मासिक-धर्म की बात सुनते ही अपना ही धर्म भूल गया संपादक

सैड सांग

: एक बड़े अखबार-समूह के प्रबंधन पर एक महिला पत्रकार ने उछाले कई गम्‍भीर सवाल : तो इस तरह मैं अपनी मेंस्ट्रुअल लीव के लिए दोषी साबित हो गयी : चुप्पी सिर्फ खुद को सेफ रखने का भ्रम भर है, एक दिन इस चुप्पी में ही सब खत्म हो जायेंगे : मासिक-धर्म- एक :

मेरी बिटिया संवाददाता

नई दिल्‍ली : आदरणीय एमडी सर एवं ग्रुप एडिटर सर,

नमस्कार। मैं अमर उजाला संस्‍थान के बरेली संस्‍करण की यूनिट में वर्ष 2015 से काम कर रही थी। दो साल ट्रेनी रहने के बाद अगस्त 2017 में मुझे जूनियर सब एडिटर पद दिया गया। पिछले मंगलवार यानी 17 अप्रैल को मैंने पद से इस्तीफा दे दिया या कहूं ऐसे हालात पैदा किये गए जो मेरे पास कोई और उपाय नहीं बचा।

जाने आप अवगत हैं या नहीं, अगर नहीं तो क्यों नहीं …. संपादकीय विभाग के हालात बदतर हो गए हैं। अनुशासन और बड़ों के सम्मान के नाम पर शुरू हुई सख्ती कब बेइज़्ज़ती और बंधुआ मजदूरी में बदल जाएगी, इसका अंदाज़ा शायद ही संपादकीय विभाग के किसी साथी को रहा हो। जब से विनीत सक्सेना जी ने प्रभार संभाला, रिपोर्टिंग टीम में किसी को भी साप्ताहिक अवकाश तक नहीं दिया जा रहा है। पहले अमूमन रात दस बजे तक घर चले जाने वाले रिपोर्टर अब रात दो बजे तक यहां बैठे झींकते रहते हैं।

मैं लगातार 14 दिन से काम कर रही थी, मेंस्ट्रुअल टाइम पर भी काम करने से तबीयत बिगड़ गयी। इसलिए पिछले सोमवार 9 अप्रैल को मैं संपादक जी से अवकाश मांग कर घर गयी। अगले दिन भी तबीयत ठीक न होने पर मैंने उन्हें कार्यालय न आ पाने की सूचना दी। फिर शुक्रवार को उन्हें सूचित किया कि शनिवार से ऑफिस आऊंगी। बावजूद इसके शनिवार को ऑफिस आने पर मुझे प्रताड़ित किया गया। सिटी चीफ अनूप जी ने संपादक जी को मेल करके मेरे खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की। मंगलवार के बाद हुए अवकाश के बारे में कोई सूचना न होने की बात दर्शाकर स्पष्टीकरण भी मांगा गया।

शाम के समय जब वह कार्यालय आये तो मेरा जवाब पढ़ने से पहले ही उन्होंने आदेश दे दिया कि मुझसे अब सिटी में काम नहीं लिया जाएगा। न्यूज़रूम में सिटी रिपोर्टिंग, सिटी डेस्क, डाक, पेज 1, सेलेक्ट और पीटीएस टीम के सदस्यों के सामने उन्होंने बहुत खराब ढंग से बात की। बोले , मैं तुम्हें सिटी टीम में नहीं देखना चाहता, तुम्हारी खबरों की यहां मुझे ज़रूरत नहीं है। उन्होंने मुझे अपनी सीट से तुरंत चले जाने को कहा। मैंने उनको बोला भी कि अगर आप मुझसे काम लेना नहीं चाहते हैं, तो संपादक जी से बात करने दीजिए (वह उस वक़्त व्यस्त थे), अगला आदेश मिलने तक क्या मुझे मेरी सीट पर भी नहीं बैठने दिया जाएगा?

