: लोक-संस्कृति गुरूजी, कौड़ा, नक्सलवाद की क्रूरता को रौंदते हैं इस राज्य में भावनाओं के समन्दर : ठेठ देशज भाव, ठेठ देशज संसाधन और ठेठ देशज अभिव्यक्ति : गंगा, सोन, कैमूर और दुर्गम घाटियों की मिट्टी में उपजी है यहां की कलाएं :
डॉक्टर राज दुलारी
बोकारो : दीवारों और छतों के ऊपर बनाये गए चित्र को भित्ति-चित्र की संज्ञा दी गई है। भित्ति-चित्रण चित्र कला की आदिम प्रवृति है। प्रागैतिहासिक गुहा चित्र इस तथ्य के साक्षी हैं। अजंता, एलोरा एवं बाघ आदि गुफाओं के भित्ति-चित्रों ने संसार के अनेक कला मर्मज्ञों को अपनी ओर आकर्षित किया है।
झारखण्ड की ग्रामीण जीवन शैली का परिचय कराने वाली झारखण्ड की लोक परंपरा की श्रृंखला में घरों की दीवारों पर रंगीन मिट्टियों, पत्तों के रस, गोबर तथा पुआल को जला कर बनाये गए रंगों से उकेरे गए भित्ति-चित्रों का अपना अलग महत्व है। विशेषकर आदिवासियों द्वारा घरों की दीवारों तथा फर्श को पत्थर से घिस-घिस कर, चिकना कर, अपनी उँगलियों से अर्धवृताकार तथा नपी-तुली सामानांतर रेखाओं वाले चित्र एवं विभिन्न त्योहारों के समय इनके बनाये गए भित्ति-चित्रों में भित्ति-चित्रों की सुरुचि और कलाप्रियता यह प्रदर्शित करती है कि चित्रकला के प्रति इनमे अनुराग और गहरी ललक आदि काल से रही है।
ग्रामीण लोक-संस्कृति के इन कुशल चितेरों द्वारा अपनी उँगलियों से उकेरे गए भित्ति-चित्र कला के विषय में कुछ विद्वान मानते हैं कि झारखंडी संस्कृति के अंतर्गत भित्ति-चित्रों का प्रचलन आयातित है, किन्तु यह उचित प्रतीत नहीं होता है। झारखण्ड की भौगोलिक स्थिति पर नजर डालने पर यह स्पष्ट रूप से दिखता है कि आज से सैकड़ो वर्षों पूर्व विशाल गंगा और सोन की लहरों, कैमूर की बाहरी दुर्गम घाटियों को पार कर अन्य किसी भी संस्कृति का प्रवेश पाना मुश्किल था। यह जीवंत लोक कला अपनी विशेष बनावट का प्रतिनिधित्व करती है। इस चित्रांकन के लिए रंग सीधे प्रकृति से प्राप्त होते हैं। सेम के पत्तों से हरा रंग, हरसिंगार के फूलों के डंठल और कुसुम फूलों से नारंगी रंग, हल्दी से पीला रंग, दीपक के काजल से काला रंग और इसी प्रकार विभिन्न वनस्पतियों से अलग-अलग प्रकार के रंग तैयार किये जाते हैं।
भित्ति-चित्रों में सुग्गा एवं मोर प्रेम का प्रतीक होते हैं, बांस तथा कमल उर्वरता का, पीला रंग पृथ्वी को, उजला रंग हवा को, नीला रंग असमान को और लाल रंग आग को दर्शाता है।
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इस प्रकार भित्ति-चित्र हमारी आदिम संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। महाकवि कालिदास की श्रेष्ठ रचना मेघदूत खंड काव्य के खंड 2, उत्तर मेघ के श्लोक संख्या 19 में घरों की दीवारों में गज, सांड, हाथी, शंख तथा कमल फूल उकेरने की बात दिखी है। आज भले ही इसमें आधुनिकता का समावेश हो गया है किन्तु युगों-युगों तक यह अपनी प्राचीन भावना का ही प्रतिनिन्धित्व करता रहेगा।
बोकारो में रह रहीं डॉक्टर राजदुलारी मूलत: शिक्षक हैं। समाजसेवा भी उनकी दिनचर्या का एक अहम आयाम है। शोध-परक लेखन में महारत है डॉ दुलारी को। झारखंड की संस्कृति पर उन्होंने यह नोट शोधार्थियों के लिए तैयार किया है। उससे किसी भी सवाल पर अगर आप डॉक्टर राजदुलारी से बातचीत करना चाहें, तो comment box में आपका स्वागत है।