अबे कूद बे कूद, बाथटब में कूद

सैड सांग

: सरकार की सूचना जनता को देने पत्रकार अब लोकतंत्र पर हावी : मीडिया आपकी उम्मीद और उसकी उम्मीद विज्ञापन : घर, ऑफिस, मंहगे मॉल-रेस्टोरेंट जाने वाला और पाँच गर्लफ्रेड बनाने की ख्वाहिश रखने वाला वर्ग चेतना-फेतना नहीं समझता :

हरिशंकर शाही

लखनऊ : भारतीय मीडिया के श्रीदेवी की मौत विलाप करते-करते बाथटब कूदवा हो जाने को लेकर सोशल मीडिया और समाज में लोग व्यथित से दिखते हैं. लेकिन आप लोग व्यथित क्यों हैं भाई, जब केजरी गैंग के लिए तख्ती टांग के निकले थे तब नहीं सोचा था, कि एक दिन गैंग केजरी पीएनबी घोटाले पर चुप्पी लगाएगा. या जब प्रिंस गड्ढे में था तब नहीं सोचा था कि एक दिन बिहार में नौ बच्चों को कुचल देने वाले नेता पर सब चुप हो जाएँगे. भारतीय मीडिया वाइस ऑफ वाइसलेस यानी बेजुबानों की आवाज से कब एक कैटलिस्ट यानी उत्प्रेरक की भूमिका में आ चुका है यह आप जान ही नहीं पाए हैं, और दोष दे रहे हैं मीडिया को.

बात शुरू करते हैं टीवी पर पत्रकारिता देखने वालों से, आखिर भारतीय पत्रकारिता के बाथटब कूदवा संस्करण से सबसे अधिक आहत भी तो यही हैं. तो बात करते हैं भारतीय पत्रकारिता और मीडिया के बने दो ध्रुवों की, चलिए सुविधा के लिए एक ओर रवीश कुमार को रख लीजिए और दूसरी ओर सुधीर चौधरी को, अब दोनों की पत्रकारिता को छोड़ दीजिए फिलहाल दोनों के शो पर आने वाले विज्ञापनों को देखिए और दोनों के प्रयोजकों को भी. आपको एक अजब सी समानता मिलेगी मतलब दोनों के विज्ञापन देने वाली कंपनियाँ करीब एक ही हैं. और यहाँ तक कि आपको रवीश कुमार के कार्यक्रम के मुख्य प्रायोजक बाबा रामदेव की पतंजलि आयुर्वेदिक है, जबकि आम धारणा यह है कि रवीश कुमार हिंदुत्व, भगवा खेमे और बीजेपी के खिलाफ हैं, वहीं बाबा रामदेव के विज्ञापन रवीश कुमार के कार्यक्रम पर, यानी रवीश कुमार को उसी धड़े से आ रहे पैसे से एतराज नहीं है, ये जो ऐतराज़ नहीं है या अधिक किराँति की भाषा में कहूँ तो यह जो व्यापार है ना वही तय करता है सबकुछ.

चलिए मीडिया से पहले बात करते हैं मनोरंजन के उद्योग का जिसकी शुरूआत भारत में दूरदर्शन से होती है. इसके धारावाहिकों को आप देखिए शुरूआत होती है हमलोग, नुक्कड़ जैसे धारावाहिकों में जिसमें का आदमी बिल्कुल आम होता था. और आज बात करते हैं मल्टी चैनल की जहाँ तारक मेहता का उल्टा चश्मा है जिसमें के सारे कैरेक्टर हमेशा सुख-चैन से जीते हैं और जिनकी समस्याएँ गंदगी और भ्रष्टाचार होते हैं, भूख-प्यास तो यहाँ है ही नहीं. बाकी आपको टीवी वाले गरीब परिवार भी लकदक सफ़ाई वाले मिलेंगे जो आपको कहीं दिखेगा नहीं. खैर तो यह डेकोरेशन कैसे आया यह समझेंगे तो मीडिया समझ आ ही जाएगा. टीवी मीडिया में मारवाड़ी और गुजराती जैनी परंपराएँ दिख रही हैं तो समाचार मीडिया में भी उनके स्वादानुसार खबरें परोसी जाएँगी.

