। यह दोनों ही पार्टियां खुद को दलितों, पिछड़ा या मुसलमान जैसे क्षुद्र-क्षेत्र के आधार पर अपनी पूंछ फड़काती हैं, लेकिन ब्राह्मणों और ठाकुरों की मूंछ को अपने पूंछ-चेहरे पर बाकायदा किसी तमगे की तरह टांक लेने पर आमादा है। मतलब यह कि जरूरत पड़ने पर कभी कभी पूंछों को भी अपने चेहरों पर मूंछ के बाल भी शोभायमान कराना पड़ता है। राजनीति की बलिहारी और आम आदमी मूंछों-पूंछों के बाल। कभी उसे कतर दिया जाता है तो कभी उसे उखाड लिया जाता है।
और अब मैं आपको यह बता दूं कि दरअसल आम आदमी है कौन। अरे भइया, वही मूंछें ही तो है आम आदमी। आप पूछेंगे कि मूंछें क्यों, और मूछों की जरूरत क्यों। तो सीधा जवाब है जनाब, कि नाक की प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए। नाक के लिए ही मूंछ कतरी जाती है, मूंछ के बाल संवारे, उखाडे, तराशे, मरोडे़ और रंगे जाते हैं। इसे कहते हैं बडों के झगडे में शोषितों का शहीद हो जाना। लेना एक, ना देना दो।
तो भइये। मूंछ का बाल बनने से लाख दर्जा बेहतर है कि पूंछ का बाल बन जाना। ठीक है, थोडे संकट में रहेंगे, हो सकता है कि हाइजनिक माहौल और वेंटिलेशन का माहौल ना मिल पाये, मगर जान तो बची रहेगी। दुनिया में बहुत से लोग ऐसे ही माहौल में ही तो जिन्दा रहते हैं। तो भइया जाओ। मूंछों चले जाओ। हमें नहीं बनना तुम्हारी तरह बेमतलब का शहीद। हमें पूंछ ही बने रहने दो ना। अलविदा मूंछ।