: स्वेच्छाचारिता नहीं, विशेषाधिकार का अर्थ है प्रक्रिया को सुगम बनाना : तौबा तौबा। पंगा, वह भी वकील से : गायत्री की खासियत या कमी है उसमें रीढ़ का न होना : अन्यायपालिका- दो :
कुमार सौवीर
लखनऊ : मी लॉर्ड ! दो कौड़ी का मामला था यह जमानत का, जिसे सेशन जज की अदालत में एक नौसिखिया वकील भी हजार-डेढ़ हजार रुपयों में ही निपटवा सकता था। उस जमानत की अर्जी को लेकर हाईकोर्ट तक में नियम-कानून की धज्जियां उड़वायी गयीं। कोलोजियम ने जिसे हाईकोर्ट बनाने का फैसला कर लिया था, उसके सबसे बड़े सपनों को रौंद डाला गया। खतो-किताबत इतनी करा दी कि कोलोजियम में फाइनल हो चुके जज का नाम ही बैरंग वापस लौट आया। इतना हल्ला मचा दिया कि मामला दस करोड़ की रिश्वत का बन गया। सिर्फ अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए।
इतना ही नहीं, चार साल तक किसी जज की हिम्मत भी नहीं पड़ी कि वह उस अभियुक्त के मामले पर फैसला कर सके। मुसलसल, चार बरसों तक वह अभियुक्त जेल में सड़ता ही रहा। आखिरकार जब तुरुप का पत्ता के तौर पर देश के सर्वोच्च न्यायालय की वकील बेटी ने जमानत पर बहस की, तब कहीं जाकर जमानत मंजूर की हाईकोर्ट ने। अब क्या मतलब रह गया कानून का, क्या अर्थ रह गया अदालत का, और क्या साख बच पायी है देश के सर्वोच्च न्यायाधीश की, जिसकी बेटी के नाम पर, जन-चर्चाओं के मुताबिक, गायत्री प्रजापति की जमानत अर्जी को हाईकोर्ट ने मंजूरी दे दी है? वह भी तब, जबकि इस जमानत मंजूरी के बावजूद आज भी गायत्री प्रजापति जेल में ही बंद है।
यह जस्टिस का आलम है आपकी अदालत में योर लॉर्डशिप चीफ जस्टिस जी !
मामला है दुष्कर्म के आरोपित गायत्री प्रजापति का। सियासत और अफसरशाही के गलियारों में बाबूसिंह कुशवाहा, नसीमुउद्दीन सिद्दीकी के बाद दुनिया के सबसे बड़े खनन माफिया का तमगा झटकने वाले माने जाते हैं गायत्री। गायत्री की खासियत या कमी है उसमें रीढ़ का न होना। अकूत पैसा बटोरने के लिए उन्होंने अपनी रीढ़ की सारी हड्डियां ही गला डाली हैं। इतने नीचे तक फिसल गया गायत्री, कि अपनी कुर्सी बचाने के लिए उसने सरे-मंच पर मुलायम सिंह यादव के पैरों को चांपने-चूमने की कोई भी शर्म नहीं छोड़ी।
अब हालत यह है कि सरकार के इशारे पर पुलिस ने जेल के उस हर दरवाजे पर कुंडियां लगा दी हैं, जहां गायत्री के बाहर निकलने की गुंजाइश है। अब ताजा आरोप है कि गायत्री ने पीडि़त महिला के वकील को धमकाया है। वह महिला, जिसने सरेआम बयान दे दिया कि अपने वकील के इशारे पर उसने गायत्री को फर्जी मुकदमा दर्ज कराया था, जबकि गायत्री उसे बेटी की तरह प्यार करते हैं। यह आरोप लोगों के गले नहीं उतर रहा है। वजह यह कि गायत्री का चरित्र अपना काम निकलवाने का रहा है। धमकी देने का साहस ही नहीं कर सकता है गायत्री प्रजापति। वह भी वकील से पंगा लेना? तौबा तौबा।
