: माता अंजनी ने स्तन से दुग्ध-धार छोड़ी तो पर्वत चकनाचूर हो गया : स्तनपान ने छेड़ दिया समाज में एक गजब युद्ध : माएँ केरल से कह रही हैं, हमें घूरो मत। हम स्तनपान कराना चाहती हैं : गृहलक्ष्मी के आवरण की सेल्स गर्ल जोसेफ़ गिलु के हाव भाव मुखमुद्रा से कामोत्तेजक आमन्त्रण बनाम शिशु का अधिकार :
गीतिका वेदिका
शिवपुरी : ये माएँ हैं जो कि माँ नहीं हैं लेकिन खुलापन चाहती हैं। जो गृहलक्ष्मी के भारतीय नाम के पन्नों पर टँकी हैं। जो स्तनपान के अधिकार चाह रही हैं। वे कुछ ही दिनों पूर्व बच्चे को पालने-पोसने के दायित्वों से आज़ादी चाहती थीं। वे पुरुषों से तथाकथित बराबरी कर उन्हें ये जिम्मे सौंपना चाहती थीं और चाहती थीं अपने बदन के कसाव। जिन्हें आज अचानक याद आने लगे खुले में स्तनपान के अधिकार।
जब आड़ ली जाती है माँ तारा की शिव को दूध पिलाने की तो और भी आयाम हैं; माँ यशोदा को पुत्र कृष्ण को दुग्धपान कराने के और रामभक्त बजरंगबली को माता अंजनी के दुग्धपान की तस्वीर तो ज्ञातव्य हो कि इससे अधिक क्या खुलापन होगा कि माता अंजनी ने पर्वत से दूध की धार छोड़ी तो पर्वत चकनाचूर हो गया था। यह है माँ के दूध की ताकत। लेकिन हैरत की बात तो यह है कि जिन पौराणिक मान्यताओं की छाया का सहारा इस बदन-प्रदर्शन के लिये लिया जा रहा है, उनके ही होने को काल्पनिकता कह उनके अस्तित्व को नकार दिया जाता है तो उनके आड़ में ये कैसे कुतर्कशील हो उठते हैं आश्चर्य है। तब इन बातों पर जितना क्रोध आता है उतनी ही व्यंगमय हँसी आ जाती है।
अरे पहले स्वयं तय कर इन सनातन सत्य के अस्तित्वों पर स्वीकारोक्ति तो दीजिये फिर लीजिये खुलापन।
बहरहाल; यह पौर्णिकताओं के संदर्भ हैं। यदि बात करनी है वर्तमान की तो;
भारत के डाक टिकिट की तो उस पर अंकित माँ की सौम्य छबि एकबारगी देखना होगा जिसमें वह स्तनपान करते शिशु पर मातृत्व छलका रही है। भला कौन न हर्षविभोर हो जाये?
आइये नवीनतम नवाचारों पर भी दो टूक बोल लेते हैं।
ऑस्ट्रेलिया की संसद (2017) वाटर्सन ने भाषण रोक के पुत्री आलिया को खुला स्तनपान कराया। वह व्यापार नहीं था। तस्वीर पर उनके कंधो पर रखे श्वेत वस्त्र को भी देखना आवश्यक होगा जो उनके असीम मातृत्व की घोषणा करता है।
स्तनपान एक गरिमामय प्रक्रिया है। यह अनिवार्य है। यह शैशवास्था का वह क्षण है जो युवावस्था में मजबूती की ललकार भरता है। किंतु स्तनपान के नाम पर यह बेहयाई, बेहद निम्न स्तर की चुनौती क्या सामाजिक मूल्यों के ह्रास का द्योतक नहीं?
कुछ ही दिनों पूर्व जहाँ अन्तःवस्त्रों से मुक्ति के आंदोलन चलाये गए। जिन्होंने साड़ी के साथ ब्लाउज पहनने छोड़ दिये वे अब पुनः ब्लाउज धारण करके उन्मुक्त स्तनपान के नारे लगाएंगे?
कितनी परतों वाली नीति अपनाएंगे आखिर???
