: मदर्स-डे स्पेशल : हम किस प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। घूस लेने-देने वाले या उसके सख्त विरोधी ? : “दुर्बल को ना सताइये, वां की मोटी हाय। बिना साँस की चाम से, लोह भसम होई जाय।” :
कुमार सौवीर
लखनऊ : श्राप का महत्व तो हमने सदियों से पढ़ा और सुना है। श्राप यानी आर्त हृदय के दिल से निकली आह। ऐसा श्राप जो सामने वाले को पल भर में भस्म कर सकता है। लेकिन श्राप का इस्तेमाल हम लाख कर दें, लेकिन उसका असर अब निष्प्रभ ही होता है। लोग बद्दुआ देते हैं, अमंगल की कामना करते हैं, लेकिन किसी पर कोई असर नहीं पड़ता। अब तो पता ही नहीं चलता कि वह वाकई पीड़ित है या नहीं। घूस लेने वाला भी मस्त रहता है और देने वाला भी खुश। वजह यह कि जो पीड़ित है वह खुद ही इतनी घूस ले चुका होता है उसके अंतस में वह आग ही नहीं सुलग सकती, कि उसके श्राप में कोई असर दिख जाए।
लेकिन मेरे जीवन में घटना हुई है जहां आंशिक ही सही, लेकिन एहसास होता है श्राप वाकई सामने वाले को तबाह कर सकता। मैं मदर्स-डे पर यह लिखना चाहता था, लेकिन लैपटॉप खराब होने के कारण मोबाइल पर लिखना पड़ा। तो यह किस्सा है बहराइच के जरवल रोड कस्बे में सरकारी कन्या जूनियर हाईस्कूल का। मेरी मां यानी स्वर्गीय सत्यप्रभा त्रिपाठी इसी स्कूल में वरिष्ठ अध्यापिका हुआ करती थीं। स्कूल में ही एक टिन शेड वाली कोठरी में मम्मी और हम भाई-बहन रहते थे। स्कूल बंद होने से लेकर अगले दिन खुलने तक के वक्त में यह स्कूल हम लोगों का स्टेडियम बन जाता था।
यह स्कूल उस समय जिला पंचायत के अधीन हुआ करता था और सभी शिक्षकों का वेतन कैसरगंज ब्लॉक से ही बंटता था। जिला पंचायत की आर्थिक स्थिति काफी दयनीय थी। कई-कई महीनों तक वेतन नहीं मिल पाता था। तनख्वाह बंटने वाले दिन मम्मी जब लौटती थीं, तो उनके हाथ में हम लोगों के लिए रसगुल्ला की एक छोटी मलिया-नुमा मिट्टी की हड़िया होती थी, जिसमें रसगुल्ले गोते लगाते रहते थे। तब कैसरगंज के रसगुल्ले मशहूर थे, जैसे संडीला के लड्डू, मैगलगंज का गुलाब-जामुन, लखनऊ की रेवड़ी या आगरा के पेठा। हम लोग प्रतीक्षा में रहते थे कि मम्मी वेतन लेने गई हैं और लौटते समय हम लोग दो-दो रसगुल्ला पाएंगे।
लेकिन एक दिन मम्मी गई तो, लेकिन वापसी में उनके हाथ में रसगुल्लों की हंडिया नहीं थी। चेहरा निस्तेज, थका हुआ था। हम लोग हैरान। पूछताछ करने लगे, तो मम्मी ने अपने सिर को अपने हाथों से जोर-जोर से पीटना शुरू कर दिया। बुरी तरह रोने लगीं मम्मी। हम सब खुद बेहाल। खुद भी रोने लगे। सामूहिक रुदन बड़ा दारुण माहौल बनाने लगा।
इस घटना को थोड़ा फ्लैशबैक में समझने की कोशिश कीजिए। उस दिन के तीन महीना पहले मम्मी वेतन लेने गई थी। वहां उन्होंने अपना वेतन गिनना शुरू किया तो पता चला कि उसमें दो रुपये कम है। वेतन बांटने वाला बाबू नया ही तबादले पर आया था। मम्मी ने उस बाबू से पूछा। बाबू बड़ी ढिठाई से बोला कि, ‘हमारा हक और दस्तूरी हो गया।’
मम्मी ने पूछा,’ क्यों ?
