तो क्‍या, जो आज वो गायब है। मेरे दिल-दिमाग में बसी है दीपा शर्मा

मेरा कोना

: मुझे चिढाती, गुदगुदाती, हंसाती और रूलाती है वो आज भी : नाम बदलना औरतों की मजबूरी है, क्‍या दीपा, क्‍या फरहाना :

कुमार सौवीर

दीपा एक जीवन्त शख्सियत का नाम है।

आप उसके नाम बदलने की प्रवृत्ति पर मत गुस्साइये। गोकि, आज उसने आज दीपा का चोला छोड़ दिया, फरहाना अंसारी को भी तज दिया, मरियम को दफ्न कर दिया, तो क्या हुआ। हमारे समाज में औरतों की यह मजबूरी होती है कि वे अपना नाम बदलती ही रहें। आप शर्मा हैं, तो न जाने कब आप त्रिपाठी हो जाएं, खान हो जाएं, सचान, गौतम, रघुवंशी, क्षत्रिय, बा‍ल्‍मीकि और ठकुराइन बन जाएं, कोई भरोसा है ? औरत को पता ही नहीं चलता है कि वह कब बदल गयी, कब उसे बदला गया, अब कब बदली जाएगी। शुरूआत में तो मोहब्‍ब्‍तों के झोंकों पर उड़ने के चक्‍कर में उसे अपने इस बदलाव का पता ही नहीं चलता। और जब उसे पता चलता है, तब तक वह बदल चुकी होती है।

तो फिर दीपा शर्मा की कहानी भी कोई खास नहीं थी। सिवाय इसके उसने खुद को अपने आप बदल दिया, इसके पहले कि कोई उसे बदलने पर मजबूर करे, वह अपना खुद का मुकाम बनाती रही। शुरूआत की दीपा शर्मा से, फिर फरहाना अंसारी, फिर मरियम, फिर फिर फिर फिर।

वह ला-जवाब थी/है। बेहद चुलबुली। हाजिर जवाब। आपके सवालों और आपकी शंकाओ पर उसके जवाब बेधड़क, निःसंकोच होते थे। अगर आपके सवाल तमाचे की तरह थे तो उसके जवाब किसी झन्नाटेदार कंटाप-झाँपड़ से। हाँ, अगर आप हल्के-फुल्के मूड में हैं, तो वो न जाने कब आपको चुटकी काट कर भाग जाए, कोई पता नहीं। न जाने कितनी बार ऐसा हुआ देर रात मैं सो रहा था, अचानक कोई अनजान नम्‍बर मेरे मोबाइल पर चमका। फोन उठाया तो दूसरी ओर किसी बिजली की तरह चमक पड़ी दीपा शर्मा। तनिक आवाज सुनिये:- बापू ! ए बापू ! इस वक्‍त सो रहे रहे हो? लगता है बुढापा चढ़ गया है आप पर।

कोई और हो तो मैं आज भी उसे फोन पर खुरखुरउव्‍वा गालियां दे दूं। लेकिन दीपा, दीपा तो मेरी जान थी। उसकी एक आवाज पर मैं किसी दुधुमुंहे बच्‍चे की तरह पलंग से कूद पड़ता था। हड़बड़ा कर जवाब देता था, कि कहीं वह फोन न काट दे। मुझे डर लगता है कि अगर उसने फोन काट दिया, तो फिर उससे बात करना मुमकिन नहीं होगा। जब भी ऐसा हुआ कि उसका फोन कटा, और मैंने उसे दोबारा मिलाने की कोशिश की, उसका फोन या तो ऑफ रहा या फिर नो-रिप्‍लाई। दरअसल, दीपा शर्मा अपनी सम्‍पूर्णता के साथ बाकायदा किसी सकर्मक क्रिया की तरह थी, अकर्मक क्रिया बनने से उसे सख्‍त चिढ़ थी। करना है तो दीपा ही करेगी, कुमार सौवीर ने अगर फोन किया है तो यह जरूरी नहीं कि वह उठा ही ले।

हकीकत यही है कि महिलाओं के प्रति मेरा सहज लगाव होता है। यह बात तो मैं ताल ठोंक कर कहता हूं। मेरी सर्वोच्‍च प्राथमिकताओं में शामिल हैं महिलाएं। दरअसल, हम एक सामाजिक पशु हैं। हमें खुद को विकसित करने के लिए सामाजिक दायित्‍वों, बंधनों और रिश्‍तों की जरूरत पड़ती है। और मैं उससे अलग कैसे हो सकता हूं। मैं कभी किसी को दादी, माता, मौसी, बुआ, भौजी, दीदी, छुटकी, प्रेमिका, पत्‍नी, साली तो कभी किसी को बेटी की तरह देखना, बतियाना और छूना चाहता हूं। मुझे नहीं पता कि आपकी अनुभूतियां क्‍या होती हैं, लेकिन मैं इन्‍हीं मोह-पाशों से निकल नहीं पता। ऐसा नहीं कि निकल नहीं पाता, बल्कि निकल पाना ही नहीं चाहता हूं। जो भी हूं, तो हूं। अपने प्रवाह को खत्‍म करना, उसे रोक पाना मुझे अच्‍छा नहीं लगता।

