जिन्‍दगी के हर मोड़ पर थप्‍पड़ मारती है फिल्‍म “थप्‍पड़”

दोलत्ती


: फिल्‍म देखिये, इसके पहले कि थप्‍पड़ गाल पर आने की नौबत पहुंचे : थप्‍पड़ क्रिया में मारने, देखने, सुनने, महसूस, दर्द को समझने और टीस को अंतर्मन तक घुलते हुए भोगने वालों की प्रतिक्रियाएं अलग-अलग :
कुमार सौवीर
लखनऊ : थप्‍पड़। हर शख्‍स को थप्‍पड़ खाने पर बहुत नाराज नहीं होना चाहिए। बल्कि उसे उस थप्‍पड़ के कई दीगर आयामों पर सकारात्‍मक नजरिये से भी देखना चाहिए।
मसलन, उस महिला की बात सुन लीजिए, जिसे उसके पति ने थप्‍पड़ मार दिया था। उसका सवाल है कि, “उसने मुझे मारा। पहली बार मारा। वह नहीं मार सकता था। बस इतनी ही पिटीशन है मेरी। ”
वह महिला उस थप्‍पड़ से बहुत व्‍यथित, क्षुब्‍ध, आक्रोशित और दुखी थी। मगर उसका कहना था कि पहले उसे कई चीजों उसे दिखती ही नहीं थीं, वह समझ ही नहीं पाती थी, कि क्‍या वाकई ऐसी बातें भी जीवन में होती हैं, या वह सब बहुत क्षुद्र या छोटी-मोटी सी बात ही होती है। लेकिन उस दिन सिर्फ एक थप्‍पड़ ने उसकी समझ को पूरी तरह खोल कर साफ-साफ समझा दिया, जिसे इसके पहले तक उसे अनदेखा किया करती थी, या उसे दीखती ही नहीं थीं।
थप्‍पड़, दरअसल एक ऐसी क्रिया है जिसे मारने, देखने, सुनने, महसूस करने और उसके दर्द को समझने और उसकी टीस को अंतर्मन तक घुलते हुए भोगने वालों की प्रतिक्रियाएं बिलकुल अलग-अलग होती हैं। मसलन, उस थप्‍पड़ फिल्‍म में थप्‍पड़ खाने वाली नायिका जब अपने पिता से अपने फैसले को अपने पिता से शेयर करने लगती है, और वह जानने की प्रक्रिया-नुमा ऐसा कुछ चाहती है जिसमें उसमें उसके फैसले पर सहमति की मोहर उसके पिता और उसके घरवालों की लग जाए, उसका सवाल होता है कि उसका फैसला सही था अथवा नहीं।
इस सवाल पर उसके पिता का जवाब भी बहुत हृदय-विदारक होता है:- “हम सब तो सही समझ कर ही अपने काम करते हैं बेटा। लेकिन हर बार सही काम करने का नतीजा अच्‍छा नहीं होता है।” लेकिन उधर पुराना चावल अलग तरीके से ही महक रहा होता है:- “अब यही सुनना बचा था कि हमारी बेटी डिवोर्स लेने जा रही है।” यहां एक ही जगह पर तीनों चावल अलग-अलग से पकने पर प्रतिक्रियाएं व्‍यक्‍त करते दिखते हैं। नया चावल का लहजा एक ओर है, जबकि पुराना चावल की प्रतिक्रिया काफी-कुछ मिक्‍स्‍ड है। हैरत की बात तो यह है कि इस चावल में भी दो धार हैं। एक धार तो पिता की है, जबकि दूसरी धार माता की है। दोनों ही के अनुभव बिलकुल अलग-अलग सिरे पर रंगे-पगे हैं। मां कहती है कि, ” छोड दे बेटा, थोड़ा बर्दाश्‍त करना चाहिए औरतों को।”

