: पहले परिवार, फिर ट्रेड यूनियन। पापा टूटने लगे थे : मुझे हमेशा से यही लगता था कि मैं केवल खरी-खरी बात पढ़ने-समझने-लिखने-बोलने के लिए ही जन्मा हूं : पितृ-दिवस पर विशेष – चार :
कुमार सौवीर
लखनऊ : एक दिन दबोच लिए गये कक्कू जी। कक्कू जी की उम्र उस वक्त ठीक-ठाक तो याद नहीं, लेकिन इतना जरूर याद है कि मैं सीढि़यों में दबोचा गया था। वजह थी मेरी शैतानियां, और हालातों में बेहाल एक बाप की झुंझलाहट। बड़े भाई और उनके तीन अन्य मित्र आपस में बाकायदा गाढ़ा-बंदी के बाद मुझे दबोच पाये थे। ऐलान हुआ था कि कक्कू को अनाथआश्रम में भर्ती कराया जाएगा। मुझे लगा कि यह शायद कोई नारकीय स्थल होगा। मैं चिल्ल-पों में जुटा था, जी-जान से छटपटा रहा था। शोर से आसपास के मकानों के लोग सड़क पर जुट गये। अचानक मैंने बड़े भाई का पजामा खींचा, तो वह टूट गया। भाई साहब के उत्साह का थर्मामीटर एकदम नीचे आ गया, वे अपना पाजामा सम्भालने में व्यस्त हो गये। पकड़ छूटी, तो मैं निकल भागा सबके चंगुल से।
तो दोस्तों। उस दिन जब हद ही हो गई, मैं घर से भाग गया। फिर कानपुर समेत कई जगहों पर होटलों में बर्तन धोने, वेटरी का काम बरसों बरस किया। मजूरी की, महीनों तक रिक्शा भी चलाया और सेंट्रल बस अड्डा के बाहर खड़ी होने वाली बसों में आवाज लगा कर कंघी, नेलकटर, नेल-पालिश वगैरह बेचा। फिर कानपुर से लखनऊ की बाज़ारों तक पंसारी का सामान भी सप्लाई किया। लेकिन पढ़ता ही रहा। मुझे हमेशा से यही लगता रहा था कि मैं केवल खरी-खरी बात पढ़ने-समझने-लिखने-बोलने के लिए ही जन्मा हूं। इसी बीच हाईस्कूल की परीक्षा दी, लेकिन इससे पहले ही नुक्कड़ व स्टेज नाटकों में भी हाथ मांजा।
भाषा बढ़िया होने लगी थी तब तक। दो जून-82 को साप्ताहिक सहारा में प्रूफ रीडर की नौकरी मिल गई। तब तक घर वालों से मुलाकात भी होनी शुरू हो चुकी थी। लेकिन अक्टूबर-84 को पापा ने बहुत दुखी मन से मुझे बुलाया और बोले:- ” अब लगता है कि मैंने तुम पर बहुत अन्याय किया। अब घर वापस आ जाओ।” मेरी आंख डबडबा गयीं। फौरन घर से बाहर निकला, ताकि आंसू न दिखे। और उसी दिन मैं अपना सारा लेकर पापा के पास पहुँच गया।
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हकीकत यह थी कि पापा अब टूटने लगे थे। परिवार पहले तबाह हुआ, फिर ट्रेड यूनियन में भी वे हारते दिख रहे थे। बीमारियां भी उन्हें हर कीमत पर गोद लेने, दबोचने को आमादा थीं। कारण थे आईएफडब्ल्यूजे के खानदानी अध्यक्ष के विक्रमराव, जिन्होंने मेरे पिता पर आरोप लगाया कि उन्होंने चंदे का पैसा गबन कर दिया। यह आरोप लगा कर उन्हें श्रमजीवी पत्रकार संघ से निकाल बाहर कर दिया गया। जबकि हकीकत यह थी कि मेरे पिता अपने वेतन से ही अपने सदस्यों के चंदे की रकम जमा करते थे। उनके पास इतना पैसा ही नहीं होता था कि वे कोई उम्दा शराब पी सकें, जबकि उन्हें शराब की लत पड़ चढ़ चुकी थी। इसलिए वे देसी शराब तक आ गये थे। लेकिन उन्होंने अपने मित्र साथियों के साथ न तो चंदे का संकट बनाया और न परिवार की न्यूनतम जरूरतों के साथ कोई समझौता।
अब आपको बता दूं और आप यकीन मान लीजिए कि मुझे के विक्रमराव से कोई नाराजगी नहीं। स्वर्गीय सियाराम शरण त्रिपाठी जी मेरे पिता थे, और राव साहब आज भी मेरे पिता-तुल्य। उनके सम्मान पर कोई ठेस सहन नहीं कर सकता। यह मेरी कायरता नहीं, मेरा संस्कार है, जिसे मेरे पिता ने दिया है। और मैं आज भी उन पर गर्व करता हूं, कायम हूं। ( क्रमश: )
चेहरे पर झुर्री, अंदाज सख्त, फैसले कड़े, लेकिन ऐसे आवरणों के भीतर धड़कता एक निहायत प्यारा-सा बाप का दिल। जो न समझे हैं, उनसे केवल यह ही गुजारिश है, सिफारिश है कि वे अपने पिता को समझने की कोशिश करें। जी हां, आज फादर्स-डे है। यानी पितृ-दिवस। मैं हर बरस अपने पिता की बरसी या पिता-दिवस पर अपने पापा पर लगातार लिखता ही रहता हूं। इसलिए बदस्तूर आज भी लिखा है। हो सकता है कि इसमें कुछ रिपिटेशंस हों, लेकिन आत्मा जस की तस है।
श्रंखलाबद्ध है पिता के प्रति यह श्रद्धांजलियां। जो अगली कुछ कडि़यों में आप पढ़ सकते हैं। इनकी कडि़यों को देखने के लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कीजिएगा:-