फेसबुक किसी भी इंसान को बच्चा बना डालता है, जिद्दी बच्चा

मेरा कोना

: दूसरों को छोडि़ये, मुझे खुद बेइंतिहा पसंद है महिलाओं से खूब बतियाना : ज्‍यादा अवसर होने के चलते हम में आवेग ज्यादा उमड़ते हैं फेसबुक से : हमारे ही आवेग, उद्रेग और संवेदनाओं का फास्ट‍फूड है फेसबुक : कमाल है फेसबुक पर संवेदनाओं-भावनाओं का व्यवसाय। श्रंखला– चार :

कुमार सौवीर

लखनऊ : फेसबुक पर मोहब्बत ! गजब का सैलाब होता है। लेकिन जरा गौर से देखिये दोस्त । क्या आपको नहीं लगता है कि यह एक सहज, स्वाभाविक, जीवन्त और सक्रिय, सकारात्मक तरंग होती है। मान लिया कि उसमें टूटन के अवसर ज्यादा होते हैं, लेकिन इसके बावजूद क्या बाकी तत्वों को हम खारिज कर सकते हैं, शायद नहीं।

यह आत्म-रति की प्रक्रिया होती है, मेरे दोस्तों। लेकिन अगर ऐसा होता भी है तो इसमें कोई गलत बात नहीं। अरे यह बिलकुल सहज और सामान्य होता है। चाहे हम जाहिर दुनिया में हो या फिर आभासी जगत में।

मगर चाहे वह जीवन्त दुनिया हो अथवा आभासी दुनिया, दोनों में भी ठीक यही होता है। ठीक वही भाव, वही कल्पनाएं, वही छुअन, वही पाने की खुशी, वही खोने का दुख, वही स्पर्श का आनन्द, वही रोष की काली घटायें, वही शिखर, वही स्खलन। लेकिन यह तो यकीनन हद है यार। जी हां, आप यह कह सकते हैं। लेकिन जो कुछ भी होता है वह इसलिए होता है कि हम ऐसा चाहते हैं। हम डूब जाते हैं अपनी भावनाओं में। आप खुद देखिये। है कि नहीं ?

छोडि़ये, आपसे नहीं, खुद के बारे में कहना चाहता हूं। कई महिलाएं ऐसी हैं, जिनसे बात करना मुझे बेहद और बेइंतिहा पसंद है। उनका फोन अगर नियम से नहीं आये तो दिल धड़कने लगता है। लम्बे वक्त तक कोई फोन न करे तो जी बिलकुल धड़ाम हो जाता है। उसका बतियाना, बोलना, हंसना, कहना, सब पसंद होता है। और जब वह शख्स अचानक हमें कोई ठेस दे देता है तो हम टूट जाते हैं। बिना उसे जाने-पहचाने-परखे हुए। बिना यह जाने कि वह शख्स वाकई ऐसा है भी या नहीं।

क्यों, इसलिए कि हम मूलत: एक बच्चा होते हैं। हमें पाने की ललक होती है, हासिल करने की ख्वाहिश होती है, खोने का दर्द होता है, न मिलने की छटपटाहट होती है। यही तो इंसानियत है। हां, आप चाहें तो उसे मोहब्बत का नाम दे दीजिए। लेकिन है यह भाव केवल प्राणी में ही है, ऐसा भी नहीं। चुम्बक तक आपको यही भाव महसूस करवा देता है। गुरूत्वाकर्षण की थ्योरम तो आपको खूब पता होगी ही, मैं तो एक जाहिल-अनपढ़ आदमी हूं। सिर्फ बकबक करता हूं। सपाट शब्दों में कहिये तो निरा चूतिया हूं मैं।

खैर, अब देखिये फर्क। जब तक हमें आभासी दुनिया के लोग पसंद आते हैं, हम उसमें डूबे रहते हैं। लेकिन जरा सी भी ठेस होते ही हम खुद को दोषी मानने के बजाय, केवल आभासी दुनिया के खिलाफ सतुआ-पिसान लेकर चढ़ जाते हैं। लेकिन कुछ क्षणों के तनाव नुमा विश्राम के बाद फिर से हमें कोई न कोई शख्सी, मसला, मुद्दा, जीवन, लहर, झोंका दिख जाता है और तब हम फिर उसी मृग-तृष्णार की ओर लपक जाते हैं। खास बात यह है कि कभी-कभी यही मृगतृष्णाह का काल्पीनिक मृग हमेशा हमारे पास आ जाता है। साकार होकर। लेकिन ऐसा कम ही होता है।

दोस्तो, ऐसा क्यों करते हैं हम लोग ? सिर्फ इतना कहूंगा कि चाहे वह जीवन्त दुनिया हो अथवा आभासी, ऐसे सम्बन्धों का आधार केवल अनुभूतियों का प्रश्न नहीं, हार्दिक और मानसिक संतोष का व्यवसाय है।

अब आप बताइये, क्या मैं गलत कह रहा हूं?

लेकिन अन्त में मैं इस सवाल के मूल प्रश्न पर आना पसंद करूंगा, जिसकी शुरूआत डॉक्टर राजदुलारी ने की। सच बात तो यह है कि मैं इस पूरी लेख श्रंखला के लिए डॉक्टर राजदुलारी का हृदय से आभारी हूं।

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