खैर, मैं तुरंत संपादक जी के पास गई और कहा कि इस तरह का अवकाश लेना तो मेरा राइट है, इस पर कार्रवाई किस तरह हो सकती है? वह सुनते ही भड़क गए कि मैं इस तरह अधिकारों की बात न करूँ। मुझे बताया गया कि मेरा व्यवहार बहुत खराब है, आदि। बताया गया कि अनूप जी के साथ पहले कभी मेरा व्यवहार ऐसा ज़रूर रहा है, जिससे वह भड़के हैं (हालांकि ऐसा कभी नहीं हुआ) और इस तरह उनका व्यवहार जस्टिफाई हो गया! अनूप जी ने सोमवार को साप्ताहिक बैठक में यह भी घोषित कर दिया कि क्योंकि उन्हें अवकाश की कोई सूचना नहीं इसलिए यह ‘लीव विद ऑउट पे मानी जायेगी।

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तो इस तरह मैं अपनी मेंस्ट्रुअल लीव के लिए दोषी साबित हो गयी! फिर स्पष्टीकरण किस खानापूरी के तहत था, यह मैं जानना चाहूँगी। शनिवार को संपादक जी ने अपने केबिन में अनूप जी से कहा गया कि यह महिला अपनी गलतियों के लिए सार्वजनिक माफी मांगने को तैयार है, उसे आखिरी मौका दिया जाए। यह भी कहा गया कि हो सकता है उसके फादर ने उसे सीनियर की इज़्ज़त करना न सिखाया हो, जो अब वो सब मिलकर सिखाएंगे। मैं उस वक़्त किस मानसिक स्थिति में थी, शायद सही तरह लिख नहीं पाऊंगी पर उस रात मैं सो नहीं पाई। बड़ा एहसान करते हुए मुझे आख़िरी मौका जो दिया गया था।

ख़ास बात यह भी है कि जवाब अच्छा न लगने पर मुझसे उस मेल उत्तर दोबारा देने को कहा गया जो मैंने नहीं किया।

जेंडर विषय की विद्यार्थी होने के नाते मेरे लिए यह पैटर्न समझना बड़ा आसान है और पत्रकार के रूप में बेहद दुखद। किस तरह एक लड़की का ऐसे शब्दों को बिना झिझक बोलना, अपनी बात रखना, अपने अधिकार जानना दूसरों की नज़र में लड़की के गिरे हुए संस्कार बन जाता है। फिर पित्तसत्तात्मक मानसिकता उसमें लड़की के मां-बाप की कमी बताती है कि उसे होमली नहीं बनाया जा सका, बिल्कुल किसी ससुराल के जैसे।

मुझे याद है जब पहली बार मैंने विनीत सक्सेना को मेरी तबीयत ठीक न होने का स्पष्ट कारण लिखा तो वो विचित्र तरीके से बोले कि क्या मैं विदेश में पैदा हुई हूँ, क्योंकि हमारे (उनके) संस्कार तो इस बेतुके खुलेपन की इजाजत नहीं देते। उस वक़्त जो बात उन्हें संस्कृति के खिलाफ लगी थी, बाद में मुझे यह भी पता लगा कि उस स्वास्थ्य संबंधी सूचना पर सार्वजनिक चटकारे लिए गए थे! संपादक होने के नाते उनसे गोपनीयता अपेक्षित थी, खैर उन्होंने किसी भी स्तर पर खुद को संपादक की गरिमा के अनुसार नहीं ढाला। मुझे हमेशा वह किसी गुमटी पर पान चबाते छुटभैय्ये क्राइम रिपोर्टर के जैसे लगे जो कुछ भी बोल सकता है, गालियां भी। डांट और दंड से मैं कभी नहीं डरती, ये सुधार के सबसे ईमानदार तरीके हैं। पर जब बात सिद्धांत की आती है तो मुझे यह स्वीकार्य नहीं। ऐसे में सोमवार को तय किया कि अब मुझे यहां और नहीं रहना चाहिए।

