टूटता है आत्म-रति का आवेग, गालियां देते हैं आभासी दुनिया को

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: तस्वीरों पर जान देने की बीमारी अधिकांश अधेड़ पुरूषों में जानलेवा : वर्चुअल मोहब्बत बनाम रियल दुख, हाय मोर अल्ला : सवाल तो यह है कि हम रियल-वर्चुअल पर एकांगी चर्चा क्यों करें? : फेसबुक पर संवेदनाओं-भावनाओं के “प्रेम-व्यवसाय” पर श्रंखला– एक :

कुमार सौवीर

लखनऊ : जीवन्त दुनिया या आभासी दुनिया के बीच फर्क तो सिर्फ एक होता है, जिसे हम अपने एकांगी लहजे में देखते-समझते और मानते रहते हैं। वह है मोहब्बत का जल्दी-जल्दी टूट जाना। लेकिन इसके बाद हिचकियां-रूदन नहीं, बल्कि तत्काल किसी और से जुड़ जाना। आभासी दुनिया मे विचरण करने वालों का यही तो है मजेदार पक्ष। रियल जिन्दगी में जहां लोग बरसों-दशकों तक आहें भरा करते थे, आंसू बहाया करते थे, गीत लिखा करते थे, वह अब वर्चुअल जिन्दगी में कहां बचा ? अगर हां, बचा भी है तो वह है क्षणिक भाव, भले वह मोहब्बत हो या फिर उसका वियोग। इस हालत को आप केवल इसी मंत्र से समझ सकते हैं कि टूटता तो है आत्म-रति का आवेग, जबकि इसमें आहत लोग पानी पी-पी कर गरियाते हैं आभासी दुनिया को।

कम्माल है यार।

मेरी एक मित्र हैं डॉक्टर राजदुलारी बोकारो की रहने वाली जहीन, शिक्षित, तार्किक, जिज्ञासु, शालीन और सरल शिक्षिका हैं। जान-पहचान फेसबुक से ही हुई। सवाल खूब पूछती हैं। हाल ही उन्होंने एक सवाल उठा दिया। लिखा:- ” फेसबुक की दुनिया, क्या आभासी है ? यदि हाँ तो कैसे ? यदि ना तो कैसे ? ”  मैं हमेशा अपने किसी भी मित्र के हर सवाल का जवाब खोजने की कोशिश करता हूं। तो इस बार भी मैंने डॉक्टर राजदुलारी के सवाल पर ऐसी ही प्रतिक्रिया प्रदर्शित की।

रियल यानी जीवन्त, अर्थात जाहिर दुनिया में हम व्यक्ति को देखते, बतियाते हैं। उसे छू सकते हैं, उससे समझने की कोशिश करते हैं। उसे देख कर अपनाते हैं या फिर बिदक जाते हैं। खुशनसीबी और बदनसीबी देखते-मानते हैं। यह सायास भी करते हैं और अनायास भी। अब इसे कुछ इस तरह देखने की कोशिश कीजिए कि चूंकि आपको मेरी शक्ल पसंद नहीं होती है, इसलिए आप मुझे अपनी जिन्दगी से निकाल बाहर कर देते हैं। यह जाने बिना कि मैं वाकई गलत या घृणित ही हूं। और चूंकि किसी की शक्ल आपको बहुत पसंद हो जाती है, इसलिए हम उस पर मर-मिट जाते हैं। यह जाने बिना कि उसके भीतर कोई दीगर जीवन-योग्य गुण हैं भी या नहीं। यानी हम अचानक किसी को अपनाने या खारिज करने के उपक्रम में ही जुटे रहते हैं।

यह हम बेईमानी करते है और करते ही रहते हैं। हमेशा।

जबकि आभासी जगत में आप केवल कल्पनाएं करते हैं कि फलां ऐसा होगा, ढमाका ऐसा नहीं होगा। हम आपकी वाल पर लगायी आपकी प्रोफाइल फोटो पर देखते ही हृदय में उमंग की लहरें महसूस करने लगते हैं। हम स्त्री हैं तो शाहरूख-आमिर को अपने पहलू में महसूस करना शुरू लेते हैं, जबकि अगर हम पुरूष हैं तो हमें काजोल-करीना-मातोडकर की यादों में अपना तकिया गीला किया करते हैं। आहें भरते हैं। यह जाने-पहचाने-देखे हुए कि वह फोटो वाकई वही है जो किसी दूसरे की। वास्तविकता में वह कौन कैसा है। धत्त। कल्पनाओं के सागर में खुद की भावनाओं की किश्ती को बेमतलब डाल देते हैं। आनंद लेते हैं, भाव-विभोर हो जाते हैं। आवेग बहुत भड़क गये, तो फोन पर बात हो जाती है। आमतौर पर रात के वक्त ऐसे आवेग ज्यादा आवेश में आते हैं। कारण होता है शारीरिक उद्वेग की सुनामी का संवेगों की चट्टानों से अचानक दरक-खिसक जाना।

वह चाहे नर हो या फिर मादा, मानव तन की लैबोरेट्री में पसरे रसायनों में प्रतिक्रियाएं उस वक्त सबसे ज्यादा सक्रिय होती हैं। फिर एक उमंग उठती है गहरे भीतर से। और फिर जल्दी ही हजारों समुद्री-मील की दूरी नाप कर जब धरती पर आती है तो हम पाते हैं हम अनजाने रिश्तों में बंध गये। चाहे वह शारीरिक उद्वेग हो या फिर मां, भाई, बेटा अथवा बहन-बेटी का। अटूट होने की शुरूआत हो जाती है। लेकिन इसके बावजूद पिछले कुछ वर्षों में कई ऐसी युवतियां आयी हैं मेरे जीवन में जिन्होंने मेरी जिन्दगी को अलग-अलग तरीके से संजोया, बनाया, संवारा। हां, कुछ ने तो तोड़ा भी, छिन्न–भिन्न भी किया। चकनाचूर भी किया। ( प्रतिदिन क्रमश:)

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