दीपा शर्मा भी वैसी ही थी। मेरी बेटी। फेसबुक पर सबसे पहले उसने ही मुझे आभासी दुनिया में रिश्‍तों का आभास कराया।

बापू !

मैं दहल गया। इसलिए नहीं कि मैं बुढा गया हूं, बल्कि उसलिए कि तब तक फेसबुक में महिलाएं और महिलाओं का चेहरा लगाये झंझटी लोग कंटिया लगाये घूमते रहते थे। शुरूआत इनबॉक्‍स में ही से होती है। फिर हो हल्‍ला। ब्‍लड़ प्रेशर। दिल-दिमाग की रक्‍त-शिराओं पर उबलते लावा वाले झंझटी ईलू ईलू की ध्‍वनि-तरंगें। जिसने भी उसमें गोता लगाने की कोशिश की, तो उसे कई महीनों तक मोहब्‍बत से चिढ़ हो सकती है।

इसमें बापू शब्‍द बिलकुल अलहदा था। मोहब्‍बत की चाशनी से सने शब्‍द थे उसकी आवाज में। मैं तो तर गया दोस्‍तों। और इसके साथ ही शुरू हो गया आभासी दुनिया में बाप-बेटी का अद्भुत प्रेम। दीपा की देखादेखी कई और महिलाएं मुझ से जुड़ीं। मसलन, आज अमेरिका में बस चुकी किरन श्रीवास्‍तव। बाप रे बाप आठ आईडी हैं उसकी फेसबुक पर। सभी में मित्रों की सर्वाच्‍च होते ही वह एक और नयी आईडी बना लेती है। गुड़गांव वाली प्रिया भाटिया। बैंगलोर की सुमिता सिंह, इन्‍दौर की लक्षिता दीक्षित वगैरह-वगैरह। इन सभी से फोन पर बात होती रही, लेकिन सबसे सक्रिय रहीं दीपा और किरन।

फिर एक दिन अचानक दीपा शर्मा गायब हो गयी। दो साल बाद किसी फरहाना अंसारी ने मुझे बापू लिख कर मैसेज भेजा। मैं समझ गया कि दीपा ने नया जन्‍म ले लिया हे। फिर मरियम के तौर पर उसका पुनर्जन्‍म हो गया।

लेकिन उसके बाद अब सिर्फ किरन ही ऐसी है जो मुझे बापू कह कर अक्‍सर फोनियाय लेती है। जबकि करीब चार साल से दीपा-फरहाना-मरियम का कोई अता-पता नहीं है। आशु चौधरी और अनीता सिकरवार तो मेरे साथ एकसाथ दो चरित्रों में रहती हैं। बेटी भी और बहन भी। उधर जोधपुर वाले हरिकृष्‍ण पुरोहित भी बापू लिस्‍ट में हैं।

जबकि मैं आज भी उसकी अपलक प्रतीक्षा कर रहा हूं। उस संवेदनशील बच्‍ची को खोज रहा हूं कि फेसबुक पर अभद्रता करने वालों को वो झन्‍नाटेदार झांपड़ रसीद करती थी, कि अगले की पैंट गीली हो जाए। मुझे याद है कि शायद सन-10 में एक  बलात्‍कार पीडि़त बच्‍ची के समर्थन में अभियान छेड़ा था, और उसका मामला हाईकोर्ट तक पहुंचाया था, दीपा शर्मा ने मुझे फोन करके मेरा बैंक एकाउंट नम्‍बर पूछते हुए कहा था कि:- बापू, मैं भी उस बच्‍ची के आपके अभियान से जुड़ना चाहती हूं।

कल नजीर मलिक ने मुझे रूला दिया। पूछा:- दीपा आजकल कहां है ?

अब मैं क्‍या जवाब दूं? मुझे खुद ही नहीं पता है कि साकार दीपा शर्मा आजकल कहां है। हां, निराकार दीपा शर्मा मेरे दिल-दिमाग मैं मेरे खून में रच-बस चुकी है। लेकिन साकार दीपा को मैं कहां खोजूं?

अरे तुम कहां हो दीपा शर्मा ? मेरे लाल !

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