: जज के सामने अधिकांश वकील ऑब्लाइज्ड के बजाय कुछ और बुदबुदाते हैं : वकीलों ! तुम बयाने बहुत लम्बे लेते हो, कंछल चच्चा राइट-टाइम हो गये : मामा से प्रमोट चच्चा ने थामी बार की लगाम :
कुमार सौवीर
लखनऊ : जॉली एलएलबी। हम क्या, पूरी फिल्म इंडस्ट्री भी जानती है कि लखनऊ के वकील बहुत कारसाज होते हैं। हरफन-मौला, तिकड़मी। पढ़ाई-लिखाई के मामले में भले ही काफी कमजोर हों, लेकिन बयाने लम्बे-लम्बे थाम लेते हैं। बेहिचक, बेधड़क। हिचकी तक नहीं लेते और डकार लेकर हर चीज हजम कर कर लेते हैं।
दोलत्ती संवाददाता के मुताबिक खानपान, पढ़ाई-लिखाई, वकालत, और बयानों को भी छोड़ दीजिए। परस्पर रिश्तेदारी में भी उनका कोई जोड़ नहीं है। वकीलों के बीच हर रिश्ते का सम्मान करते हैं लखनऊ के वकील, बस सामने वाले वकील में भसोट होनी चाहिए, दम-खम होना चाहिए, पैंट की जेब में मोटा पर्स होना चाहिए। आप किसी पुलिसवाले को मामू कह कर देखिये न, जिन्दगी भर आपका चालान काटने के अभियान में जुट जाएगा। लेकिन वकीलों के मामले में ऐसा नहीं होता है। बस वकील में हनक होनी चाहिए। सारा सब कोना दुरूस्त हो तो किसी को भी मामा बना डालते हैं लखनऊ के वकील। पूरे सम्मान के साथ। चाहे वह मुख्तार अंसारी का मामा हो, या श्रीप्रकाश शुक्ला का मामा। न भी हो, तो भी कोई वांदा नहीं। मौज आयी तो खटिया पर चौड़े-लम्बे लेट जाएंगे। मामा होना बहुत जरूरी है, अपरिहार्य है, समीचीन है और स्वास्थ्यप्रद होने के साथ अपेक्षाकृत सम्मानजनक भी है।
दोलत्ती सूत्रों के अनुसार मामा बनने से कोई गंदी-टाइप गाली नहीं देता था। जबकि चाचा होने में तो बड़े-बड़े खतरे और जन्मजात समस्याएं होती हैं। बात-बात पर गाली पड़ती है। भतीजे को और भतीजे के माध्यम से चाचा को भी। कुछ कही-कही, तो अधिकांश सिर्फ बुदबुदाई-बुदबुदाई या सुनी-सुनाई भी। कई तो इशारों या व्यवहार में ही होती है। चाचा है तो शर्तिया ही …… होगा। जबकि मामा होने में गालियां जैसा कोई भी मसला नहीं हुआ। मामा को गाली तो बहुत हुआ तो सिर्फ बाप ही कह सकता है, और कचेहरी में हर आदमी एक-दूसरे का बाप होता है। ऐसे में कौन किस के बाप को गाली दे, इसकी हिम्मत किसी में नहीं होती।
दोलत्ती सूत्रों के अनुसार एक थे चाचा। दो बरस पहले कचेहरी से घसीट कर सड़क पर ससम्मान लाए गये। चीर-हरण तो कचेहरी की गलियारे और सीढि़यों पर हो चुका था। एक लत्ता भर बचा था, जो फुन्नी लाल की लाज बचाये रखे था। लेकिन सड़क पर उसका भी त्यागपत्र हो गया। बहुत कूटे गये चचा-कंछल। कोई भी गाली ऐसी कायनात में नहीं बची थी, तो उस सपाई सांसद को नहीं मिली। अंग-प्रत्यंग से रक्त-स्राव हो रहा था। जी हां, प्रत्यंग से भी। लेकिन उसके बाद से ही बनवारी लाल कंछल जी हमेशा-हमेशा के लिए राइट-टाइम हो गये। अब कचेहरी में जाते भी हैं, तो हर-हर एक जान-अन-पहचान को सैल्यूट ठोंकते रहते हैं। चाहे वह कोई भी क्यों न हो। वकीलों ने और चाहे कुछ न किया हो, लेकिन कंछल जी के रक्त से थोड़ा रक्त निकाल कर उनके शरीर और दिमाग में समाजवादी सोच का करंट तो लगा ही दिया।
