कोठों की रंडियों और तवायफ से अखबार तक का सफरनामा

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: आह-हाय की सदाएं दिलजलों के दिल से निकलती थी चावल वाली गली के आसपास : जो पहले रंडी और तवायफें थीं, अब गलियों में पसर कर कॉल-गर्ल्‍स बन कर संक्रामक वायरस बन गयीं : तवायफों के कोठे वाले पत्रकार -एक

कुमार सौवीर

लखनऊ : नवाबों के शहर लखनऊ में एक दौर हुआ करता था बाजारू हसीनों का। चौक के अकबरी गेट में उनका जलवा हुआ करता था। खास तौर पर नीचे ढलान पर बसी चावल की गली उन धंधावालियों से आबाद हुआ करता था। तूती बोला करती थी उनकी तब। बड़े-बड़े मानिंद लोग और अमीरजादे उन खूबसूरत फूलों पर मंडराया करते थे। उनकी एक-एक थाप पर उनके दिल धड़क-उछल जाते थे। आह और हाय की आवाजें निकला करती थी दिलजले लोगों के दिल से। चांदी के सिक्‍कों से लेकर दीनार और रूपहले नोटों की बारिश हुआ करती थी उन कोठावालियों पर। आसपास की बसावट वाले मोहल्‍लों में रहने वाले तक उनका दीदार-दर्शन कराने के धंधे में इतना लिप्‍त थे कि खुद मालामाल हो गये थे। लब्‍ब-ओ-लुआब यह कि ऐसी हुस्‍नवालियां ही यहां राज किया करती थीं। बेताज बादशाही थी उनकी इन आसपास के इलाके में।

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असलियत तो देखिये जरा

लेकिन यही हुस्‍न के खरीददार लोग चौक की इन बदनाम गलियों से बाहर निकलते ही यहां की खूबसूरतियों को बाकायदा अपमानित शब्‍दों से नवाजा करते थे। मसलन, वेश्‍या, तवायफ या रंडी के तौर पर। लेकिन इसके बावजूद इन गलियों में उन हुस्‍नवालियां पूरे शबाब में मस्‍त रहती थीं। पुलिस, सत्‍ता और धनीमनी लोग भी उन्‍हें कुछ नहीं बोल पाते थे। वजह थी उनकी ऊंची पहुंच, जहां के सफेदपोश लोगों की दीगर हवेलियों में यह ततलियां नाचा करती थीं, ऐयाशी का सामान बनी रहती थीं।

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लेकिन इसके बाद यह धंधा अचानक बंद हो गया। वेश्‍या उन्‍मूलन ने चावल गली को उजाड़ दिया। नतीजा यह हुआ कि जो हुस्‍न की बिक्री तवायफ, रंडी या वेश्‍या के तौर पर कोठों में रहती-बिकती रहती थी, वह अब गलियों तक पहुंच गयी। उनका नया नाम लिया गया:- कॉल-गर्ल। पहले लोग कोठों तक खुद पहुंचा करते थे, अब यह कॉल-गर्ल्‍स अपने ग्राहक के ऐश-गाह से लेकर होटलों-ढाबों तक पहुंचने लगीं। पहले जो लोग कोठों में पहुंच कर उनके ठुमकों पर पैसा लुटाया करते थे, अब दाम लगा कर खरीदने लगे। ( क्रमश: )

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