‘हमारे बच्चों को भी तो मिठाई मिलनी चाहिए।’ बाबू बोला।
मम्मी बोलीं कि, ‘ लेकिन यह तो बेईमानी है। यानी घूस।’
‘अब जो चाहो कहो बहन जी’ बेशर्मी से हंसकर बोला क्लर्क। तब स्कूल की टीचर्स को बहन जी ही पुकारा जाता था।
मम्मी का इसके पहले घूसखोरी और घूसखोर का कोई आमना-सामना नहीं हुआ था लेकिन सुना जरूर था। क्लर्क की बात सुनकर उनका गुस्सा फट पड़ा। तमतमा कर उन्होंने जोर से श्राप दे दिया, ‘बाबूजी हमारे बच्चों का पेट काटकर आप अपने बच्चों को पालना चाहते हैं न? तो आपके बच्चों के लिए तो मैं कुछ नहीं कहूंगा, लेकिन ऐसी बेईमानी और घूसखोरी से आपका पेट जरूर फट जाएगा।’
मम्मी तमतमाते हुए वापस लौट गईं।
इसके बाद 4 महीने बाद फिर खबर आई कि वेतन बंटने जा रहा है। मम्मी तैयार हो गई। हम लोग बहुत खुश थे। हमें सिर्फ इतना एहसास हो जाता था कि मम्मी सेलरी लेकर आएंगी तो एक हंडिया भर रसगुल्ला लाएंगी। लेकिन शाम को जब मम्मी खाली हाथ लौटीं, तो हम लोग अचरज में थे। हमने पूछा तो वह अपने हाथों से अपना सर धुनने लगीं, और दहाड़े मार कर रोने लगीं।
वह तो बाद में पता चला किउस दिन हादसा क्या हुआ था। पता चला कि मम्मी कैसरगंज ब्लॉक के ऑफिस पहुंचीं तो उन्हें वो बाबू नहीं दिखाई पड़ा। वेतन वाली सीट पर कोई दूसरा क्लर्क बैठा दिखा। उन्होंने उस बाबू के बारे में पूछताछ की तो पता चला कि वह बाबू मर गया है।
‘मर गया है? कैसे?’ मम्मी घबरा गई। पूछा कि क्यों, क्या और कैसे हो गया था। नए बाबू ने जवाब दिया कि, ‘ कोई तीन महीना पहले उसके पेट में भारी दर्द उठा था। उसे जब अस्पताल ले जाया गया तो वहां डॉक्टरों ने लखनऊ रेफर कर दिया। बताते हैं उसके पेट में घाव हो गया था। और लखनऊ में चार-पांच दिन के भीतर ही उसकी दर्दनाक मौत हो गई।
बस एक बात और। कलियुग में अराजकता, आर्थिक बर्बादी और व्यभिचार का ही बोलबाला है। सरकारी कामकाज में वेतन से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है घूस यानी रिश्वत। उसके बिना पत्ता ही नहीं डोलता। दायित्व को कोसों दूर पछाड़ देती है घूसखोरी। संकल्प और मानवता तो दूर-दूर तक नहीं दिखाई पड़ती है। संकल्प बन गयी रिश्वत। हर ओर नोटों का उबलता समंदर, जिसे पार कर पाना किसी के लिए हंसी-ठठ्ठा नहीं होता। बिना रिश्वत के काम करने वाले लोग अब चंद ही बचे हैं।
जरा सोचिए तो, कि हम किस किस्म के व्यक्ति हैं।
घूस लेने वाले?
घूस देने वाले?
या फिर घूस लेने-देने के सख्त विरोधी।
“दुर्बल को ना सताइये, वां की मोटी हाय,
बिना साँस की चाम से, लोह भसम होई जाय।”
बहराइच के जरवल रोड कस्बे के स्कूल के टीचरों से स्कूल के बाबू द्वारा सेलरी देने के एवज़ में रिश्र्वत लेने की घटना झकझोर देती है। पता नहीं उस बाबू के परिवार के बच्चों पर उन संस्कारों का क्या असर पड़ा है ?