बहरहाल, विवाद की शुरुआत हुई 25 अप्रैल-17 से, जब गायत्री की जमानत की अर्जी धारा 439 (1) के तहत लखनऊ के पॉक्सो जज ओपी मिश्र ने गायत्री की जमानत मंजूर कर ली। न्यायिक जगत में ओपी मिश्र की छवि दागी के तौर पर चर्चित है। जबकि तब के जिला न्यायाधीश राजेंद्र सिंह की छवि कर्मठ और बेदाग ईमानदार की है। लेकिन इसके तत्काल बाद हाईकोर्ट में इस मामले पर कुछ वकीलों ने ऐतराज जताते हुए जमानत को खारिज करने की अर्जी लगायी। कानून के जानकार बताते हैं कि यह अर्जी नियमत: धारा 439(2) के तहत होनी चाहिए थी, लेकिन हाईकोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस डीबी भोंसले ने यह अर्जी धारा 482 के तहत दायर की। इस अर्जी पर चीफ जस्टिस ने सुनवाई के लिए अपर महाधिवक्ता को नोटिस जारी कर दी और आदेश दिया कि अगले ही दिन इस मामले पर वे सुनवाई करेंगे।
बस, यहीं से शुरू हो गयी नियमों को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिशें। दरअसल, विधिवेत्ताओं के मुताबिक, धारा 439 के तहत जमानत खारिज करने वाली अर्जियों पर सुनवाई करने वाली बेंच अलग पहले से ही गठित थी। लेकिन चीफ जस्टिस ने अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए यह सुनवाई खुद करनी शुरू कर दी। उधर धारा 482 की सुनवाई करने वाली अर्जियों का निस्तारण किसी दूसरी बेंच को भेजना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अगले दिन धारा 482 के तहत तब के चीफ जस्टिस भोंसले ने गायत्री की जमानत को खारिज कर दिया।
माना कि चीफ जस्टिस का यह फैसला उनके विशेषाधिकारों में शामिल है। लेकिन किसी भी विशेषाधिकार का अर्थ अराजकता नहीं, बल्कि किसी मामले को सुलझाने-निपटाने के लिए होता है। कानून के जानकारों का कहना है कि इस मामले में यह अर्जेंसी ही तय नहीं हो पा रही है। पहला सवाल तो उठ रहा है कि इस मामले में विशेषाधिकार का इस्तेमाल करने की क्या जरूरत थी? दूसरा, जब ऐसे मामलों के लिए दूसरी बेंच निर्धारित हो चुकी हैं, तो फिर विशेषाधिकार का औचित्य क्या था? तीसरा यह कि इस विशेषाधिकार के इस्तेमाल से कौन सा पहाड़ टूट सकता था, जिसमें अर्जेंसी की जरूरत पड़ी? चौथा यह कि न्यायिक प्रक्रिया के तहत सभी पक्षकारों को नोटिस देकर इस मामले का निस्तारण करने के बजाय अगले ही दिन सुनवाई क्यों की गयी? जिला अदालत से जमानत से छूट जाने के बावजूद अदालत के संज्ञान में अगर यह तथ्य आता कि जमानत अनियमित है या षडयंत्र से प्रेरित है, तो दो-तीन दिन बाद उसे कैंसिल किया जा सकता था। इसमें क्या पहाड़ टूट जाता?
न्यायपालिका के एक सूत्र ने दोलत्ती संवाददाता को बताया कि चीफ जस्टिस ने अपर महाधिवक्ता को फोन करके अगले ही दिन सुनवाई करने का निर्देश दिया था। सवाल यह है कि आखिर क्यों ? (क्रमश:)
बवंडर जैसी लहरें-तरंगें तो अब न्यायपालिका में रोजमर्रा की बात हो चुकी है। लेकिन सुनामी और भूचाल जैसे हादसे जब होते हैं, तो सवाल उठने लगते हैं। गायत्री प्रजापति की जमानत पर चल रहे कानूनी बवाल और उसको लेकर राजनीति, सरकार, प्रशासन, पुलिस और मीडिया की भूमिका एक बड़े सांगठानिक षडयंत्र का रूप धारण कर लेती है। मगर इस गठजोड़ में अदालतों की भूमिका तब सामने चर्चा में आती है, जब पानी सिर से ऊपर जाने लगता है।
संविधान के प्रमुख स्तम्भ न्यायपालिका की हालत पर लेख-रिपोर्ट को लेकर दोलत्ती डॉट कॉम ने एक अभियान छेड़ा है। इसकी बाकी श्रंखलाबद्ध कडि़यां को देखने के लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक करते रहियेगा:-
अन्यायपालिका