डोंट गो टू सी हिम, ट्राई टू अंडरस्‍टैंड। महानतम है हनुमान

दोलत्ती

: जितने भी घमंडी पागल हैं, खुद को दाता-नियंता-अन्‍नदाता समझ लेते हैं :  पहले केवल प्‍याऊ-बताशा बंटता था, अब तो आइसक्रीम-चाऊमीन तक का भंडारा : सीता को माता कहता है हनुमान, आजकल के बंदरी-लौंडे पड़ोसनों तक को लाइन मारते दिख जाएंगे :

कुमार सौवीर

लखनऊ : कहां लंका, और कहां हिमालय के महादेव पर्वत-चोटियों से घिरा द्रोण-शिखर। मेघनाथ का मारक-वाण जब लक्ष्‍मण के सीने में धंसा, तो हाहाकार मच गया। जामदग्‍न्‍य-सुत परशुराम के भाई और महानतम धन्‍वन्‍तरियों की वंशावली वाले वैद्यराज महर्षि सुश्रुत ने लक्ष्‍मण को जांचा। पाया कि लक्ष्‍मण अब चंद क्षणों के ही मेहमान हैं, उनका प्राणान्‍त धीरे-धीरे हो रहा था। रूविदालियां शुरू हो गयीं। सुश्रुत ने बताया कि लक्ष्‍मण को बचाने का केवल एक ही रास्‍ता है, कि संजीवनी-बूटी का लेप किया जाए। लेकिन यह असम्‍भव था। वजह यह कि लंका से हिमालय की दूरी हजारों मील थी, और समय न्‍यूनतम। न जाने कब लक्ष्‍मण के प्राण निकल जाएं।

अचानक हनुमान ने तय किया कि वे संजीवनी लेकर आयेंगे। महाबली हनुमान चूंकि बंदर थे, पवन-सुत थे, मारूति-नंदन थे, इसलिए खूब जानते थे कि कैसे लक्ष्‍य को साधा जा सकता है। छलांग लगाने में माहिर हनुमान महादेव पर्वत-श्रंखला पर पहुंचे। लेकिन संजीवनी-बूटी की पहचान न होने के चलते पूरा का पूरा द्रोण-पर्वत ही उठा लाये। सुश्रुत ने संजीवनी बूटी का लेप किया और उसके बाद का पूरा किस्‍सा आप सब को पता ही है।

लेकिन इस पूरी गाथा में अगर आप राम-लक्ष्‍मण वगैरह जैसे दैवीय ताकतों-क्षमताओं को खोज रहे हों, तो शायद आप गलती करेंगे। यह महात्‍म्‍य राम, लक्ष्‍मण जैसे किसी इंसान का नहीं था, बल्कि साक्षात हनुमान का था। जिसमें केवल और केवल हनुमान ही है, और जो कुछ भी उसके अलावा दिख रहा है, वह भी अगर हनुमान नहीं है, तो फिर या तो बजरंग बली है, मारूति-नन्‍दन है, महावीर है, पवन-सुत है, वानर यानी मानुष-नुमा बंदर है या फिर महासेवक ही है।

लाल-लंगोट कसने वाला महावीर केवल दर्शन की वस्‍तु नहीं है। उसे महिलाओं के पास जाने में पाखण्‍डी-ढोंग नहीं बुनना होता है। जब जरूरत होती है, तो वे अकेली सीता के पास अकेले भी चला जाता है। उसके पास नीयत का खजाना है, इसलिए वह सीता को हे-सीता नहीं पुकारता। बल्कि माता पुकारता है। और अपने आसपास के मोहल्‍ले-गांव-कालोनी या पड़ोस का जायजा लीजिए। अच्‍छी-खासी आंटी तक को प्रेम-पत्र भेजने में आजकल के मनुष्‍य-रूपेण मृगाश्‍चरांति दिख जाएंगे। बूढ़े-खूसट बंदर भी नन्‍हीं-मुन्नियां तक को टटोलते दिख जाएंगे। यूपी के कई जिलों में पीसीएस नामाराषी लोगों को ससुर कहा जाता है।

