: सरकार की जरूरत ही क्या, जब सोनू सूद मौजूद है : विकास और कोरोना को सम्भाल पाने में असमर्थ हो चुकी है सरकार : उसे मंदिर ही बनाना है, इंसान नहीं :
कुमार सौवीर
लखनऊ : सरकार चलाने के लिए आम चुनाव करना होता है। यह काम करता है चुनाव आयोग, जिसका मुखिया होता है मुख्य निर्वाचन आयुक्त। साथ में होते हैं दो अन्य आयुक्त। उसके बाद चुनाव की तैयारी करनी होती है। यह काम सौंपा जाता है सरकारी अमले पर, शासन से लेकर जिलों के चपरासी तक इसी काम में जुटे रहते हैं। कभी सोचा है आपने कि इस पूरे निर्वाचन आयोजन में आखिर कितना खर्चा होता है सरकारी खजाने से।
लेकिन इसके बाद भी कहां बन पाती है सरकार। विधायक-सांसद चुन जाने के बाद हर पार्टी के बड़े नेता अपने विधायक और सांसदों को छिपाने की जुगत में फंसे रहते हैं कि न जाने कौन कैसे बिल खोद कर हमारे खेमे के विधायक-सांसद के साथ झपटमारी-लैमारी कर बैठे। सभी दल गिद्ध-दृष्टि जमाये रहते हैं, जैसे गोश्त बेचने वाला चिकवा-कसाई अपनी बकरी, भैंस, सुअर या मुर्गे के गोश्त को रखते रहता है। उसके बाद ही सरकार बन पाती है, लेकिन वह भी फ्लोर पर गिनती के बाद। उसके पहले अगर कोई केकड़े की तरह भाग गया, या बिक गया, तो समझो हो गया सत्यानाश।
चलिए, यह भी हो गया कि सारा झंझट भी निपट गया। लेकिन इसके बावजूद काम कहां हो पाता है। सरकारी में बैठे लोग अपने इलाकों और विभागों में सरकारी खजाना को खाली करने में जुट जाते हैं। कमीशन की दर अक्सर फिर 45 से 85 फीसदी तक पहुंच जाती है। ठेकेदार, इंजीनियर, अफसर, इलाके का दबंग, और उसके बाद विधायक और मंत्री भी काम की लाश में अपना-अपना हिस्सा खींचना शुरू कर देते हैं। कामधाम हो गया ढक्कन। केवल शिलालेख जरूर बन जाते हैं, लेकिन वह भी कुछ दिनों में ही ढह होने लगते हैं। आखिर उस शिलालेख के निर्माण में भी तो मोटा कमीशन लिया जाता है, कि नहीं। नजीर है बिहार की एक नदी पर पौने तीन सौ करोड़ रुपयों से बना एक नया-नकोर पुल, जो पिछले हफ्ते ही शहीद हो गया।
और फिर पुल ही क्यों, सरकारी संस्थाएं भी भारत में लगातार ढहती ही जा रही हैं। आप देश के किसी भी कोने में बने सरकारी अस्पताल को टटोलने की कोशिश कीजिए। सरकारी अस्पताल में दर्द, प्रसव या छोटे-मोटे मर्ज के लिए भी डॉक्टर वगैरह नहीं। वे सबसे पहले तो कोरोना जांच के लिए कहते हैं, जो साढ़े चार हजार रूपयों में होता है। कोरोना अस्पताल में तो इलाज ही नहीं, सिर्फ मजाक ही होता है। जीवन देने के लिए बनाये गये अस्पताल अब मरीजों में मौत की सम्भावनाएं खोजने के बाद उन्हें शवगृहों में तब्दील हो चुके हैं। लखनऊ के मेडिकल कालेज में लाशें पड़ी हैं, उठाने वाला नहीं। अफसर फोन ही नहीं उठाते। बरेली में बेड के ऊपर से झरना बहता रहता है। ललितपुर में चार दिनों से पानी नहीं मिल पा रहा। बीएचयू के अस्पताल में लाशों का अम्बार लगा है, मरीज सड़क पर पड़े हैं। बिहार में तो अब टेस्टिंग ही खत्म हो गयी बताया जाता है। लेकिन सरकार उस पर नजर ही नहीं डालती। उसका मकसद तो केवल मंदिर का निर्माण तक ही सीमित हो चुका है। सारी तैयारी केवल राममंदिर के लिए। भव्य मंदिर बने, बस। बाकी जनता गयी भाड़ में। हां, बवाल हो तो एनकाउंटर की सुविधा जोरदार है देश भर में। खास कर यूपी में।