विनीत सक्सेना के अपने अनुभवों का असर है या कुछ और, वह हमेशा बहुत खेल करते हैं। नियम के हिसाब से मेरा प्रोबेशन पीरियड 31 जनवरी 2018 को समाप्त हो गया। 1 फरवरी को मुझे जानकारी दे दी जानी चाहिए थी कि मैं कन्फर्म हुई या मुझे एक्सटेंशन मिला है। पर करीब दो महीने मुझे कंफ्यूजन में रखा गया। यह वह समय था जब सीनियर साथी रश्मि भंडारी जी को अचानक टर्मिनेट कर दिया गया था। मैं बहुत मानसिक दबाव में रही कि न जाने कब मुझे भी रश्मि जी की तरह यह सब झेलना पड़े। इस दौरान दो बार एचआर विभाग से मैंने जानकारी ली, बताया गया कि जनवरी में ही उनकी ओर से संपादक को मेल करके प्रोबेशन के संबंध में फैसला लेने को पूछा गया था। रिमाइंडर भेजे जाने पर भी मेल पेंडिंग में है। फिर मध्य मार्च में एक सप्ताहिक बैठक में घोषणा की गई कि अब मेरा काम बेहतर है, मुझे कन्फर्म किया जाएगा, जो 17 अप्रैल तक प्रक्रिया में ही रहा।

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सुरमा वाले बरेली का झुमका

मुझे यकीन है कि अगर चुपचाप ‘यस सर’ मोड पर काम करती रहती तो ज़रूर किसी रोज़ बैक डेट में कन्फर्मेशन लेटर पकड़ा दिया जाता। न चाहते हुए भी मुझे उस पर दस्तखत करना होता। क्या मानसिक दबाव किसी गिनती में नहीं आना चाहिए?

अपनी टीम से हमेशा विश्वास की अपेक्षा रखने वाले विनीत सक्सेना इतने इनसिक्योर हैं कि आपस में साथी बातें भी करें तो उन्हें लगता है कि उनके खिलाफ साजिश की जा रही है! बाकायदा बैठक में यह कह भी चुके हैं कि लोग उनके खिलाफ साज़िश कर रहे हैं।  इन सब के बाद अब आफिस में हर कोई एक-दूसरे से बात करने से बचता है। ऑफिस का माहौल सर्विलांस सेल जैसा बन चुका है । जिस जगह रिपोर्टर अपने दिन के 14 से 18 घंटे बिता रहा है, वो एक पल हल्के मन से मुस्कुरा तक नहीं सकता। बाकी डेस्क पर भी हाल समान है। लड़कियां ज़ोर से बोले या हंस दें तो नसीहत दी जाती है कि उन्हें जीवन भर नौकरी तो करनी नहीं, बच्चों को संस्कार देने के लिए तो समझ ही लें।

विनीत जी के पास हर एक कर्मी का चिट्ठा है, बिना बात के मेल और उनका मनमाफिक स्पष्टीकरण। कोई जुबान चलाने की जुर्रत नहीं करेगा क्योंकि हर मंडे मीटिंग में बताया जाता है कि यह पत्रकारिता नहीं नौकरी है। सबकी गलतियों के मेल उनपर हैं, कोई शिकायत तो करके देखे , वह ऊपर जस्टिफाई कर देंगे। इस मानसिक दवाब की भी कोई गिनती नहीं??

