हम औरतों का तो कोई त्‍योहार तो होता नहीं है न, इसलिए

सैड सांग

: अब तो हर्गिज नहीं लगता है कि दो संस्‍कृतियों का सम्‍मेलन कराती है औरत : सच तो यही है कि त्‍योहार का आनन्‍द तो केवल पुरूष ही लेते हैं : त्‍योहार का मतलब औरतों के जिम्‍मे और ज्‍यादा भारी जिम्‍मा : जिन्‍दगी तो केवल रसाई तक सिमट जाती है औरतों की :

कुमार सौवीर

लखनऊ : आज मेरे पास दो किस्‍से हैं। और उसके बाद तीसरा अनुभव। मेरी निजी राय, जो अब शिद्दत के साथ समाधान चाहती है।

अब आप पर निर्भर करता है कि आप उसमें मजा-आनन्‍द लेते हैं, या फिर….. ?

मेरी एक महिला मित्र हैं। बेहद शोख, तेज-तर्रार, बुद्धिमान और बेहद पढ़ी-लिखी भी। सोचने का अंदाज बिलकुल नया-अलहदा। आप उन्‍हें क्रांतिकारी भी कह सकते हैं। नाम है डॉ कान्ति शिखा।

कई दिनों से जब उनसे बात नहीं हो पायी तो मैंने उन्‍हें खटखटाया। मेरा अन्‍दाज हमेशा की तरह बेहद आत्‍मीय और खुला हुआ। मैंने शिकायती लहजे में मजाक करते हुए कहा:- “आप तो ईद का चांद होती जा रही हैं। जरा हम जैसे के प्रति भी तो आपका कोई उत्‍तरदायित्‍व है भी, या नहीं?”

जो जवाब मिला, मैं शर्म से गड गया। उनके शब्‍द सुनिये:- “जी, आज ही तो थोडा फ्री हुई हूं। दरअसल, हम इन औरतों का तो कोई त्‍योहार होता नहीं है। हर त्‍योहार बस किचन-त्‍योहार ही होता है। जो कुछ भी है, किचन और घर। बस्‍स्‍स्‍स्‍स्‍स। जो कुछ भी है, उसके अन्‍दर ही है। इससे बाहर कुछ भी नहीं है। इससे इतर कोई गुंजाइश आने का सुराख तक नहीं।”

अभी यह बात हो ही रही थी कि अचानक नागरिक जी पधार पडे। बाद बिस्‍कुट-कॉफी के, जब वे असंयत ही दिखे तो वजह मैंने पूछ लिया। बोले:- “नरसों की बात है। डुमरियागंज में मेरे गांव में ही एक परिवार की बहू ने आत्‍मदाह कर लिया। उसकी मौत से ज्‍यादा आहत तो मैं उसके कारण को लेकर व्‍यथित हूं। कोई डेढ साल पहले ही वह ब्‍याह होकर हमारे गांव आयी थीं। घर के बाहर बहुत कम ही लोगों ने उसे देखा है। पता चला कि नरसो दोपहर वे मोबाइल पर किसी से बात कर रही थी, अचानक उसके पति ने पूछ लिया कि किससे बात कर रही हो। उस युवती ने कोई भी जवाब नहीं दिया, तो हंगामा खडा हो गया। बात शक-शुबहा और लांछनों की बौछारों तक पहुंच गयी।

अचानक वह बहू रसोईघर में गयी और वहां रखा मिट्टी के तेल की पिपिया खुद पर उड़ेला और आग लगा दी। अब पूरा घर उसे बचाने दौडा, लेकिन सिद्धार्थ नगर जिला अस्‍पताल पहुंचने तक उसने दम तोड़ दिया।”

अब तीसरी बात मेरी भी सुन लीजिए। जब हम बहुत स्‍नेह-लाड-प्‍यार-अपनत्‍व और सामाजिक दायित्‍वबोध के बोझ से दब जाते हैं तो सीधे कह देते हैं कि औरतें तो संस्‍कृति का पौधा होता है। जहां भी रोपा जाएगा, वहां एक अनोखी संस्‍कृति का बीजारोपण करेगी। मायके और ससुराल की संस्‍कृतियों का सम्‍मेलन करायेगी।

लेकिन सवाल यह कि आखिर कैसे? चलो, मान लिया कि औरत इंसान नहीं, बल्कि पौधा है। लेकिन उसे स्‍वतंत्र रूप से खुद को पनपने-पुष्पित-पल्‍लवित करने का मौका भी तो मुहैया कराओ। वरना फल मिलना तो दूर, ऐसे हादसे ही ऐसे कृशकाय पौधे पर लदते रहेंगे।

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