पुत्रों को दुग्ध-पान, बेटियों की सरेआम पिटाई

मेरा कोना

स्त्रीसशक्तीकरण की दिशा में कलंक है गुडि़या पीटने की परंपरा

: नागपंचमी के दिन अजब-गजब रिवाज, गुडि़या पीटने का औचित्य : मनाते हैं सब लोग, लेकिन कारण किसी को नहीं पता : कोई लौकिक परम्परा बताता है तो कोई लोकाचार :

कुमार सौवीर

नागपंचमी के दिन एक ओर तो बेटों को दूध पिलाने की परम्परा का पालन किया गया, वहीं दूसरी ओर बेटियों को सरेआम भरी सड़क पर छड़ी से बेदर्दी से पीटने का बर्बर अनुष्ठान सम्पन्न हो गया। इन दोनों ही कर्मकांड सोल्लास सम्पन्न हो गये, लेकिन किसी को भी पता नहीं चल पाया कि यह ऐसा क्यों हुआ। अब तर्क, कुतर्क और धर्म की दुहाई का दौर शुरू हो गया है। लेकिन इस पूरे दौरान इतना तो तय ही हो गया है कि हम लोग लाख अपनी बेटियों को सम्मान दिलाने के दावे-वादे कर डालें, लेकिन हमारी परम्पराएं इस दिशा के पैरों पर बुरी तरह बेडि़यों से बंधी हुई हैं। इतना ही नहीं, गुडि़या की सरेआम होने वाली परम्परा के चलते हमारी स्त्री सशक्तीकरण की भावना केवल पाखंड तक ही सीमित हो रही है।

नागपंचमी का औचित्य तो समझ में खूब आता है। कई आयामों पर भी। मसलन, हमें विषैले लोगों के साथ भी सज्जनता का व्यवहार करना चाहिए। सांप भी हमारे जीव-जगत का सदस्य  है, उसके साथ सदाशयता का रवैया होना चाहिए। वगैरह, वगैरह। एक तर्क यह भी होता है कि नाग चूंकि पुत्रवत है, अत: उसके साथ प्रेम का व्यवहार करना चाहिए।

उप्र हिन्दी संस्थान ने एक विशाल ग्रंथ प्रकाशित किया है, जिसका नाम है धर्म का इतिहास। इसमें भी सर्प यानी नाग की उपासना का लम्बा ब्योरा दर्ज है। लेकिन नागपंचमी के दिन आयोजित होने वाले गुडि़या पीटने पर यह ग्रंथ खामोश है। वरिष्ठ भाजपा नेता, उप्र विधान परिषद में सदस्य और धर्म-वेद-वेदांग के मीमांसाकार हृदयनारायण दीक्षित इस परम्परा को समाज के दीगर अन्‍य अनेक खेलों की ही तरह केवल एक खेल मानते हैं जिनका औचित्य केवल समाज को आनंदित करना और स्वायं आनंद प्राप्त करना ही है। उनका कहना है कि इस खेल को किसी अन्य अर्थ में सम्मिलित करना सम्भवत: उचित नहीं होगा।

पूर्वांचल के विशालतम और शिक्षा के सर्वोत्तम शिक्षाकेंद्र जौनपुर में है टीडी कालेज, यानी तिलकधारी महाविद्यालय। उसके पूर्व प्राचार्य हैं फिलॉसफी के शिक्षक प्रोफेसर अरूण कुमार सिंह। सेवानिवृत्ति के बाद आजकल वे भदोही के एक कालेज को सम्भाल रहे हैं। लेकिन उन्हें भी इस परम्परा के मूल का पता नहीं है। लेकिन वह यह मानते हैं कि इस प्रश्न का जवाब तो मिलना ही चाहिए। इस सवाल का जवाब खोजने के लिए प्रोफेसर सिंह ने अपने कई बड़े विद्वान मित्रों से पूछतांछ की। मसलन, शेषनारायण सिंह समेत कई साहित्यकार और पत्रकार भी। लेकिन उन्हें भी इसका जवाब नहीं मिला। हां, प्रोफेसर सिंह यह तो खुलासा करते ही हैं कि यह परम्परा दलित समाज में नहीं प्रचलित हैं।

