कॉल-गर्ल्‍स। तवायफों को मिला अंग्रेजी नाम, लेकिन बदहाली बढ़ गयी

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: गली-मोहल्‍लों-कालोनियों तक में पसर गया कॉल-गर्ल्‍स का धंधा : दलालों ने चूस डाला कॉल-गर्ल्‍स को, बाकी पुलिस ने झपट लिया : नये दौर की रंडियों और उनके बच्‍चों के पेट की आग बुझाने की गारण्‍टी हैं दलाल-भांड़ : तवायफों के कोठे वाले पत्रकार- दो :

कुमार सौवीर

लखनऊ : ( गतांक से आगे ) तो जनाब, जब चौक के चावलवाली गली से उजाड़ी गयीं यह वेश्‍याएं, तो फिर अपना पेट भरने के लिए वह अपनी रोजी-रोटी के लिए जहां-तहां भटकने लगीं। रोजी कमाने के लिए जरूरी हुनर यानी कौशल के नाम पर उन्‍हें देह-व्‍यापार के अलावा कोई भी दीगर जानकारी नहीं थी। पूरा जीवन तो उन्‍होंने केवल इसी पेशे में खपाया है। केवल गीत-संगीत और उसके बाद शरीर का सौदा। शाम होते ही उनके कोठे गुलजार और रौशन होने लगते थे। किसी को भी हुलसा दे सकने वाली आत्मिक ताकत उनकी शख्सियत में जुड़ती थी, जो तबला और हारमोनियम जैसे अंगरक्षकों के बल पर कमर की लोच और खम दिया करती थी।

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लेकिन चावल वाली गली के उजड़ने के बाद उनकी संगीत-गीत की खानदानी आध्‍यात्मिक पूंजी तक छिन गयी, जिसके बल पर वे स्‍वयं को जिन्‍दा किये रखती थीं, गर्व कर सकती थीं खुद पर। लेकिन अब वे क्‍या करतीं। कहां जाकर तबला और हारमोनियम बजातीं। घर भी तो नहीं था उनका निजी। हां, उनके भांड़ जरूर थे। लेकिन उन्‍हें भी रईसों-कद्रदानों का स्‍वागत करने का शऊर तो खूब पता था, लेकिन बाजार में जाकर ग्राहक फंसाने की तमीज नहीं थी। नये दौर के भांड़ और भी ऊपर चढ़े जा रहे थे। ऐसे में अब इन वेश्‍याओं ने इन नये भांड़ों का सहारा लिया, जो उनकी कमाई का अधिकांश हिस्‍सा खुद ही झपट लेते हैं। दलालों ने उन्‍हें नया अंग्रेजी नाम दिया कॉल-गर्ल्‍स, लेकिन इससे दलालों की तो चांदी पौ-बारह हो गयी, जबकि कॉल-गर्ल्‍स को ज्‍यादा घाटा होने लगा। अक्‍सर बेगारी ही चलती थी।

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अब चूंकि यह नये दौर का धंधा गलियों-मोहल्‍लों-कालोनियों तक पसरने लगा था, इसलिए पुलिस भी सक्रिय हो गयी। उन्‍हें भी लगा कि इस नये धंधे से उनकी कमाई को बेहिसाब बढ़त मिल सकती है, इसलिए हफ्ता बांधा जाने लगा। दलाल इन पुलिसवालों को मोटी रकम लेते थे, और जाहिर है कि रकम इन कॉल-गर्ल्‍स की कमाई से ही निकलती थी। कॉल-गर्ल्‍स बेबस होती गयीं, जबकि दलाल और पुलिसवालों की तोंदें बढ़ती ही गयीं।

जहां भी ऐसा लगता था कि कोई दलाल पुलिस को धोखा देकर पैसा हड़पने के चक्‍कर में है, पुलिसवाले उसका टेंटुआ दबोचने पर आमादा हो जाते थे। ऐसे में सबसे बुरी हालत कॉल-गर्ल्‍स की होती थी। उनकी दिक्‍कत यह होती थी कि उनका धंधा दलालों के बिना हो ही नहीं सकता था, जबकि पुलिस उस दलाल को हवालात में घेर ले लेती थी। अपने दलालों को छुड़ाना उन कॉल-गर्ल्‍स की नैतिक जिम्‍मेदारी न होने के बावजूद वह ऐसा इसलिए करती थीं, ताकि उनके पेट की आग बुझती रहे, और उनके बच्‍चों को भोजन निर्बाध मिलता रहे। और इसकी गारंटी केवल दलाल ही कर सकता था। ( क्रमश: । बाकी अगले अंक में )

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