बरहाल, वकीलों में अब चारित्रिक विकास इधर बहुत तेजी से होना शुरू हो गया है। जो मामा लोग सारथी की तरह बार-रथ को हांका करते थे, उनको धक्का मार कर अब वह सार्थवान बन कर ठाठ से बार-रथ पर काबिज हो चुके हैं चच्चू लोग। वकील तो अब ऐसे चच्चुओं से निकलने वाली लहरें देखने और गिनने की प्रतीक्षा में पलक-पांवड़े बिछाये हैं। प्रतीक्षा भी है कि न जाने किस दिशा में चच्चू-सूरज उगने लगे।
दोलत्ती संवाददाता के मुताबिक वकील कभी एकेले नहीं खाता। बांट कर खाना उसकी सिफत होती है। कई वकील तो एसोसियेट्स नाम के बोर्ड भी लगा देते हैं। इससे हनक बनी रहती है न, इसलिए। मसलन रामेश्वरम एसोसियेट्स, माता दी एसोसियेट्स, माला जी एसोसियेट्स, मदीना एसोसियेट्स, न्यूपाला जी एसोसियेट्स, मुंहकाला एसोसियेट्स, अंडर-प्रेशर एसोसियेट्स वगैरह-वगैरह।
दोलत्ती सूत्रों के अनुसार लेकिन जो एसोसियेट्स नहीं बना पाते, वे ग्रुप बना लेते हैं, लेकिन प्रेशर-हीन ग्रुप की तरह। मगर असर मस्त होता है उनका। कचेहरी में किसको पीटना है, किसको बचाना है, किसको गालियां परोस देना है, यह सब ऐसे कृत्य कचेहरी में यूं ही नहीं होते हैं। इसके लिए मोटी रकम उगाही जाती है। बशर्ते पार्टी मजबूत हो। एक बार डील हो गयी, तो समझो उसका तियां-पांचा दुरूस्त कर दिया जाएगा। जैसे कंछल चच्चा का हुआ था।
दोलत्ती संवाददाता के मुताबिक कुछ वकील तो कचेहरी के बाहर अपनी वकालत चमकाने की गुंजाइश खोजना चाहते हैं। जाहिर है कि इसमें उसमें अधिकांश पैंतरे आपराधिक ही होते हैं, इसलिए इसमें से अक्सर उन्हें गच्चा खाना पड़ता है। आपने गोसाईंगंज में एक करोड़ 85 लाख रूपयों की लूट का किस्सा तो खूब सुना होगा। पुलिसवालों ने ही यह लूट करायी थी, लेकिन वकीलों की मानें तो इसमें वकील को जबरिया फंसा दिया गया।
दोलत्ती संवाददाता के मुताबिक अब देखिये, कल तो अदालत के बजाय बस्ता की जगह पर दीपावली मनाना शुरू कर दिया वकीलों ने। निकाला सुतली बम, और दाग दिया।
कुछ भी हो, यह दाग सुतली का ही नहीं था, बल्कि पूरी वकीलत के माथे पर दगा था। चंद वकीलों की करतूतों ने पिछले बीस बरसों में कचेहरी में जो माहोल बनाया है, वह अब बेशर्मी तक पहुंच चुका है। इससे बेहूदगी और क्या होगा कि तर्क-वितर्क और सक्ष्य की दुनिया वाली पुण्य-भूमि में बातचीत हिंसक ही नहीं, बल्कि विस्फोटक हो जाए। खून-खच्चर हो जाए।
दोलत्ती सूत्रों के अनुसार लेकिन शायद आम वकील इस बदतरीन हालत से भी ज्यादा बदतर माहौल देखने पर आमादा हैं। और अगर ऐसा नहीं है, तो फिर प्रतीक्षा किस बात की हो रही है। आपका ही पाला-पोसा फोड़ा है यह, जो बदबूदार और मवाद उलीच रहा है। आप ही सम्भालिये न।