वे बताते हैं कि गंगा के मैदान में ही यह परम्परा प्रचलित है। क्यों है ऐसा, उन्हें नहीं पता। हां, उन्हें। याद है कि वे बचपन में अपने गांव सुल्तानपुर के गांव वाले तालाब के किनारे यह खेल खेलते थे, लेकिन उसके औचित्य का पता उन्हें नहीं चला। कभी भी। उन्हें याद है कि लड़कियां ही यह गुडि़या बनाती थीं और फिर उन्हें तालाब में विसर्जित किया जाता था। शायद आज भी यह परम्परा जिन्दा है।

देवरिया के निवासी पूर्व आईएएस चंद्रप्रकाश मिश्र भी इस परम्परा पर प्रोफेसर सिंह की राय से इत्तिफाक रखते हैं। उनका कहना है कि गेंदतड़ी, दंगल और छिपा जैसे खेलों के साथ ही गुडि़या पीटने का खेल इस दिन होता था। रंग-बिरंगी छडि़यों से पीटी जाती थीं गुडि़या। गोरखपुर की शिक्षिका रंजना जायसवाल इसी चुप्पी पर हमला करती हैं। उनका कहना है कि नाग तो पुत्र है, इसलिए उसे दूध पिलाया जाता है। लेकिन गुडि़या पीटने का अभिप्राय समझ में ही नहीं आता, सिवाय इसके कि गुडि़या बेटी की प्रतीक है मगर इसकी पिटाई क्यों होती है।

लखनऊ विश्‍वविद्यालय में ज्योतिष-विज्ञान के आचार्य डॉ विपिन पांडेय इसे लोकाचार मानते हैं और कहते हैं कि इसका कोई वैज्ञानिक या धार्मिक महत्व नहीं है। वे अपने बचपन को भी टटोलते हुए बताते हैं कि तब तालाब पर जमी काई को खंगालने के लिए परम्पहरा हुआ करती थी। उधर लड़कियां जिन गुडि़यों को साल भर खेलती थीं, उन्हें  इसी दिन विसर्जित करने का दिन भी सम्भ‍वत: इसी बहाने शामिल हो जाता था। इसमें बेर की टहनियों से बनी छडि़यों से तालाब के जमे पानी को खंगालने के लिए लोग तालाब में कूदते थे। बच्चों को चूंकि इसमें ज्यादा आनंद होता था, और इसी बहाने लोग अपने बच्चों  को तैराकी सिखाने का मौका खोजते थे। गुडि़या का विसर्जन भी चूंकि इसी समय होता था, सो छडि़यों का प्रहार इन गुडि़यों पर भी हो जाता था। एक पंथ दो काज हो गया। उनका मानना है कि इसी के चलते यह परम्परा शुरू हो गयी होगी।

कर्मकांड के प्रकांड शिक्षक और वाराणसी संस्कृत विश्वाविद्यालय से सम्बद्ध आचार्य अवधराम पांडेय इसे लौकिक परम्परा मानते हैं, जो केवल सम्भवत: खेल-खेल में ही पनप गयी होगी। श्री पांडेय के अनुसार यह धर्म-सम्मत नहीं है, लेकिन लौकिक परम्परा की जमीन पर पनपे है। उधर गोंडा के साहित्यकार और पत्रकार कृष्णकांत द्विवेदी आचार्य पांडेय के तर्क से सहमत हैं। लेकिन वे बताते हैं कि इस विषय पर गहन अध्ययन की आवश्य‍कता है। उनका आश्वासन है कि मंगलवार की दोपहर तक वे इस बारे में अपनी निश्चित राय ही रख पायेंगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *