: इतनी निगेटिव उर्जा कहां से मिलती है आईजी मोहित अग्रवाल जैसों को : कोठी के बुजुर्ग मालिक व खानदान पर रासुका की साजिश : दारोगा सिर्फ घूसखोर, बड़े अफसर नमकहराम :
कुमार सौवीर
लखनऊ : फर्रुखाबाद के करथिया में एक व्यक्ति को झूठे आरोप लगा कर पुलिस ने एनकाउंटर के नाम पर उसके ही घर पर मार डाला। झूठ ऐसा फैलाया गया कि भीड़ ने उसकी पत्नी को भी पीट कर मार डाला। वजह थी, थाने के पुलिसवाले उसकी पत्नी का जबरन देह-शोषण करते थे। आजिज आ गया था फिर कानपुर के चौबेपुर कांड में विकास दुबे और उसके छह साथियों को एक ही अंदाज में मौत के घाट उतार दिया पुलिस ने। एक घटना में कार सड़क पर पलट गयी और दोनों पैरों में रॉड होने के चलते बमुश्किल चल पाने वाले विकास दुबे को भागते वक्त गोलियों से भून डाला। हैरत की पुलिस की गोली भागते विकास दुबे की छाती पर पड़ी, सीने पर नहीं। उसके बाकी साथियों को भी पुलिस ने कभी कार खराब होने के चलते भागते वक्त मार डाला, तो कभी पहिया पंक्चर हो कर भागने से। किसी को दौड़ते वक्त मारा, तो कभी हमला करते वक्त। अजब-गजब कहानी बुन दी गयी ऐसे हत्याकांडों में, कि किसी पर कोई यकीन तक नहीं कर सके।
हम मानते हैं कि विकास दुर्दान्त अपराधी था, लेकिन किसी की हत्या का अधिकार पुलिस को कैसे सौंप दिया गया, मेरी चिन्ता का विषय यह है। मेरी चिन्ता का विषय यह है कि आपके बेटे को एनकाउंटर के नाम पर पुलिस मौत के घाट न उतार दे। पुलिस का दायित्व अपराधियों को दबोचना है, उनका कत्ल कर डालना नहीं। अभियुक्त को अदालत तक पहुंचाने का जिम्मा है पुलिस का, अदालत का सर्वनाश करना नहीं। अपनी असफलता की खिसियाहट और खौखियाहट आम आदमी पर उगलने की प्रवृत्ति तो समाज को भयभीत कर बैठेगी।
चाहे फर्रुखाबाद के करथिया गांव का मामला हो या फिर कानपुर के चौबेपुर के विकास दुबे का, इन सारे अभियानों को सम्भाल रहे थे कानपुर के आईजी मोहित अग्रवाल। उनकी शोहरत खासी कुख्यात है। चाहे वह बस्ती का मामला हो, जिसमें पूरे खानदान को अपना घर ही छोड़ कर प्रदेश के बाहर भागना पड़ा, और या फिर रायबरेली में एक बड़ी कोठी को कुख्यात डाकू ददुआ के खासमखास के हवाले करने की साजिश रही हो। इस कोठी को कब्जाने के लिए पुलिस ने उसके वयोवृद्ध मालिक और उसके पूरे खानदान को उस राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल में ठूंसने की साजिश की जिसमें एक बरस तक जमानत तक की गुंजाइश नहीं होती है। मकसद यह कि इस बुजुर्ग व उसके खानदान को रासुका में बंद करने की साजिश इसलिए बुनी गयी, ताकि उस कोठी पर किरायेदार का कब्जा उस कोठी पर हो जाए। कहने की जरूरत नहीं कि वह किरायेदार ही ददुआ डाकू का खासमखास था।
तो चाहे वह रायबरेली का मामला हो, या फिर बस्ती अथवा फर्रुखाबाद और कानपुर का, इन सारे मामलों में कानपुर के पुलिस महानिरीक्षक मोहित अग्रवाल ही असली बुनकर साबित हुए हैं। लेकिन सवाल तो यह उठता है कि आखिर मोहित अग्रवाल को इतनी उर्जा कितनी, कैसे और कहां से मिलती रही है। दोलत्ती के विश्वस्त सूत्रों का कहना है कि ऐसी बुनावट पुलिसिंग के मूलभूत सिद्धांतों और परिभाषाओं के आधार पर बने कौशल से नहीं बन पाती है। बल्कि पुलिस में आकण्ठ धंसे बेईमान, निकृष्ट, अराजक, नराधम और पुलिस के नराधम पुलिसकर्मियों और अधिकारियों के इशारे पर ही अपनी गंदगी फैला पाते हैं ऐसे अफसर। मसलन, रायबरेली वाले मामले में मोहित अग्रवाल ने तनिक भी बुद्धि नहीं लगायी कि आखिर असल मामला क्या है, और एक कप्तान की कुर्सी पर बैठने के बाद उसका क्या-क्या दायित्व होता है। ऐसे मामले में मोहित अग्रवाल ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों के सामने नतमस्तक होकर जो निकृष्ट फर्शी सलाम ठोंका, वह वाकई निहायत बेशर्म और पुलिसिंग पर एक घटिया कलंक ही कहा जाएगा।
अब देखिये कि रायबरेली वाले मामले की मूल जड़ क्या थी। दरअसल, रायबरेली में तब के पुलिस अधीक्षक थे मोहित अग्रवाल, जो अपनी बढि़या पोस्टिंग के लिए बेहाल रहा करते थे। आदत आज भी बदस्तूर है। तो उस वक्त अरविंद कुमार जैन एडीजी ( कानून-व्यवस्था) हुआ करते थे। अरविंद जैन के करीबी शर्मनाक और घटिया घनिष्ठ रिश्ते थे डाकू ददुआ से। ददुआ का एक करीबी रायबरेली में एक बुजुर्ग के बड़ी कोठी में किरायेदार के तौर रहता था। लेकिन उसकी मंशा थी कि वह कैसे भी हो, यह कोठी कब्जा कर ले। ददुआ ने एडीजी अरविंद जैन को बुला कर कहा, तो अरविंद जैन ने लपक कर अपना सिर ददुआ के चरणों में टिकाते हुए कहा कि, जी माई-बाप। आपका हुकुम हो जाएगा।
मोहित अग्रवाल की यह करतूत तब की है, जब रायबरेली की पुलिस का जिम्मा थामे थे मोहित। तब जिले के कलेक्टर थे देवेंद्र नाथ दुबे। जरा सुनिये, कि क्या-क्या कारनामे नहीं किये थे मोहित अग्रवाल ने। और हां, मोहित इस वक्त कानपुर के पुलिस महानिरीक्षक पद पर सुशोभित हैं, सुसज्जित हैं।
लोक-दायित्व नहीं, अपनी करतूतों से कुख्यात हैं मोहित
अरविंद ने मोहित को लखनऊ तलब किया, और हुक्म दे दिया। नतीजा मोहित ने अपने आका अरविंद जैन के चरण-स्पर्श कर उनकी चरण-धूलि ली, चरणोदक प्राप्त किया और उस कोठी के वयोवृद्ध मालिक समेत पूरे परिवार को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में पाबंद करने की कवायद छेड़ दी। फाइल भेजी गयी रायबरेली के तब के जिलाधिकारी देवेंद्र नाथ दुबे को। देवेंद्र दुबे ने पूरा मामला पढ़ा तो दिमाग ठनक गया। पूछताछ की तो मोहित अग्रवाल के छक्के छूट गये। सब बकने लगे मोहित। नतीजा यह कि वह खानदान बच गया और उसकी कोठी भी। लेकिन बस्ती, फर्रुखाबाद और कानपुर में ऐसा नहीं हो पाया। कत्ल कर डाला मोहित-पुलिस ने।
राम राम । इतनी शानदार सविस और ऐसा नीच काम । अरविन्द जैन और मोहित आग्रवाल दोनों साहबानों को ऐसे पाप से बचना चाहिए था । पाप करेंगे तो भरेगा कौन , यह भी सोचना चाहिए उहें।