मुझे हर रिश्‍ते चाहिए, केवल औरत का घुमाव-कटावदार शरीर नहीं

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: बुर्का-घूंघट विरोधी अभियान अगर सिर्फ पुरूष-लोलुपता है, तो सॉरी : कुदरत के नियम को कैसे बदल सकते हैं आप, ऐसा मत कहिये मोहतरमा : मैं सम्‍पूर्ण पुरूष हूं। मां, बहन, बेटी से रिश्‍ते भी चाहिए, और प्रेमिका भी :

कुमार सौवीर

लखनऊ : हां, मैं बुर्के-घूंघट का विरोध करता हूं। लेकिन इसलिए नहीं कि मैं औरत को सिर्फ एक ऐसे घुमावदार, कटावदार माँस के लोथड़े के रूप में ही देखना चाहता हूं, जिसे देखकर कई लोलुप पुरूषों का खोखला और कमजोर ईमान धरम सब भाप बनकर उड़ जाता है। 

मेरी एक अजीज और प्‍यारी दोस्‍त हैं डॉक्टर कान्ति शिखा। आप सभी लोग जानते हैं उनको। मगर वे हमेशा आक्रमण पर आमादा रहती हैं, बिलकुल हमलावर। पुरूषों को फाड़ डालने की दुर्गा माता जी की सी शैली में। एक पोस्‍ट में उन्‍होंने बताया कि, “पुरूषों को पानी पी-पीकर गरियाया और पुरूष की लोलुपता के सारे कपड़ों को नंगा करने की कोशिश की। लिखा है कि महिलाओं के कपड़ों और खासकर बुर्का-घूंघट का विरोध केवल ऐसे कुत्सित मनोविकार के चलते चल रहा है।” उनका तर्क है कि, “बुर्का-घूंघट का विरोध करने वाले लोग औरत को इंसान नहीं समझते ये। बिना बुर्के की औरत इन्हें नंगी या फिर बिकनी में दिखती है….!”

ऐसा मत कहिये डॉक्टर साहब।

मैं मानता हूं कि मर्द होने के चलते मैं भी स्‍त्री के शारीरिक गुणों, उसके कटाव व घुमावदार मोड़ों को देखना-निहारना चाहता हूं। मैं भी औरत की घुमावदार और कटावदार मांसल बुनावट पर आकर्षित हो सकता हूं। हो सकता ही नहीं, शर्तिया आकर्षित होता भी हूं। लेकिन हर आकर्षण केवल अपने उसी अंतिम अंजाम तक पहुंचा दिया जाए, ऐसे तो हर्गिज नहीं है। मैं केवल फिल्‍म, शिक्षा, लेखन और सामाजिक आदि क्षेत्र में काम कर रही महिलाओं को पसंद करता हूं, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि यह सब की सब मेरी अंकशायनी ही बन जाएं?

लेकिन केवल यहीं तक सीमित नहीं हूं मोहतरमा। मैं मर्द हूं और सम्‍पूर्ण मर्द हूं, इसलिए मुझे हर औरत का शरीर भोगने के लिए ही नहीं, बल्कि उसके तमाम आयामों में देखने, महसूस करने, प्‍यार करने, समर्पित होने के लिए भी चाहिए। मसलन, मुझे दादी भी चाहिए, मां-मौसी-बुआ भी चाहिए, मुझे बहन, दीदी भी चाहिए, भौजाई-साली भी चाहिए और सबसे बड़ी बात कि बेटी भी चाहिए। और पुरूष की इसी मानवीय प्रवृत्ति के तहत मुझे अंकशायनी या प्रेम करने वाली प्रेमिका भी चाहिए, तो इसमें हर्ज क्या है मोहतरमा?

और ऐसी हर औरत के हर आयाम में केवल उसके शारीरिक घुमावदार, कटावदार अंदाज ही नहीं देखे, महसूस या छुए जा सकते हैं। हां, इन सब को सम्‍पूर्ण आजादी मिले, इसके लिए मैं उन पर थोपे जाने वाले बुर्के या घूंघट का विरोध करता हूं, उन्‍हें नंगा करके अपनी अतृप्‍त वासनाओं को शांत करने के लिए नहीं। मुझे हर औरत में सिर्फ मादा नहीं, बल्कि औरत में अपने प्रति रिश्‍तों की खोज होती है मोहतरमा।

मैं कई महिलाओं से राखी बंधवाता हूं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि दुनिया की सारी युवतियां मेरी बहन हो गयीं। कई को मैं अम्‍मा कहता हूं तो क्‍या सारी औरतें मेरी अम्‍मा बन जाएं। कई मेरी बेटी बन जाती हैं, कई मित्र हैं, वगैरह वगैरह। लेकिन इसका मतलब भी तो नहीं कि इन रिश्‍तों से इतर बाकी महिलाओं की आजादी या उन्‍हें बुर्का-घूंघट में छिपाने की अमानवीय हरकत का विरोध न करूं?

और फिर जरा सोचिये, कि क्‍या कोई पुरूष किसी स्‍त्री की घुमावदार या कटावदार देहयष्टि की ओर न देखे? अजी प्राकृतिक आकर्षण को आप कैसे भस्‍म सकेंगी? पुरूष को तो भाड़ में झोंकिये। यह बताइये कि क्‍या कोई भी महिला यह सहन कर पायेगी कि कोई पुरूष उसकी देहयष्टि या उसके रूप-धर्म की अवहेलना कर दे?

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