लेकिन बहुत पुराना चावल तो अपने घिसे अनुभवों की रगड़ के निशान ऐसे हर मोड़ पर दर्ज करने पर आमादा हैं। इतना ही नहीं, उसी थप्‍पड़ पर घर की नौकरानी द्वारा दी गयी व्‍याख्‍या को आप जब सुनेंगे तो दिल दहल जाएगा। साफ समझने लगेगा कि आपके फैसले उतने ही सहज और सपाट नहीं हैं जितना अब तक आप समझते रहे हैं। यहां नौकरानी की तुलना आप चावल की किनकी या टूटे हुए चावल के नन्‍हें-नन्‍हें टुकड़ों के तौर पर महसूस कर सकती हैं, जहां समवेत भय, लज्‍जा और उलाहना के भाव उबल रहे हैं, और झाग पतीली से तेजी के साथ बहते हुए चूल्‍हे को घेरता जा रहा है। अंगारों को बुझाते हुए, और भाप-नुमा धुए की तरह, जहां एकांकी अपनी समाप्ति के लिए यवनिका-पतन करती है।
यकीन मानिये, कि मैं किसी भी चावल की न तो पैरवी कर रहा हूं, और न ही किसी चावल की महक पर उत्‍तेजित, आक्रोशित या बेहाल होने जा रहा हूं। इस फिल्‍म ने एक ही कृत्‍य के एक प्रभावित शख्‍स से जुड़े तीनों पहलुओं को बहुत बारीकी के साथ संजोने, परोसने की कोशिश की है, बिना किसी लाग-लपेट के।
मेरी चिंता का विषय तो ठीक वही है, जो सामाजिक विज्ञानियों की होनी चाहिए या होती भी होगी। यह सवाल बहुत जिन्‍दा है और फड़फड़ा रहा है कि हमें समझना होगा कि आखिर ऐसा हुआ ही क्‍यों। उसकी वजूहात क्‍या होती हैं। बाकी दीगर रास्‍ते तो बाकायदा मौजूद हैं ही। जिसमें सबसे बेहतर तो जवाब यही है कि क्‍या हम ऐसे सम्‍बन्‍धों को लगातार जोड़े ही रखना चाहते हैं। जोड़ने का मतलब तो साफ ही है कि ऐसा रिश्‍ता कभी एक था ही नहीं। जोड़ा तो वही जाता है, जो टूटा हुआ हो। धोखा, प्रपंच, कपट, असहयोग, निंदा जैसी आपराधिक हरकतों की सड़क पर आ चुके रिश्‍ते वाकई लम्‍बे वक्‍त तक जुड़े ही रह सकते हैं। क्‍या उन पर हम पूर्ववत संबंध बनाये रख सकते हैं। उन पर यकीन कर अपनी जिन्‍दगी को उसके हाथों में दोबारा थमा सकते हैं।
इसका जवाब तो उसी को देखना, महसूस करना होगा और लेना होगा जिसने उसे भोगा हो। सम्‍यक नजरिया इसमें बहुत जरूरी नहीं, बल्कि अनिवार्य होगा। कोई भी रिश्‍ता हम कब तक ढोते रह सकते हैं कि जमाना क्‍या सोचेगा, बच्‍चों का क्‍या होगा, हमारा क्‍या होगा। ऐसे सवालों को जवाब तो थप्‍पड़ मारने और थप्‍पड़ मारने वालों को अलग-अलग प्‍लेटफार्म पर बैठ कर करना होगा कि उसे किस दर्जे का टिकट लेकर किस ट्रेन पर किस श्रेणी के डिब्‍बे पर कितनी दूरी तक सफर करना है, या करना भी है अथवा नहीं। और सबसे बड़ा सवाल तो यह कि क्‍या हमारे इस फैसले का कोई औचित्‍य है भी या नहीं।
हर कदम पर थप्‍पड़ मारती है यह फिल्‍म। जिसका नाम है थप्‍पड़।
य‍ह फिल्‍म देखिये जरूर। इसके पहले कि थप्‍पड़ को गाल पर महसूस करने की नौबत आये।

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