के अरे रामा, चिहुंकी उठी राधारानी, मरद है के नारी, ए हारी

बिटिया खबर
: सावन के झोंके वियोग के थपेड़े मारते हैं या फिर वियोग को धोने के लिए बौछारें : मालिनी अवस्‍थी से पूछूंगा कि, हे देवि। श्रावण-मास का अभिप्राय क्‍या है? : उन्‍मत्‍त वियोगिनियों का अमृतहर्ष-युक्‍त मास है यह सावन, तो फिर विह्वल युवक क्‍या करते होंगे :

कुमार सौवीर
लखनऊ : बारिश में मौसम की फुहारें मन-मयूर को उल्‍लास से भिगो देती हैं, लेकिन वहीं वियोग की हूक भी भड़का देती है। पता ही नहीं चलता कि कौन सा भाव किस पर भारी पड़ रहा है और कौन दबता जा रहा है।
इस वक्‍त दिल्‍ली के जेएनयू के गेस्‍ट हाउस की खिड़की से बारिश की टपाटप महसूस-देख-सुन रहा हूं। सावन, बारिश, कजरी, वियोग और उल्‍लास झमाझम बरस रहे हैं। सामने जंगल है। पत्तियों पर बूंदों का गिरना शोर को और ज्‍यादा भड़का देता है। कड़कती-गिरती बिजली, गड़गड़ाहटें और पत्तियों से गिरनी हल्‍की धारें किसी तलिस्‍मी लाइट-साउंड शो को मात कर रही हैं।
मगर समझ में ही नहीं आता है कि सावन के झोंके वियोग के थपेड़े मारते हैं या फिर वियोग को धोने के लिए बौछारें। या फिर एक के बाद एक। बारम्‍बार। वियोग आया ही नहीं, कि आनन्‍द आ गया। और जैसे ही आनन्‍द पहुंचा, वियोग ने आंचल पसार दिया। आज भी जैसे ही अमृत-वर्षा होती है, मैं भाग कर जांघिया-बनियाइन तक सिमट कर सड़क पर विचरण करने लगता है। लोगों से बतियाना, पढ़ना और लिखना मुझे सर्वाधिक प्रिय है। ठीक उसी तरह बारिश में भींगना भी। साथ में गरमागरम दो-चाय ग्‍लास चाय और मस्‍त पकौड़ी मिल जाए तो कमाल हो जाए। मुझे झूलों पर पींगें भरती युवतियों को देखना बहुत पसंद है। लेकिन मैं जब भी झूले पर बैठा हूं, पेट में एक अजीब सा झंझट-बवाल शुरू हो जाता है। बहरहाल गांव तक सिमट चुकी हैं नि:शुल्‍क मस्‍ती, जहां गीत के समरूप गायन सुनायी पड़ते हैं। अब तो शहर में झूले तो कोई डालता ही नहीं है। मोटी रकम खर्च कर देंगे, लेकिन फ्री-फण्‍ड वाला आनंद उन्‍हें गंवारू लगता है।
बहरहाल, पति से वियोग के बाद युवतियां विशाल दरख्‍तों वाले झूलों पर अपने अरमान आसमान की ओर उछालती हैं। यह विरहिणी की छवि है या फिर आसमान स्‍पर्श करने की प्राप्तियों का सुखमय उल्‍लास? और फिर अगर केवल उन्‍मत्‍त वियोगिनियों का अमृतहर्ष-युक्‍त मास है यह सावन, तो फिर विह्वल युवक क्‍या करते होंगे?
बंगाल जाकर अब करूंगा भी क्‍या? महा-गायिका गिरिजा देवी तो कब की स्‍वर्ग सिधार चुकी हैं। मगर अब सोचता हूं कि फागुन से पहले सावन का मर्म समझने के लिए बनारस में घुस जाऊं। काशी जी में घुसे बिना कोई भी अर्थ समझ पाना मुमकिन नहीं होता। अगर होता तो कुमारिल भट्ट ने झूंसी में आत्‍मदाह क्‍यों किया होता। बाणभट्ट ने प्रेमिका का आलिंगन करने के बजाय सुदूर अफगानिस्‍तानी पहाडि़यों की डगर काहे पकड़ ली थी? तक कहीं पूछूं या फिर लखनऊ में मालिनी अवस्‍थी से सवाल-जवाब करूं कि:- हे देवि। श्रावण-मास का अभिप्राय क्‍या है?
फिलहाल तो कजरी का एक टुकड़ा सुन लीजिए जो हमारे अहीरेश्‍वर जनार्दन यादव महापंडित ने मुझे कान में फुसफुसा दिया है:-
कृष्‍ण राधा को चूड़ी पहनाये, और मंद-मंद मुस्‍कुराये।
के अरे रामा चिहुंकी उठी राधारानी, मरद है के नारी, ए हारी।

1 thought on “के अरे रामा, चिहुंकी उठी राधारानी, मरद है के नारी, ए हारी

  1. (अद्वितीय………. एकल जीवात्मा,अखंडलेखी,अकालखंडी,छिद्रान्वेषी,मूर्धन्यस्वाध्यायी,विशदशब्दजीवी वरिष्ठपत्रकार कुमार सौवीर जी ने सावन की कजरी पर अप्रतिम बिम्ब की फ़ुहार से हमें अंदर तक भिंगो दिये हैं, दोलत्ती.कॉम पर आज का लेख अतिसामयिक व रसरंजित है .)

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