: एक पत्रकार ने नरेंद्र मोदी को बकचोद कह दिया, तो पिछवाड़े पर लात पड़ गयी : जनता पार्टी के साथ ही शुरू हुआ था इंदिरा गांधी जी को गालियां देने का संस्कार : पत्रकारों को अपने संस्कार तज दिये, यह शर्मनाक है : वैसे मैं ही नहीं, ज्यादातर देशवासी मोदी को बकचोद ही कहते हैं :
कुमार सौवीर
लखनऊ : यह बात सन-1977 की है। आपातकाल का दौर था। सारे नेता जेल में थे, या फिर फरारी काट रहे थे। भयभीत थे कि कहीं पकड़ कर उनकी नसबंदी न कर दी जाए। लेकिन जैसे ही इंदिरा जी ने इमर्जेंसी हटाने का फैसला किया, यह सारे नेता चिल्ल पों करने लगे। जेल या फरारी में लापता नेताओं ने अपने बिल से बाहर निकल कर राजनीतिक और लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने का कदम उठा लिया। लेकिन उनमें अधिकांश लोगों ने हंगामा शुरू कर दिया। जैसे बरसात के मेंढक। सब की जुबान में गालियां सड़ने लगीं। इंदिरा जी के नाम पर नयी-नयी गालियां बोने-बुनने-सोचने-बोलने का बवंडर भड़क गया।
एक गाली मुझे आज भी खूब याद है:- गली-गली में झंडी है, इंदिरा गांधी रण्डी है।
यानी जनता पार्टी के यह नेता इस जोश में यह तक भूल गये कि उनका विरोध कांग्रेस और उसके अधिनायकवाद से है, किसी एक महिला से नहीं, जिसे वे तरह गालियां दे रही है। मानो प्रभातभेरी आयोजित की जा रही हो।
लेकिन इंदिरा गांधी ने इस पर कोई भी प्रतिशोध नहीं जताया। जनतापार्टी ने उन्हें जेल में भेज दिया, चिकमंगलूर की सांसदी छीन ली गयी। लेकिन इंदिरा जी खामोश रहीं। नतीजा यह रहा कि जनतापार्टी के नेताओं की करतूतों के चलते जनतापार्टी किर्च-किर्च बिखर गयी। और इंदिरा जी फिर सरकार में आ गयीं। स्पष्ट बहुमत से। लेकिन उन्होंने विरोधियों पर कोई प्रतिशोध नहीं लिया।
लेकिन आज जनता पार्टी के ताजा वंशजों को खुद को हल्की-फुल्की बातें तक सहन नहीं होती है। उनका शिकार सबसे पहले बनते हैं पत्रकार। कई मामलों में चूतिया, चालाक और दलाल ही सही, लेकिन पुण्यप्रसून बाजपेई के अधिकांश यथार्थ परक होते हैं। ठीक उसी तरह जैसे रवीश कुमार। इन दोनों को निपटाने के लिए राजसत्ता ने हरचंद कोशिशें की हैं, कई बार। और ताजा मामला है आईएएनएस नाम की न्यूज़ एजेंसी द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम बकचोद कहना राजसत्ता पर इतना नागवार लगा, कि उसकी नौकरी छीन ली गयी। न गवाही, न सुनवाई। केवल और केवल सजा। नौकरी से निकाल दिया गया यह पत्रकार।
सुनील शेट्टी की एक फिल्म आई थी गोपी-किशन। उसका डायलॉग बड़ा फेमस हुआ था “मेरे दो-दो बाप”। आज मेरा ये वीडियो देखकर मेरी बेटी भी यही बोली, कि :- “मेरे दो-दो बाप।” मेरे कई चेहरे आप सब ने देखे होंगे, आज मेरे अभिनय का लुत्फ उठाइए, और ज़रा वाह-वाह भी फरमाइए मुद्दा वही, “बलिया का नेशनल गेम”
बलिया के “नेशनल-गेम” की प्रेत-छाया से आतंकित है पुलिस
मैं भी मानता हूं कि किसी को गाली देना असंसदीय है, अपमानजनक है। ऐसा नहीं होना चाहिए। खास तौर पर जब लेखक एक पत्रकार हो। पत्रकार से यह अपेक्षा नहीं होती है। शालीनता एक महत्वपूर्ण तथ्य होता है। लेकिन लोकाचार में कई शब्द चलते हैं, और खूब चलते हैं। मसलन बिहार में बुरबक शब्द खूब चलता है। लालू यादव भी यही उच्चारण करते हैं। कई अन्य नेता भी। हालांकि कुछ समझदार लोगों ने इस शब्द को संशोधित कर उसे बुड़बक बना दिया है। ठीक उसी तरह, जैसे बकलण्ड। बीएचयू के प्रमुख पीआरओ रहे विश्वनाथ पाण्डेय सरेआम यह शब्द बोलते हैं। अरे पांडेय क्या, पूरा बनारस यही बोलता है।
लोकशब्दों का प्रयोग सामान्य तौर पर पत्रकारिता में चलता है। लोकाचार में। उसे यह भी हो सकता था इस पत्रकार ने ऐसा न लिखा हो, किसी शरारत की हो। ठीक उसी तरह जैसे जनसत्ता में आलोक तोमर के साथ हुआ। तोमर के कम्प्यूटर में छेड़छाड़ हुई, लेकिन गाज गिरी आलोक तोमर पर। बनारस में छपने वाले राष्ट्रीय सहारा में गाजीपुर डेट लाइन पर एक खबर मायावती को मां-बहन की गालियां तक दी छाप दी गयी थीं।
फिर भी, ऐसे शब्दों के प्रयोग को निंदनीय मानता हूं। लेकिन लोक-मत और जन-राय को जानना और उसे आम आदमी तक पहुंचाना पत्रकार का दायित्व है। और तो और, मैं भी मानता हूं कि नरेंद्र मोदी वाकई बकचोद हैं। इतना ही नहीं, उससे भी ज्यादा बढ़ कर हैं। और यह बात केवल मैं ही नहीं, देश का अधिकांश नागरिक अब मानने भी लगा है। नरेंद्र मोदी के पांच बरस के बयानों को जांच-परख लीजिए, तो आपको साफ पता चल जाएगा कि मोदी केवल बकचोद ही हैं।
लेकिन इसके बावजूद हमें ऐसा लिखने से परहेज करना चाहिए।
गाजीपुर में मायावती को कब गाली गलौज लिखा गया। माने किस सन् में ? एहिसही पूछ रहा था।