: जब दिग्गज अफसर रामकृष्ण ने बेटे का फर्जी जन्मतिथि प्रमाणित करने को कहा : आजम खान अनोखे नहीं, सुधार की गुंजाइश कम ही बची :
देवेंद्र नाथ दुबे
लखनऊ : समाजवादी पार्टी के क़द्दावर नेता तथा भूतपूर्व मन्त्री आज़म खान के बेटे अब्दुल्ला आज़म ख़ान की विधान सभा सदस्यता समाप्त होने के बाद अब निर्वाचन आयोग उस सीट पर नये चुनाव की तैयारियां शुरू करने ही वाला होगा। वजह है कि के शिक्षा तथा जन्म सम्बन्धी प्रमाणपत्र फ़र्ज़ी पाए गए थे।
इस ख़बर से मुझे एक वाक़या याद आया। उन दिनो मै लखनऊ जनपद में अपर ज़िलाधिकारी तथा उप ज़िला निर्वाचन अधिकारी था (१९८७-१९९०)। प्रसंगवश यह उल्लेख करना अनुचित न होगा कि ऐसा कोई चुनाव नही , ग्राम पंचायत से लेकर लोकसभा तक जो उस अवधि में न हुए हों ; और कुछ तो बीस बीस साल के बाद हुए थे जैसे जिला परिषद , नगर निगम या ग्राम पंचायतों में महिला आरक्षण (जो पहिली बार हुआ और पृथक सेहुआ ) जिनके क़ायदे या तो थे नही या बहुत पुराने। तब तक राज्य निर्वाचन आयोग बना नही था अतः ये चुनाव सामान्य चुनावों में निर्धारित नियमों को मानते हुए कराए गए।
वापस मूल बिन्दु पर। विधान सभा के चुनाव होने जा रहे थे। एक दिन मैं गोल्फ खेल कर आफिस के लिए निकल रहा था कि एक सरकारी चपरासी ने नमस्ते कर कहा कि सेक्रेटरी साहेब ने सलाम बोला है ( यह तहज़ीब हुआ करती थी यह कहने कि बड़े अधिकारी ने बुलाया है )। पता चला कि श्री रामकृष्ण, जो शायद उस समय सार्वजनिक (अब लोक ) निर्माण विभाग के सचिव थे ने याद किया है। पास ही में रहते थे ,मै सीधे वहीं गया। उन्होंने प्यार से बैठाया चाय पिलाई फिर बहुत आराम से बोले कि उनका लड़का विधान सभा का चुनाव लड़ने जा रहा है पर उसकी उम्र थोड़ा कम है इसलिए उन्होंने कहीं से उसकी tc (transfer certificate या school leaving certificate ) निकलवाई है जिसमें उसकी जन्म तिथि पीछे करके उम्र बढ़ा दी गई है और तदनुसार उसकी अहर्ता बन जाती है।
रामकृष्ण की अपेक्षा के मुताबिक इस मामले में मुझे बस इतना करना है कि मै सहायक रिटर्निंग अधिकारी को संकेत कर दूँ कि वह जन्मतिथि पर पूछताछ न करे और वोटर लिस्ट में संशोधन कर उसकी प्रति जारी कर दें। जिसे वह वहाँ दाख़िल कर देगा जहाँ से वह चुनाव लड़ रहा है। वहाँ बात हो गई है , वहाँ के रिटर्निंग अधिकारी बग़ैर किन्तु परन्तु के उसे मान लेंगे।
मैंने पूछ लिया कि आपका पुत्र है तो हाईस्कूल तो किया ही होगा और उस दशा में उम्र के निर्धारण के लिए हाई स्कूल का प्रमाण पत्र ही प्रथम और अन्तिम प्रमाण होगा।
रामकृष्ण ने कहा कि यह कोई बड़ी समस्या नही है और केवल मतदाता सूची का संशोधन ही तो होना है जिस पर कोई आपत्तियाँ भी नही माँगी जानी है।
लेकिन मैं अपने तर्क पर दृढ़ रहा और फिर उन्होंने किंचित रोष के साथ मुझे विदा कर दिया।