यहाँ तो बात सनातनी परपंरा के सम्मान अपमान की भी नहीं है। यहाँ सब धर्मों से ऊपर एक यही प्रश्न सर उठा रहा है कि क्या किसी भी धर्म में इस तरह के खुलेपन जाइज़ हैं?
नहीं देंगे इसका उत्तर! क्योंकि उत्तर इनके पास है ही नहीं। तब बगलें झांकते नज़र आएंगे और कुतर्क पर उतर आएंगे।
एक और हास्यास्पद मुद्दा है कि इन्हें पहले सिंदूर, मंगलसूत्र और चूड़ियों से मुक्ति चाहिये थी। उनके लिये संघर्ष किये गए तो अगले चरण याने उन्मुक्त स्तनपान ने इन बेड़ियों को पुनः धार लिया?
वाह रे बाज़ारवाद
माँ के मातृत्व से trp कमाने वाले उनमुक्तो!
इस धरती पर तो गाय और बकरी के दूध भरते ही थनों को आवरण में कर दिया जाता है। इसलिये नहीं कि खुला स्तनपान वर्जित है, बल्कि इसलिये कि वह शिशु का अधिकार है।
स्तनपान सदियों से शिशु का अधिकार है। स्वयं पिता/ ससुर शिशुओं को अपनी पुत्री/ वधुओं को यह आवाज़ लगाते हुए शिशु सौंप देते हैं कि इसे भूख लग आयी दूध पिला दो। भाई अपनी बहनों को रोते हुए बच्चे यही कह के गोद में देते हैं इसे दूध पिला दो। यह है स्तनपान का अधिकार। इसमें खुलेपन के संघर्ष कहाँ?
जो खुलेपन के अधिकार की दुहाई जोसेफ गिलु के मुखड़े पर दिख रही हैं वे स्वयं माँ नहीं हैं। यदि उनकी तुलना ‘राम तेरी गंगा मैली’ की ‘मन्दाकिनी’ से भी की जाए तो भी ज़मीन आसमान का अंतर है। गृहलक्ष्मी के आवरण की सेल्स गर्ल जोसेफ़ गिलु के हाव भाव मुखमुद्रा से कामोत्तेजक आमन्त्रण क्या शिशु के अधिकार की दुहाई देते नजर आ रहे हैं?
नहीं! क्योंकि सारा मामला व्यर्थ के बखेडे का है बात न फेमिनिज़्म की है ना महिलादिवस का।
यह बाज़ारवाद है जो हर कीमत पर अपने पास की उपलब्धता बेचना जानता है। इसकी वामी नींव इसे पोषित कर रही है। इसने क्या नहीं बेचा?
इसने सेनेटरी पैड बेचे तो, माहवारी का रक्त भी बेचा। इसने कोख बेची तो वीर्य भी बेचा। पहले अन्तःवस्त्र बेचे फिर अनावृत माँस के लोथड़े भी बेचे। इसने स्वाद के लिये आस्थाएँ (गौ व गौवंश) बेच खाईं। ममता से निपटे नहीं कि मातृभमि के टुकड़े-टुकड़े कर बेच खाने के मंसूबे बना रहे हैं।
वास्तव में प्रजाति भ्रम के खोल में रह कर जीत-जीत के खेल खेल रही है जो अगले पाँसे पड़ते ही चाल बदल देती है। और नए चलताऊ कथानक में प्रवेश कर एक नए विरोधाभास को जन्म दे कर उलझाव बनाने की कोशिश करती है। इनमें कोई स्थायित्व नहीं। ये बिजली के उन कीड़ों की तरह है जो रात में पैदा हो सुबह मर जाते हैं और छोड़ जाते हैं बजबजाते और बसान्द मारती हुई तीव्र विषैली गन्ध। वह गन्ध जिसका माँ और ममत्व से कोई दूर-दूर तक लेना देना नहीं। किन्तु स्तनपान के अधिकार शिशु के आदिकाल से हैं और रहेंगे जब तक शिशु हैं, उनके शैशव हैं व उनके दूध के दांत से अन्नप्राशन के संस्कार होने की सनातन संस्कारों तक…