बड़े अखबार के बड़े पत्रकार की प्राइवेट प्रैक्टिस, तबादले में तीन लाख उगाहे

ज़िंदगी ओ ज़िंदगी

: कई बीट सम्‍भालते हैं यह बड़े पत्रकार साहब, सम्‍पादक के चहेते : परिवहन में कमाऊ कुर्सी दिलाने के लिए हुआ यह गंदा धंधा : विभाग के कर्मचारी नेता तो अब सरेआम कुबूलते हैं यह डील, बोलते हैं:- जो भी काम हो, अफसर से नहीं इस पत्रकार को सेट करो :

संवाददाता

लखनऊ : घर चलता है हर महीने मिलने वाली तनख्‍वाह से, जेब का खर्चा चलता है चेले-चापड़ों से और परिवार का भविष्‍य सम्‍भलता है प्राइवेट प्रैक्टिस से।

जी हां, यह ब्रह्म-सूत्र है एक पत्रकार का। उनके जीवन का आधार सूत्र। खुद को ज्ञान का सागर की तरह अपने लोगों और परिचितों में पेश करने वाले इन पत्रकार साहब ने यह डॉयलॉग खुद ही बुना-गढ़ा है। उनका कहना है कि अगर यह जीवन-धारा उनके जीवन में नहीं प्रवाहित हुई होती, तो पहाड़ जैसा जीवन और परिवार के खर्च और पालन-पोषण के लिए सुरसा जैसे विशाल बाये मुंह का सामना कर पाना मुमकिन नहीं होता।

अब हम आपको बता दें कि यह पत्रकार लखनऊ से छपने वाले एक बड़े अखबार के बड़े पत्रकार हैं। सत्‍ता से जुड़े दल-दलदलों को कवर करने वाले इन पत्रकार की पहुंच कई विभागों तक में है, जिसकी कवरेज का काम भी उनके माथे पर है। चूंकि सम्‍पादक के आड़े-वक्‍त यह पत्रकार ही सामने आते हैं, और पूरी गोपनीयता के साथ उस सम्‍बन्‍धों को निभाते रहते के दावे सरेआम करते ही रहते हैं,  इसलिए अपने सम्‍पादक से उनकी खूब छनती है। नतीजा उन्‍हें कई महत्‍वपूर्ण बीट उन्‍हें थामे रखने का गुरूतर दायित्‍व उन्‍हें सौंपा हुआ है, और वे भी अपने दायित्‍वों कि बखूबी निभाते रहते हैं।

दरअसल अखबार के प्रभा-मण्‍डल के साथ ही यह पत्रकार साहब अपनी अखबारी चकाचौंध को भुनाने में खासे माहिर हैं, इसलिए वे किसी भी मौके को छोड़ना नहीं चाहते।  हालांकि, चुनांचे, इस अखबार के अधिकांश पत्रकार केवल यही सब काम-धंधा करते हैं, इसलिए सब-कुछ चकाचक चलता ही रहता है। तू मेरी पीठ खुजला दे, और मैं तेरी पीठ खुजला दूं, की तर्ज में इस पूरे संस्‍थान का कामधाम चल रहा है।

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हाल ही इस पत्रकार साहब ने परिवहन मंत्रालय के एक विभाग में एक कमाऊ कुर्सी पर मारामारी कर रहे अफसरों का विवाद निपटाया। वैसे एथिकली तो इस झगड़े पर एक खबर लिखी जानी चाहिए था, लेकिन चूंकि अगर खबर छपती तो बेवजह एक मुर्गा हलाल करने का मौका फुर्र हो जाता। इसलिए इस पत्रकार ने इनमें से एक अधिकारी को  इस पत्रकार के लिए साधा। बात तय हो गयी। तीन लाख रूपया। इस हाथ दाम, उस हाथ काम। डील हो गयी। लेकिन चूंकि इस पत्रकार की ऐसी कोशिशों के चलते एक दूसरी पार्टी की हक-तलफी हो गयी, इसलिए उसने खुसफुस शुरू कर दी। तुर्रा यह कि यह अफसर कर्मचारी नेता से करीबी रखता था, इसलिए उस नेता ने हल्‍ला करना शुरू कर दिया।

अब महकमे में यह नेता जी सरेआम बोलते घूमते हैं कि :- जो भी काम हो, अफसर से नहीं इस पत्रकार को सेट करो

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