यह मैंने जो किया उसकी प्रशस्ति मुझे मिलनी चाहिए, इसलिए मै यह नही लिख रहा। न ऐसी कोई भावना उस समय थी। सच बात तो यह है कि उस मामले में इस स्टैंड के अलावा मेरा कोई और स्टैंड होना ही नही चाहिए था। और न ही कोई दूसरा मेरे दिमाग़ में आया। यह ज़रूर लगा कि कैसे कोई इतना वरिष्ठ अधिकारी इतनी अनैतिक और ग़ैरक़ानूनी बात सोच सकता है। और इतना ही नहीं, अपने कनिष्ठ अधिकारी के साथ ऐसी बातचीत कैसे कर सकता है, जिसमें धोखाधड़ी ही धोखाधड़ी हो।
पर शायद उनकी और उनके जैसे व्यक्तियों की सोच पृथक होती है जो आगे बढ़ने के लिए कोई भी हथकण्डा अपना सकते हैं। मेरे प्रश्न का उत्तर मुझे बाद में मिला जब सेवा से अवकाश ग्रहण करने के बाद उन्हें अधीनस्थ सेवा चयन आयोग का अध्यक्ष बनाया गया और वहाँ उनकी कार्य प्रणाली से त्रस्त होकर आयोग के सचिव को त्यागपत्र देना पड़ा और दूसरी सरकार के आने पर सरकार को आयोग ही भंग करना पड़ा। क्योंकि उनका कार्यकाल फ़िक्स था और हटाने की प्रक्रिया की बजाय दूषित हो चुके आयोग को भंग करना सरल, और मुनासिब भी था।
पर तब इस प्रकार की विचार धारा का पोषण करने वाले लोक सेवक बहुतायत में नही थे और इसीलिए उन्होंने मुझे हुक्म-उदूली का सबक़ सिखाने का साहस नहीं किया। अब फ़र्क़ यह है कि ऐसे सफल (?) व्यक्तियों को ही समाज प्रतिष्ठा देता है। चाहें सफलता कितनी ही अनैतिक रास्तों पर चल कर क्यों न अर्जित की गई हो ? अब लोक सेवकों और राजनीतिकों का गठजोड़ होना ही नियम है और किसी लोक सेवक का क़ानून का पालन करना या करवाने का प्रयत्न करना अपवाद है। ज़ाहिर है सेवा समाप्त होने के बाद टेलर-मेड आयोग का गठन करवाना और उस पर पीठासीन होना ऐसे ही नही होता।
बाद में इसका चस्का इतना लगा कि लोक सेवा आयोग तक में उनकी ही, दोहराऊँगा ही, नियुक्ति होने लगी जो चयन में मेरिट के अलावा अन्य गुणों यथा जाति, धन को वरीयता दें। पर यह एक दिन में नही हुआ, बीज तो तब भी थे जैसा मेरा यह अनुभव बताता है, पर यह विशालकाय वृक्ष इसलिए हो पाया क्योंकि लोक-सेवकों ने बहुत सस्ते में अपने को बेच दिया या गिरवी रख दिया और पेड़ को बढ़ने से रोका नही।
मै यह तो नही कह सकता कि कोई दुरभि-संधि थी पर यह अवश्य कहूँगा कि आजकल जिस तरह विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं के आसीन बड़े लोग सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद विभिन्न सदनों में अपनी नयी सीट हथिया लेते हैं, वह उनकी स्वयं तो दूर, संस्था की गरिमा के अनुकूल तो हरगिज नही है। सोचिए ,कहाँ पूरे मुल्क में केवल एक पद पर आसीन होना और कहाँ सैकड़ों सांसदों की भीड़ में एक होना। ख़ास तौर पर तब ,जब एक जन आंदोलन के मुद्दे पर फ़ैसला देने के फ़ौरन बाद पद छोड़ा हो। इससे लोगों को फ़ैसले पर ही प्रश्न चिन्ह उठाने का मौक़ा मिला।
तबसे अब तक गंगा में बहुत पानी बह गया है पर धीरे धीरे वह पानी नही कीचड़ होता जा रहा है बावजूद स्वच्छ गंगा अभियानों के : भौतिक रूप में भी और प्रतीकात्मक रूप में भी।
( इलाहाबाद के मंडलायुक्त रह चुके देवेंद्र नाथ दुबे की छवि एक बेबाक और ईमानदार अफसरों में गिनी जाती है। )