अयोध्‍या में बवाल, असल रामराज तो सिर्फ मिजोरम में है

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: सामान रखा है, उस पर कीमत दर्ज है। सामान उठाइये, भुगतान डिब्‍बे पर रख दीजिए। बस हो गया व्‍यवसाय : इस तरह की ईमानदारी के मामले तो पूरी दुनिया में यह अनोखा इलाका है मिजोरम : दुनिया में : सड़क के किनारे अपनी दूकान सजा कर पहाडि़यों में खेतों में जुट जाते हैं मिजोवासी :

राकेश तिवारी

आइजोल : अब देखिये न, कि हम आज मिजोरम आ पहुंचे हैं। बांस- नरकुल के झाड़ों और केले के घने वनों में से झांकते शाल, कटहल और दूसरे गाछ वाली घनी हरियाली से ढके पहाड़ों की ढलान पर जहाँ-तहाँ झूम खेती के लिए साफ़ किये गए पुराने हरे हो चले और पीले ताज़े खेतों के चप्पे। मछली पालने के लिए बांधे गए पोखरों के झिलमिल जल-तल। घूमती सड़क के उतार चढ़ाव पर चलते  दिखते दूर तक फैले नीले आकाश में तिरते चलते धवल धुँआरे बादल।

ऐडम, यानी मेरे साथी, सहचर। बस, यहीं आइजोल के ही रहने वाले हैं यह ऐडम। चलते-चलते, ऐडम से चिट-चैट करते बढ़ते जगह जगह सड़क के किनारे निरल्ले में पार्क की गयी मोटर साईकिलों के बारे में पूछताछ की, सहज जिज्ञासा। ऐडम ने बताया कि यह सारी बाइक बस यूं ही यहां नहीं पार्क की गयी हैं। बल्कि यह बाइकें आसपास के किसानों की हैं। इन्‍हें यहां खड़ी कर के खेतों में काम करने निकल गए हैं उनके मालिक, जो मूलत: किसान हैं, और ऊपर या नीचे वाले खेतों में काम करने गये हैं। शाम के धुंधलके में लौटेंगे तो इन पर सवार हो कर वापस अपने घर गांव चले जाएंगे।

इसी सिलसिले में ऐडम ने आगे चल कर अनोखी दूकानें दिखाने का ज़िक्र करते हुए ड्राईवर से मीज़ों भाषा में आगे उन ठिकानों पर रुकने को कहा। आगे, पहाड़ से आ रही पतली जलधार आगे टीन सटा कर बनाए गए पनाले के उस किनारे पर बांस की एक गुमटी दीखते ही हमारी गाड़ियों की कानवाई ठहर गयी। मगर हैरत यह कि वहाँ सुनसान में ना कोई आदमी दिखा, और ना ही कोई दूकानदार। गुमटी में दिखे कतार में धरे बोरों की कतार और करीने से सजी सब्ज़ियों पर लिखे उनके दाम, किसी पर रुपए २०, किसी पर १० रुपए। बीच के बांस से बाँध कर लटका दिखा प्लास्टिक का डिब्बा जिसके ढक्कन पर लंबा कटा छेद।

ऐडम ने बताया वहाँ लगी तख्ती पर लिखा है – रुकिए, कुछ ना कुछ खरीदिए और उनकी कीमत जोड़ कर डिब्बे के अन्दर डाल दीजिए।

हमारे साथ चल रहे इंटैक के कन्वेनर रोहिनथंगा, को कन्वेनर रिन संगा, गार्ड, ड्राइवर सबने वहाँ से कोई ना कोई मनचाही फल या सब्ज़ी उठा ली उनकी कीमत जोड़ी और उतनी रकम डब्बे के छेद में सरका दी।

ऐडम ने बताया इन गुमटियों में लगी खुली दूकान पर कोई नहीं बैठता, ना तो दुकानदारी के लिए और ना निगरानी के लिए। दूकान लगाने वाले खेतों में काम करने चले जाते हैं, दूकान को लोगों के ईमान के सहारे छोड़ कर, और, खरीददाार उनके विश्वास की आस बनाए रखने में कसर नहीं रखते। संझा ढले खेतों में काम काज निपटा कर लौटने वाले किसान अपनी दूकानों की आमदनी समेट कर आराम से अपने घर चले जाते हैं।

मीज़ोरम में रम रहे ऐसे ‘राम राज’ जैसे विधि-विधान कम से कम मैंने तो इसके पहले देश-विदेश में कहीं नहीं देखे।

( लेखक राकेश तिवारी भारतीय पुरातत्‍व सर्वेक्षण के महानिदेशक और उप्र पुरातत्‍व विभाग के निदेशक भी रह चुके हैं। अपनी नौकरी के सिलसिले में अधिकांश दुनिया को बांच चुके राकेश तिवारी किन-किन विधाओं में माहिर हैं, शायद इसका अहसास खुद राकेश तिवारी को भी नहीं। प्रस्‍तुत यात्रा-वृतांत उनके पूर्वोत्‍तर भारत के भ्रमण के दौरान अनुभूतियों पर केंद्रित है। )


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