विकास की हालत यह है कि आंध्रप्रदेश के चित्तौर जिले के एक सुदूर गांव में की दो बेटियों ने बैल न होने चलते खुद को बैलों की तरह जोत लिया। यह परिवार गरीब है, और टमाटर उगाने की तैयारी में है। लेकिन बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा देने वाली सरकार को खेतों में पसरी जा रही ऐसी विभीषिका के बारे में कोई खबर ही नहीं है। इस बारे में अफसर भी सुन कर दूसरे कान से निकाल देते हैं।
पत्थर होती जा रही मानवता और संवेदना की ऐसी हालत में अगर हजारों मील दूर बैठे एक इंसान की आंखों में ऐसी बेटियों की हालत देख कर आंसू बहने शुरू हो जाते हैं, और वह तत्काल कैसे भी हो, दो जोड़ी बैल और एक ट्रैक्टर इन बेहाल बेटियों व उनके परिवार तक पहुंचा देता है, तो क्या आपको अजीब नहीं महसूस हो रहा है ? कोरोना की त्रासदी के दौर में इलाज और पेट में धधकती आग को बुझाने की कोई भी ठोस कोशिश सरकार ने की हो, तो बताइये। सारा ठीकरा तो निजी व्यक्तियों के समूह ने किया, या फिर स्वयंसेवी संगठनों ने किया। मुम्बई में दस लाख से ज्यादा प्रवासी मजदूर अपने देस-मुलुक तक वापस जाना चाहते हैं, लेकिन सरकार के पास संसाधन ही नहीं है। ऐसी हालत में एक जुझारू और संवेदनशील व्यक्ति अगर अपने अकेले दम में हजारों बसों-ट्रकों से सुदूर क्षेत्रों तक पहुंचा दे रहा है, तो हम भगवान किसे कहें ? जनता में भुखमरी की हालत को सम्भालने की जिम्मेदारी तो सरकार की है, लेकिन अगर इसके बावजूद सरकार अपने आंख, कान, गला और जुबान को खामोश रखे ही है, तो फिर हमें ऐसी सरकार की जरूरत ही क्या है।
अब आप खुद ही तय कीजिए कि डरावनी निर्वाचन प्रक्रिया से उपजी नाकारा सरकार जब हमारी अपेक्षाओं पर कान तक नहीं दे रही है, तो हम उस सरकार को खारिज ही क्यों नहीं कर देते। जाइये, सीधे सोनू सूद के पास अपनी अरदास पहुंचाइये। हालात सम्भालने में सरकार नाकारा हो चुकी है। ऐसी हालत में अपनी उम्मीदों की लौ किसी दूसरे चिराग में खोजिए।
आखिर अनिल कपूर और रानी मुखर्जी ने भी तो करीब तीस बरस पहले एक दिन का मुख्यमंत्री वाली फिल्म बनायी थी। वह तो सिर्फ एक फिल्म थी, एक महज किस्सा था। लेकिन सोनू सूद तो जीवंत है, जुझारू है, संवेदनशील और कर्तव्यशील भी है।
हम राजनीति का सम्मान सर्वोच्च स्थान पर रखते हैं। लेकिन राजनीति करने वालों का चरित्र भी तो देखना होगा न। सोनू सूद राजनीति से परे भले ही हो, लेकिन मानवीय तो है ही। है कि नहीं ? अब अगर सोनू सूद जैसे लोग ही समाज में सामने नहीं लाये जाएंगे, तो फिर कपटी, धूर्त और कमीने नेताओं के चेहरों पर तमाचा कैसे जड़ा जाएगा ?
बहुत बढ़िया।
भाषा को जिवंत करना कोई आप से सीखे सरकार व मानव के बीच की कड़ी है ।इस लेख के लिए 🙏😎सरकार के रवैए पर😠