: समाजवादी फाइव स्टार होटल के हाई-फाई इफ्तार ने सियासी मौलानाओं का रोजा भी कर दिया चौपट : मुल्ला-मोलवी अंधे, शरियत की हिदायतें नदारत : तो क्या पहले सरकारी पैसे के इफ्तार में बुलाये जाते थे हजारों कार्यकर्ता :
नवेद शिकोह
लखनऊ : रोजा इफ्तार एक मजहबी अनुष्ठान होने के साथ सोशल काज़ भी है। ऐसे आयोजन विभिन्न धर्मों, जातियों और फिरकों को एक प्लेटफार्म पर लाते हैं। ऐसे कार्यक्रमों में गरीब-अमीर, आम और खास में कोई अंतर भी नहीं होता। नफरत की राजनीति में यदि रोजा इफ्तार, होली मिलन और बड़े मंगल पर भंडारा जैसे कार्यक्रमों के बहाने जनमानस को एकत्र कर एकता की मिसाल से राजनीतिक स्वार्थ भी साधा जाये तो इस में कोई हर्ज नहीं। मजहबी प्लेटफार्म किसी भी मौके पर इंसान से इंसान को मोहब्बत से मिलने की मिलनसारी की इजाजत देता है।
राजनीतिक रोजा इफ्तार खास और आम, अमीर और गरीब, हिन्दू-मुसलमान, ब्राह्मण और यादव, शिया और सुन्नी, सांसद, विधायक और मामूली कार्यकर्ता को एक प्लेटफार्म पर ले आता है तो यहां राजनीतिक स्वार्थ भी बुरा नहीं हैं। क्योंकि नफरत और समाज को तोड़ने की राजनीति से तो एकता का स्वार्थ बेहतर ही है।
लेकिन अखिलेश जी आपका होटल ताज वाला हाइटेक रोजा इफ्तार मजहबी एतबार से भी गलत था। चुनिंदा सपा प्रभावशाली ओहदेदारों वाली इस इफ्तार पार्टी में आपकी पार्टी के हजारों गरीब कार्यकर्ताओं का दिल टूटा होगा। ये इस्लामी शरियत के भी खिलाफ है। फाइव स्टार होटल के बजाय ये इफ्तार पार्टी सपा पार्टी दफ्तर या किसी आम जगह आयोजित होता तो इसमें आम सैकड़ों – हजारों कार्यकर्ता और गरीब रोजदारों को बुला कर उन्हें इज्जत भी बख्श सकते थे और इसी बहाने उन्हें आपके करीब आने का मौका भी मिलता। रोजे और इफ्तार का आधार इस्लामी नजरिया भी यही कहता है। राजनीतिक परिपक्वता भी यही कहती है। समाजवाद के समता मूलक सिद्धांत भी यही कहते है।
दूसरी सब से अहम बात ये कि आपके राजनीतिक ग्लैमर में जो उलेमा/आपके खास मुसलमान और रोजदार आपकी इफ्तार पार्टी की दावत में आ गये उनका रोजा भी मकरू (शरियत के खिलाफ) हो गया। क्योंकि शरियत के नजरिए से फाइव स्टार होटल का मांसाहारी भोजन खाने की इजाजत नही है। क्योंकि इस होटलों का गोश्त झटके का कहा जाता है। झटके का मतलब जानवर को इस्लामी मानकों से ना काटना।
ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम, ना इधर के रहे ना उधर के रहे।