नियमों के नाम पर दादागिरी चला रहे विनीत सक्सेना ने अमर उजाला के नियमों की धज्जियां उड़ाकर रख दी हैं। साप्ताहिक बैठक के मायने अब सिर्फ भाषण देना और गुस्से में गालियां देना भर रह गया है। प्लानिंग मीटिंग में प्लान पर कभी कोई बात ही नहीं होती। बेचारे एनई सर ज़रूर प्लानिंग पूछने की कोशिश करते हैं पर वैश्य जी की समीक्षा और विनीत सक्सेना जी के भाषण के अतिरिक्त कुछ नहीं होता। लोगों की गलतियों पर सबके सामने उनकी पोस्ट और अनुभव पर सवाल खड़ा किया जाता है। यह किस तरह का सुधारात्मक प्रयास है? मैंने मीटिंग में लोगों को रोते देखा है। पवन चंद्र जी और अभिषेक टंडन जी  को सबके सामने रोते देखना मेरे लिए सबसे दुखद पलों में से है। विनीत सक्सेना जी  ने एक साप्ताहिक मीटिंग में बोल कि जब भी वह सुधार के लिए डांटते हैं तो उसे अभद्रता मान लिया जाता है इसलिए अब वह गांधीगिरी करेंगे। उन्होंने गांधीगिरी को जिस रूप मे परिभाषित किया वो शर्मनाक था। बोले- अब से जो भी गलती करेगा उसकी दिन में दो बार आरती उतरवाई जाएगी, जिसके लिए मैं नोएडा से लड़कियां बुलवा लेता हूँ।  उस दिन मीटिंग में बैठीं हम तीन लड़कियां सन्न रह गईं। (क्रमश:)

यह है उस महिला पत्रकार का इस्‍तीफा, जिसमें अपनी नौकरी तब छोड़ी, जब उसे बदतर हालात तक उत्‍पीडि़त किया गया। उस महिला पत्रकार के अनुरोध का सम्‍मान करते हुए हम उसका नाम सार्वजनिक नहीं कर रहे हैं, हालांकि मूल पत्र में इस महिला ने अपना नाम दर्ज किया था। यह पहला अंक उस पत्र का पहला हिस्‍सा है। पत्र का बाकी हिस्‍सा पढ़ने के लिए कृपया निम्‍न लिंक पर क्लिक कीजिएगा:-

मासिक-धर्म की बात सुनते ही अपना ही धर्म भूल गया संपादक

नोट:- इस महिला पत्रकार ने तो अपने साथ लगातार होते जा रहे अपमान, और उत्‍पीड़न को एक सीमा तक सहन किया, लेकिन पानी जब नाक से ऊपर जाने लगा तो उसने अपने संस्‍थान के प्रबंधन तक अपनी शिकायत दर्ज की, और उस संस्‍थान को बाय-बाय कर दिया। आपके आसपास भी ऐसी घटनाएं पसरी ही होती होंगी। हो सकता है कि वह उत्‍पीडि़त महिला आप खुद हों, या फिर आपकी कोई सहेली-सहकर्मी अथवा कोई अन्‍य। इससे क्‍या फर्क पड़ता है कि आप किसी अखबार, चैनल में काम करती हैं, या फिर किसी आउटसोर्सिंग या मल्‍टीनेशनल कम्‍पनी की कर्मचारी हैं।

अगर आपको ऐसी किसी घटना की जानकारी हो तो हमें भेजिएगा। नि:संकोच। आपके सहयोग से हम ऐसे हादसों-उत्‍पीड़नों के खिलाफ एक जोरदार अभियान छेड़ कर ऐसी घिनौने माहौलों को मुंहतोड़ जवाब दे सकते हैं। आप हमें हमारे इस ईमेल पर सम्‍पर्क कर सकते हैं। आप अगर चाहेंगे, तो हम आपका नाम नहीं प्रकाशित करेंगे।

kumarsauvir@gmail.com और meribitiyakhabar@gmail.com भी।

1 thought on “मासिक-धर्म की बात सुनते ही अपना ही धर्म भूल गया संपादक

  1. हम welfare state हैं, यह केवल state policies और actions पर ही लागू नहीं होता।
    यह वो व्यवस्था है जो हमने अपने लिए चुनी है,
    महिलाओं का welfare उसका हिस्सा है।
    एक पीड़ा जिससे वह जो हमारे लिए सब समर्पित करती है हर माह गुजरती है, उसके प्रति संवेदनहीनता मानवीय नहीं है।

    जिसने भी यह बात खुल कर उठाई उसका अभिनन्दन।

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