“झुलनी का रंग सांचा हमार पिया” वाले चंद्रशेखर सुपरहिट हो गये

मेरा कोना

पति को प्रेम की सचाई बताती पत्नी की गवाही है यह गीत

: लीजेंड्स ऑफ बनारस ( चार ) : 40 बरसों से यह गीत देश-विदेश के भोजपुरियों की जुबान पर चढा है : कुंवर सिंह पर पहले महाकाव्य ने दिशा ही बदल दी, हाथोंहाथ लिये गये : खुद दसवें दर्जे तक पढे मिश्र की किताब कई यूनिवर्सिटी में शामिल हुईं : पूरी जिन्दगी गरीबी से ही रिश्तेदारी करता रहा यह अमीर गीतकार :

वाराणसी। तनिक कल्पना कीजिए कि भोजपुरी का एक लोकगीत पाश्चात्य यानी वेस्टर्न जीवन शैली वाले देश मारिशस तक में बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ जाए, शादी-शगुन के अवसरों पर गाया जाने लगे और बिहार के भोजपुर से लेकर देश के अधिकांश क्षेत्रों तक में धूम मचा रहा हो। खास बात तो यह है कि यह हालत एक-आध महीने या साल-दो साल की नहीं है। पिछले करीब चालीस बरसों से यह गाना भोजपुरी के साथ ही हिंदीभाषी क्षेत्रों में भी लोकप्रियता की हर सीढियां चढ चुका है। जी हां, यहां बात हो रही है उस गीत की, जिसके बोल हैं:- “ झुलनी का रंग सांचा, हमार पिया…। ” क्यों कैसी रही ?

है न इस गीत में वह दम, जो किसी को भी रास्ता चलते झूमने पर मजबूर कर दे। आखिर हो भी क्यों न। यह गीत उस गीतकार ने लिखा है जिसकी कविताओं ने भोजपुरी के केंद्र आरा ही नहीं, सात समंदर पार तक अपना डंका बजा रखा है। नाम है, क्षमा करें, नाम था चंद्रशेखर मिश्र और उम्र है, क्षमा करें उम्र थी 80 वर्ष। “है” को “था” तक से बदलने में अभी खासा वक्ता नहीं खिसक पाया है। अभी कुछ ही दिन-बरस ही तो हुए हैं चंद्रशेखर मिश्र से बातचीत हुए। पुष्कर-कुण्डल के पास वाली संकरी गली वाले मकान में परिचय पाने के बाद मिश्र जी को समय लग गया कि वे कैसे उस छोटे कमरे में किस जगह बिठायें। निदान एक तिपाई पर मैंने आसन खोल लिया और फिर दर्शन किया एक शख्सियत का, जो सरलता का प्रतीक था।

दरअसल, जब भदैनी वाले सुशील त्रिपाठी ने मुझे मिश्रजी के घर का पता बताया था, उसे से मुझे पहले ही अंदाजा लग गया था। हैरत की बात है कि यह गीत मैं तो बचपन से सुनता रहा हूं। लोकगीत मसलन, कजरी, सोहर, कहरवा जैसा ही। कई बार मैंने इसके गीतकार के बारे में पूछना चाहा, तो हर शख्स ने यही बताया कि यह लोकगीत ही है और इसके चलते किसी का नाम अनाम यानी अज्ञात ही होता है। लेकिन जब मैंने इस पहेली को बूझ ही लिया तो सुशील त्रिपाठी ने मोहर लगा दी कि यह गीत चंद्रशेखर मिश्र का ही लिखा हुआ है।

लेकिन इतना बड़ा कवि इतनी सादगी से अपना जीवन व्यतीत कर रहा होगा, मुझे सपने में भी यकीन नहीं रहा। मुझे चाय पिलाने और उसके लिए दूध-चीनी मंगवाने के लिए उन्होंने जितना परिश्रम जेबों को टटोलने में किया, मैं तो “नरभसाय” ही गया। उनके निधन के बाद भी मैं इस साक्षात्कार को “है” के बजाय  “था” में कर पाने की हैसियत नहीं जुटा पा रहा हूं।

मुझे  नाटकों में जो हैसियत बिहारी ठाकुर की है, भोजपुरी कविता में चंद्रशेखर मिश्र की हैसियत भी कमतर नहीं। अस्सी निवासी चंद्रशेखर मिश्र आज भी भोजपुरी गीतों पर ही निर्भर है और भोजपुरी गीत उन पर। इस सुपरहिट गीत के रचनाकार की पूरी जिन्दगी वाराणसी में बीती है। श्री मिश्र ने अपना पूरा जीवन कविता को दिया और कविता में भी खास तौर पर भोजपुरी कविता को। पूरा का पूरा जीवन ही कविता को समर्पित कर देने का हौसला तो खैर श्री मिश्र में बचपन से ही था। और यही कारण है कि भोजपुरी में पहला महाकाव्य लिखने वाले श्री मिश्र के लिखे भोजपुरी की कविताएं कई विश्वविद्यालयों में बाकायदा पाठ्यपुस्तक के तौर पर पढाई जा रही हैं। खास बात यह कि श्री मिश्र खुद दसवीं तक ही पढे हैं।

