बहादुरी पर ग्रहण लगा देता है बुढ़ापा, जैसे महिला आश्रम में रहने वाली उमा

मेरा कोना
: आश्रम में रहने को हम स्टिग्मा समझते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। : गुस्से में वह उस लड़के के घर पहुँचीं और उसका गिरेबान पकड़ कर पूछा, शादी करोगे मुझसे? : फिर भी, उम्र बढ़ने के साथ कई तरह के डर, चिंताएँ और फ़ोबिया हो जाते हैं : 

शशि शर्मा

नई दिल्‍ली : आज मैं अपनी दोस्त उमा को मिलने गई। राजेन्द्र नगर में एक आर्य महिला आश्रम है उसमें वह रहती हैं। आश्रम में रहने को हम स्टिग्मा समझते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। ज़रूरी नहीं है कि कोई पीड़ित प्रताड़ित होकर ही वहाँ रहने का चुनाव करे।

मेरी दोस्त मेरे साथ पढ़ाती थीं। करौल बाग़ में आर्य समाज रोड पर उनका पुश्तैनी मकान था। जीवन में कभी कोई कमी नहीं रही। पाँच भाइयों की अकेली बहन। लड़कों में पली तो लड़कों जैसी ही धाकड़ बन भी गई। बड़ी हुई तो इतनी ख़ूबसूरत निकली कि बस! बिल्कुल मधुबाला जैसी खूूबसूरती। लेकिन किसी लड़के की हिम्मत नहीं होती थी कि तारीफ़ में कुछ कह दे या छेड़ दे। एकाध ने हिम्मत की भी तो ज़ोरदार झापड़ पड़ा।

एक शरीफ़ लड़का जो बचपन से ही स्कूल में साथ पढ़ता था इन्हें पसन्द करता था। लड़का पाँच बहनों का अकेला भाई था। उस पर लड़कियों का असर था तो वह दब्बू और चुप्पा था। जवान होने पर चाह कर भी मुहब्बत का इज़हार न कर सका। हमारी मैडम यह बात जानती थीं और थोड़ा बहुत उसे पसन्द भी करती थीं। जब इनके लिए भाई कोई ढंग का लड़का न ढूँढ पाये तो एक दिन गुस्से में वह उस लड़के के घर पहुँचीं और उसका गिरेबान पकड़ कर पूछा, शादी करोगे मुझसे? लड़के की ज़बान हलक़ से चिपक गई। बोलीं, कल तक सोचकर जवाब दो।

लड़के ने माँ को बताया। माँ तो सुनते ही रोने लगीं। उमा का एक भाई मौहल्ले तो क्या पूरे इलाके में गुंडई और मारपीट के लिए मशहूर था। उमा जब अगले दिन जवाब तलब करने आई तो माँ बेचारी हाथ जोड़ने लगी। बोली बेटी मेरे बेटे को बख़्श दो। तुम्हारे भाई तो मेरे बेटे को काट डालेंगे। उमा ने कहा अम्मा चिंता क्यों करती हो? मैं भी उन्हीं भाइयों की बहन हूँ। देखती हूँ कौन हाथ लगाता है तुम्हारे बेटे को! यह बात सन् साठ के आसपास की होगी।

थोड़ा बहुत शोर शराबा हुआ फिर उमा और रवि की शादी हो गई। सास की दुलारी ननदों की प्यारी बहू बन गई। पति उस ज़माने के दिल्ली युनिवर्सिटी के पहले बैच के एम बी ए थे। प्रोफ़ेसर मनमोहन सिंह के स्टूडैंट। इंडियन ऑयल में नौकरी लग गई। मैडम भी लैक्चरर हो गईं। ज़िन्दगी अच्छी चलने लगी। तीन बेटे हुए। बेटे बड़े हुए। शादियाँ हुईं। एक बेटा अमेरिका में बस गया। दूसरा कभी दुबई कभी भारत में बसा। तीसरा दिल्ली में ही है। पति पत्नी अपने घर में आराम से थे। लेकिन पति की मृत्यु के बाद उन्हें अकेले रहने में समस्या हुई। बहू बेटों के साथ रहने की बजाय उन्होंने आश्रम में रहने का निर्णय किया। अब पाँच छ: साल से वहीं हैं। ख़ुश रहती हैं। पढ़ने का बहुत शौक है। और जिसे पढ़ने का नशा होता है वह आदमी कभी निराश या उदास हो नहीं सकता। फिर भी, उम्र बढ़ने के साथ कई तरह के डर, चिंताएँ और फ़ोबिया हो जाते हैं।
चार महीने बाद वह अस्सी साल की हो जाएँगी। जब से अस्सीवाँ लगा है वह काफ़ी उदास रहने लगी हैं। पहले की तरह हँसती नहीं। हर समय शरीर की किसी न किसी समस्या पर उनका ध्यान जाता रहता है। बेहद सुलझी होने के बावजूद अवसादग्रस्त हो जाती हैं। कहती हैं मेरे पास पैसे के अलावा कोई सुख नहीं। ज़िन्दगी में जो महिला सबको डाॅमिनेट करती रही हो उसे ऐसे देखना बहुत दुख देता है। जब तक मेरा काॅलेज था मैं अक्सर उनसे मिलने चली जाती थी। अब कम हो गया है। फिर भी जब भी वह फोन करती हैं कि मैं बहुत उदास हूँ मैं फ़ौरन चली जाती हूँ। मेरे साथ दो चार घंटे बिताकर बहुत ख़ुश हो जाती हैं। यूँ तो आश्रम में बहुत सी महिलाएँ हैं। रौनक मेला है पर उन्हें मुझसे मिलकर ही चैन आता है। मुझे भी अच्छा लगता है उन्हें ख़ुश देखकर।

(शशि शर्मा दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में प्रोफेसर रह चुकी हैं। यह लेख उन्‍होंने अपनी वाल पर प्रकाशित किया है)

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