वैसे विश्व मीडिया और कार्पोरेट पत्रकारिता के दो पुरोधा हर्स्ट और पुलित्जर के बीच जंग ही एक येलो साबुन के विज्ञापन के मिलने और ना मिलने से शुरू हुई थी और यहीं से पीत पत्रकारिता यानी येलो जर्नालिस्म का शब्द आता है. तो यह विज्ञापन देता है कौन, जाहिर है विज्ञापन बाजार देता है. तो बाजार विज्ञापन देता है मतलब वह विज्ञापन से अपने लिए फायदा चाहेगा ही और अगर फायदा ही नहीं है तो विज्ञापन क्योंकर देगा. जो पुलित्जर और हर्स्ट एक साबुन के विज्ञापन के लिए भिड़ गए थे, उनके ही नामपर पत्रकारिता के अवार्ड होते हैं. अब इससे बड़ा मज़ाक क्याा होगा.

वैसे यहाँ एक मिनट रूकते हैं, आपको अखबार या पत्रकार या मीडिया से इतनी उम्मीद क्यों है कि वो आपके हिस्से की जंग लड़ेगी. अखबार का जन्म चाहें जर्मनी में हुआ हो जिसे पहला अखबार माना जाता है या फिर भारत के बंगाल का पहला अखबार, सब अपने मूल रूप में सरकार की सूचना जनता को देने के लिए निकाले गए थे. यानी मूल रूप से अख़बार जनता को सूचना देता था. अब यह सूचना देने वाला तंत्र कब लोकतंत्र पर हावी हो गया है यह तो आपको अख़बार की व्यवस्था में नहीं बल्कि उसके छापने वालों पर मिलेगा. मतलब अख़बार केवल आपको सूचना देने के लिए राजशाही या उपनिवेश वालों द्वारा शुरू किया गया था किसी क्रांति के लिए नहीं जैसा आपको भ्रम है. अखबार या समाचार मीडिया का मूल काम सूचना देना है.

बीच में जैसे होता है तमाम आंदोलन आए और कई ऐतिहासिक घटनाएँ हुईं साथ ही कई बातें होती गईं, जैसे विश्व युद्ध, हिरोशिमा-नागासाकी, वियतनाम, कैनेडी की हत्या इन सबने सूचनाओं के इस माध्यम को सत्ताओं के खिलाफ सूचना देने या थोड़ा सा जनता के प्रति जवाबदेह बना दिया. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसकी आजादी के साथ ही इसमें लगने वाले खर्चों के लिए पैसे वालों का प्रवेश होने लगा. अब पत्रकारिता कर रहे लोगों को भी पैसे चाहिए ना आखिर मुँह-पेट आँख नाक तो उनके भी हैं जब राजनीति के स्वंयसेवक लाखों की गाड़ी से टहल सकते हैं तो फिर पत्रकार का भी हक है खाने भर को पैसे मिलें.

खैर तो विज्ञापन से आय कमाने का साधन पत्रकारिता को मिलते ही यह बाजार के नियंत्रण में आ चुकी थी. कुछ लोग पुराने समय को याद करते हैं कि पहले संपादक यह थे वो थे, पर अभी तक जितने भी रिटायर लोगों को देखा सुना है अधिकतर किसी ना किसी पार्टी के फुल टाइमर ही रहे हैं. मसलन अगर धीरूभाई अंबानी के खिलाफ इंडियन एक्सप्रेस के कैंपेन किसी को याद हैं तो फिर वह कैंपेन चलाने वाले पत्रकार अरूण शौरी को भी याद रखना चाहिए.

तो कुल मिलाकर बात यह है कि मीडिया को अपने चलने के लिए विज्ञापन चाहिए क्योंकि आपको सैकड़ों की लागत वाला अखबार तीन रूपए में चाहिए. अब इस कमी को पूरा करने के लिए विज्ञापन पर निर्भरता बढ़ेगी और बढ़ेगी तो विज्ञापन उसी को मिलेगा जिसे बाजार के संभावित या बड़े ग्राहक देखेंगे यानी वही अपर मिडिल-क्लास से लेते हुए उच्च वर्ग तक को ही प्रभावित करने की कोशिश बाजार करना चाहेगा क्योंकि बाकी का मिडिल-मिडिल क्लास या फिर लोअर मिडिल क्लास तो ऊपर वाले वर्गों के तय किए हुए ट्रेंड पर खरीदता है. तो फिर जो वह बड़ा दर्शक चाहेगा वही मीडिया को दिखाना पड़ेगा. घर से ऑफिस और ऑफिस से घर अधिक से अधिक मंहगे मॉल या रेस्टोरेंट में जाने वाला और पाँच गर्लफ्रेड बनाने की ख्वाहिश रखने वाला वर्ग चेतना-फेतना नहीं समझता है. तो जब आप उपभोग वादी हैं तो फिर क्यों उम्मीद करते हैं कि मीडिया आपके बारे में लिखेगा बोलेगा… फिर तो वह बाथटब में ही कूदेगा ना… तो कूद गया….

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