बजरंग बली तो अपना पूरा जीवन अपने दासत्‍व में खोजता-जीता है। जिसे आदरणीय मान लिया, सो मान लिया। यह नहीं कि बसपा की नाव से कूद कर भाजपा के जजीरा लटके स्‍वामी प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक की तरह जहां भी खाया-भकोसा, जाते वक्‍त उसकी थाली में छेद भी कर डाला। जिसको अपना मान लिया, तो मान लिया। बात खत्‍त्‍त्‍म। वह राम को अपना अराध्‍य मान लेता है, तो बस मान लेता है। उसमें धोखाधड़ी लेशमात्र नहीं। यह नहीं कि जितना हो पाया, हड़प लिया और राम को कंगाल करने की जुगत भिड़ा ली। हनुमान में बालकपन भी है, वह पूरा का पूरा दहकता सूरज यह समझ कर अपने मुंह में ले लेता है कि यह आग का गोला नहीं, बल्कि कोई आकर्षक फल है। वह केवल बंदर ही नहीं है, बल्कि बुद्धि और मेधा का प्रकर्ष भी है। जरूरत पड़ी तो अपनी ही पूंछ को लम्‍बा कर उसमें आग लगवा ली, ताकि पूरी लंका को ठीक से भस्‍मीभूत किया जा सके। वह विनम्र भी है, इसलिए जब भीम बुजुर्ग वानर को अपनी पूंछ हटाने के लिए फटकारता है, तो हनुमान पूरी शालीनता के साथ अनुरोध करता है कि बेटा मैं बहुत बुजुर्ग हूं, अशक्‍त हूं, मेरी पूंछ पगड़डी से सरकार दो। उस वक्‍त भीम को अहसास होता है कि हनुमान के बल का एक रोंया तक भीम के पास नहीं। यह स्थिति में हनुमान स्‍वयं को किसी श्रेष्‍ठ शिक्षक की भूमिका में खड़ा होता है।

हमारी कालोनी के सामने पान-मसाले वाला एक धन-पशु रहता है। महीने में एक बार तो बड़ा भंडारा खोलता है। बड़ा मंगल में तो गजबै हो जाता है। कहने की जरूरत नहीं कि यह मुख-कैंसर प्रदाता अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए ही यह फूहड़ नौटंकी करता है। दो पत्रकार भी यही करते हैं, लेकिन साल में दो-चार बार। खुद को खुदा-साईं बनने का स्‍वांग रचते हैं। अब कोई पूछे कि जब तुम्‍हें वेतन ही नहीं मिलती, तो यह भारी-भरकम बोझा कैसे उठाते हो।

लेकिन हम हनुमान को देखने के लिए उसके मंदिर जाते हैं, जयजयकारा लगाते हैं, प्रसाद चढ़ाते हैं, मुंह मीठा कराते हैं और फिर किसी और को प्रसाद देने के बजाय, अपने घरवालों तक ही जीम लेते हैं। आज तो बड़ा मंगल है। एक महीने तक हर मंगल तक शहर भर में भंडारा चलेगा। हर दस-पांच मकान के बाद एक भंडारा-शॉप नि:शुल्‍क दिख जाएंगी। पहले केवल प्‍याऊ चलते थे, कहीं-कहीं बतासा, या गुड़ की डली तक बंटती थी, लेकिन अब तो हचक कर भंडारा छकते हैं आज लोग, अपना पेट पराया समझ कर। कुछ बरसों से तो चाऊमीन, मोमो और आइसक्रीम तक के भण्‍डारे खुल गये हैं। कहीं हमारा भण्‍डारा पड़ोसी के कम न साबित हो जाए।