मिर्जापुर के पास उन्हीं के खानदान के नाम पर एक गांव है मिश्रधाप। वहीं चील्ह के निकट है यह गांव। लखनऊ के काकोरी कांड के अभियुक्तों को फांसी पर चढाये जाने के क्रोध में सन 1929 का दौर उबल रहा था। इसी दौर में इस गांव में श्री मिश्र का सन-29 की 7 जुलाई को जन्म हुआ था। बहरहाल, चंद्रशेखर का लालन-पालन करने के लिए उनके मामा उन्हें अपने साथ बनारस के रोहटा गांव में ले आये। यह गांव आज भदोही के पास है। यहीं से दसवीं कक्षा पास की, मगर अन्त्याक्षरी का शौक बचपन से ही था। टीम के साथ ही यह खेल होता था, लेकिन चंद्रशेखर की खासियत यह थी कि टीम के हारने की हालत में यह खुद ही आशु-कविता बना कर कविता पढ़ लेते थे। जाहिर है, कभी भी नहीं हारे।

उधर भोजपुरी बोली की कशिका इकाई के चलते वाराणसी में भी सन-1857 की गदर के अप्रतिम नायक कुंवर सिंह की शहादत को बच्चा-बच्चा याद रखे था। वीर सावरकर ने भी अपनी एक किताब में कुंवर सिंह पर एक पूरा अध्याय लिख दिया था। सुना पहले से थे, इसलिए पढते ही श्रद्धाभाव कुछ यूं जागा कि कुंवर सिंह का पूरा इतिहास ही छान मारा। लिखने बैठे, तो काव्य की धारा बह चली। प्रवाह कुछ यूं निकला कि सन-58 तक बाकायदा एक महाकाव्य ही बन गया। बिना लाग-लपेट के इस महाकाव्य का नाम रख दिया नायक के नाम पर- कुंवर सिंह।

इसके बाद सन्नाटा ही रहा। मगर तब तक कविताएं लिखने का शौक जीवन का मकसद बन चुका था। सो, भोजपुरी में सामान्य गीत लिखने के साथ ही साथ वे महाभारत की केंद्र रही द्रौपदी और फिर रामायण की नायिका सीता पर भी महाकाव्य लिख गये। अब तक उनके गीत भोजपुरी लोगों की जुबान पर चढ चुके थे। अचानक ही जैसे समय ने पलटा खाया और डाक्टर सम्पूर्णानंद ने उनके इस महाकाव्य कुंवर सिंह पर भूमिका लिख दी। छपते ही तहलका मचा। आरा सहित कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम तक में शामिल हो गया। श्री मिश्र चल निकले।

अभी यह हो ही रहा था कि अचानक एक धमाका और हो गया। एक गीत ऐसा सुपरहिट हुआ, कि बनारस, पूर्वांचल, बिहार, देश ही नहीं, दुनिया के कई देशों का मन डोल गया। गीत के बोल थे:- झुलनी का रंग सांचा हमार पिया। पति को अपनी निष्ठा का विश्वास दिलाती महिला का यह गीत देश में तत्काल लोकप्रिय होकर उन देशों की जड़ों तक भी पहुंच गया, जिनकी जड़ें भोजपुरी में हैं। इसके बाद भीष्म पितामह पर भीखम बाबा के नाम से भी महाकाव्य लिखा।

लेकिन आज भोजपुरी गीतों के शिखर पर सवार श्री मिश्र ने तब कई दिन केवल गुड़ खाकर ही बिताये हैं। आर्थिक तंगी से तो जैसे उनके जन्म-जन्म का नाता है। मगर बातों में बेहद शाहंशाह हैं। उनका कहना है कि आज कुंवर सिंह जैसे लोगों का दौर कहां बच गया है। वे तो गुलाम भारत को आजाद कराने आये थे। आज तो हमारे देश को कलाम जैसे महान लोगों की जरूरत है जो देश को ऊंचाइयों तक ले जाए। लेकिन हालत तो बिगड़ी ही है। जरूरत है कि हर पहरेदार जागे। लेकिन हैरत कि सारे पहरेदार सो रहे हैं और कुत्ते भूंक रहे हैं। ( चित्र परिचय:- पत्‍नी के साथ चंद्रशेखर मिश्र )

इस सीरीज को पढ़ने के लिए कृपया क्लिक करें:- लीजेंड्स ऑफ बनारस

 

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