बूढ़ी काकी (प्रेमचंद) – बूढ़े काका(अडवाणी)

मेरा कोना

( यूपी पूर्वांचल के मूल निवासी और फिलहाल लंदन में रह रहे दिनेश त्रिपाठी फेसबुक पर भी खासे लोकप्रिय हैं।

आज उन्होंने प्रेमचंद और आडवाणी के कृतित्व पर खासी दिलचस्प टिप्पणी की है।

आइये आप भी निहारिये: संपादक )

दिनेश त्रिपाठी

जमाने ने मारे ,जवां कैसे कैसे…

बूढ़ी काकी (प्रेमचंद) – बूढ़े काका(अडवाणी)

बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है. बूढ़ी काकी में जिह्वा-स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही.समस्त इन्द्रियाँ, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे.. बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में जाकर पश्चाताप कर रही थी कि मैं कहाँ-से-कहाँ आ गई.. उन्हें रूपा पर क्रोध नहीं था..अपनी जल्दबाजी पर दुख था..

आज ठीक अडवाणी जी बूढी काकी की भूमिका में नज़र आ रहे हैं ..लालसा / लोभ/मोह/जिद सब बूढी काकी से मिलता जुलता…. अडवाणी जी शायद भूल गए की पार्टी से ऊपर व्यक्ति नहीं हो सकता.. और इन्होने इसको कितने बार सिद्ध किया यह भी हम जानते हैं .. येदुरापा,उमा भरती,कल्याण सिंघ,जेठमलानी ..किसी को नहीं बक्शा.. और यह भी जानते हैं की कांग्रेस के (गुड बाय) बनने के चक्कर में यह सब खेल खेला.. येदुरप्पा को निकला कांग्रेस के दबाव में.. गडकारी को कांग्रेस के दबाव में.. कल्याण सिंघ को कांग्रेस के दबाव में.. अब जब कांग्रेस का दबाव मोदी पर नहीं चल सका तो स्वयं को निकला भाजपा पर दबाव डालने के लिए..

अडवाणी जी .. आप रहे ना रहे भाजपा को अगर भारतीय जनता चाहेगी तो आप जैसे लोग आते जाते रहेंगे पर भाजपा आगे बढती रहेगी 🙂

आपको रफ़ी साहब का एक गाना पेश करता हूँ 🙂

जमाने ने मारे, जवां कैसे कैसे..

जमीन खा गई आसमा कैसे कैसे ..

पले थे जो कल,रंग में , फूल में ..

कहीं खो गए, राह के धुल में ..

हुए दर-बे-दर कारवां कैसे कैसे…

जमाने ने मारे ,जवां कैसे कैसे…

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