( हिन्‍दू धर्म में सर्वाधिक बलशाली, उपासक, पाप-नाशक, पिशाच-संहारी और अराध्‍य के प्रति अगाध दासत्‍व के प्रतीक माने जाने वाले हनुमान की यह छोटी सी प्रतिमा मुझे अपनी लेह-लदाख यात्रा में दिखी। लेह के मुख्‍य बाजार के ऊपरी हिस्‍से के बायें स्थित बौद्ध-मॉनिस्‍ट्री के पास एक रिफ्यूजी बाजार में यह प्रतिमा बिक रही थी। यह रिफ्यूजी मार्केट चीनी हिस्‍से वाले बौद्ध तिब्बती लोगों की है। आपको बता दें कि तिब्‍बती बौद्ध औरलेह-लदाखी बौद्धों की बोली, लिपि और भाषा तो एक जैसी ही है, लेकिन उसमें समझ का खासा फर्क होता है। उनका वस्‍त्र-विन्‍यास और कपड़ों की डिजाइन भी लदाखी बौद्धों से ठीक अलग है। इन दोनों में वैवाहिक संबंध नहीं होते हैं।
लेह बौद्ध क्षेत्र है। हालांकि यहां कश्‍मीरी मुसलमानों ने अपना तेजी से आधिपत्‍य बढ़ाने का अभियान छेड़ रखा है, जिसके चलते यहां परस्‍पर तनाव और अक्‍सर भिड़ंत भी होने लगी है। लेकिन इसके बावजूद यहां हिन्‍दू प्रतीकों या प्रतिमाओं का कोई स्‍थान नहीं है। यहां या तो काफी बौद्ध मॉनेस्‍ट्री है, या फिर छिटपुट मस्जिदें हैं। हनुमान जैसे देवताओं की प्रतिमाओं का यहां मिलना आश्‍चर्यजनक है। )

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हनुमान

नाक न कट जाए। आपधापी है। मैं खिलाऊंगा, मैं खिलाऊंगा, मैं खिलाऊंगा। जो कुछ भी करेंगे, आप ही करेंगे। भगवान के मंदिर के नाम पर है तो क्‍या हुआ। भगवान तो बकलोल होता है। मैं ही कर्ता हूं, ईश्‍वर और दाता हूं। मेरे हाथों से यह पूड़ी खाओ, यह खीर खाओ। यानी आप क्षमतावान न हुए, खुद को भगवान समझ लिया।

मुझे तो डर है कि कहीं अगले कुछ बरसों में बिरयानी न बंटने लग जाए।

कुछ भी हो सकता है। जब दो-कौड़ी का इंसान खुद को भगवान समझ लेगा, तो बिरयानी तो दूर, उससे भी कोसों दूर तक पहुंच कर खुद को नराधम भी बना सकता है।

आप इन भीड़-तंत्र से अलग हट कर कुछ सोचना-करना चाहते हैं तो जाइये लाटूशरोड में सिंघल स्‍टोर्स के मालिक श्रीकृष्‍ण सिंघल से बातचीत कीजिए। खांटी बनिया हैं सिंघल जी, लेकिन ज्‍योतिष-विज्ञान में अप्रतिम अथॉरिटी हैं। दूर न जाना चाहें तो फिलॉसफी यानी दर्शन-तत्‍व के महारथी और जौनपुर के तिलकधारी स्‍नातकोत्‍तर महाविद्यालय (टीडी कॉलेज)  के पूर्व प्राचार्य प्रोफेसर अरूण कुमार सिंह से बातचीत कीजिए। फिर समझ में आयेगा कि दर्शन और दर्शन में क्‍या फर्क होता है। ईंट-सीमेंट-पत्‍थरों से बने मंदिर नुमा जेल-कारागारों में बंद प्रतिमाओं को आप देखना चाहते हैं, या फिर अपने अंतस-कलेजे-दिमाग में ऐसी दैवीय शक्तियों को देखना और आत्‍मसात करना चाहते हैं। माई डियर। गॉड इज नॉट फॉर टू सी। उसे समझना और व्‍याख्‍यायित कर उसे आत्‍मसात करना ही दर्शन है।

और सच कहूं तो, मैं खुद ही सबसे बड़ा बंदर हूं।

साक्षात महावीर बजरंगी।

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