बलिया की पूंछ ही उठाते हैं प्रेस, नेता, पुलिस व अफसर

दोलत्ती


: कांखते बहुत हैं कप्तान डूबे जी, डीएम ने कटवाया कोरोना-कोपभवन का टिकट : जवानी की सेक्सोलॉजी वाली क्रोनोलॉजी और सरकारी नौकरी के आखिरी वक्त में दिल ज्यादा धडकता है :

कुमार सौवीर

बलिया : बलिया को यूपी के नक्शे में कभी गौर से देखियेगा। साफ दिखेगा कि बलिया जिला यूपी की पूंछ की तरह ही है। अब यह संयोग है या नहीं, लेकिन सच तो यही है कि चाहे वह यहां का प्रशासनिक अफसर हों, पुलिस हो, नेता हों या फिर जिले में यत्र-तत्र-सर्वत्र पसरे करीब छह सौ से ज्यादा लकड-बग्घा बने पत्रकारों को जब भी भोजन, विश्राम या आनंद लेने का मूड होता है, वे इसी पूंछ को उठा लेते हैं। फिर उनका सारा तनाव हर्ष और उल्लास में तब्दील हो जाता है।

एक दर्दनाक कमेडी में तब्दील कर दिया है पत्रकार, नेता, पुलिस और अफसरों ने बागी बलिया को। लोम-अनुलोम और उल्टा-पुल्टा की सारी सम्भावनाओं को यहां कूट-कूट कर भर दिया है अफसरों ने। और जो रही-सही कचूमर हो सकती थी, उसकी प्रतिपूर्ति कर दी है सरकार ने। पूरा का पूरा जिला आजकल टोटल दर्दनाक मजाक में तब्दील हो चुका है। ऐसे में पुलिस और प्रशासन क्या-क्या करता होगा, उससे तो भगवान भी अनभिज्ञ होंगे।
तो यहां से पहली कमेडी की फुलझड़ी छूटी सीडीओ के कोरोना-दिग्दर्शन से। पहले तो कुछ दिन खांसे-कूदे सीडीओ विपिन जैन, लेकिन उसके बाद आखिरकार अपना कोरोना परीक्षण करा ही लिया। सैम्पल की रिपोर्ट आयी तो प्रशासन सन्नाटे में आ गया कि विपिन जैन तो कोविड-सकारात्मक हो चुके हैं। जिले में हंगामा मचने लगा कि जब प्रशासन में दूसरे नम्बर का अफसर कोरोना से ग्रसि​त हो चुका है, तो बाकी जनता का क्या होगा?
लेकिन बजाय इसके कि प्रशासन इस बारे में कोई ठोस कार्रवाई करने की कोशिश के बारे सोचना शुरू कर पाता, सरकारी कामकाज से बखूबी परिचित कलेक्टर श्रीहरि प्रताप शाही ने खुद को ही कोरंटाइन कर लेने में अपनी भलाई समझी। न पीए-पीएस, न अर्दली या चपरासी और न फोन-मोबाइल। न होगी बांस, और न ही बजेगी बांसुरी। न जाने किस डगर से, किस खडंजे से यह कोरोना जिलाधिकारी के घर या दफतर की कुंडी चुपचाप बजा दे। बैठे-ठाले वह भी कोरोना हो जाए, जो शाही के प्रताप तो दूर, खुद श्रीहरि तक को अहसास न हो पाये, तो बवाल कौन लेगा? जिला गया सिकट्ठे पर।
नतीजा यह हुआ कि जिला का जिम्मा डीएम और सीडीओ की लम्बी गैरहाजिरी के चलते सीधे एडीएम को मिल गया। एडीएम की तो पौ-बारह हो गयी। उन्होंने कभी सपने में भी न सोचा होगा कि उनको डीएम का जिम्मा मिल पायेगा। वह भी तब, जब वे नायब तहसीलदार के पद से प्रोन्नति होते-होते एडीएम की कुर्सी पर मोरपंखी बने जमे हैं।
उधर, अब हवाल सुनिये पुलिस के मुखिया कप्तान का। नाम है देवेंद्र नाथ। न जाने क्यों वे अपने नाम के पीछे सरनेम नहीं लिखते, वरना पूरा नाम होता देवेंद्र नाथ दुबे। हालांकि बताने वालों का कहना है कि योगी सरकार में खाली देवेंद्र नाथ लिखना ही श्रेयस्कर होता है। दुबे-डूबे के चक्कर में तो कुर्सी भी न जाने गंगा-घाघरा के तेज में कब-कहां फिसल जाए, कोई भरोसा है आजकल। ससुर हमारा ही डिपार्टमेंट वाला बड़ा-बड़ा अफसर उज्जैन से कानपुर लाकर रास्ते कार बदलना ही नहीं, उसको पलट कर यात्रियों को उप्पर वाली तीर्थ-यात्रा पर भेज देते हैं भोंश्री वाले। कानपुर वाले बिकरू के विकास दुबे और उसकी समर्पित टीम को इस तरह जमीन पर पुलिस ने सफेद कपडे ओढा दिया, उससे समाज में एक संदेश तो चला ही गया है बिना डाक-टिकट चिपकाये हुए। पंडीजी लोग आजकल साइबेरिया में सिर्फ चढढी पहने थरथर कांप रहे हैं। हालांकि यह अफवाहें ही हैं, यह उनके करीबी लोगों ने समझाया है ताकि देवेंद्र नाथ जी की धडकनें बहुत स्पीड न पकड लें। वह क्या है कि जवानी की सेक्सोलॉजी वाली क्रोनोलॉजी के साथ ही साथ सरकारी नौकरी के आखिरी वक्त में दिल ज्यादा धडकने लगता है न, इसलिए।
दुबे जी को एक दिक्कत है। वह यह कि उनको ढेर सारी दिक्कतें हैं। आप उनके पास जाइये और उनके सामने की कुर्सी पर बैठें, तो कुछ ही अचानक दुबे जी कुर्सी से उठ जाएंगे और बदन को मोड़ना-मरोड़ना शुरू कर देंगे। सामने वाला भी हड़बड़ा कर खड़ा हो जाएगा। कप्तान का व्याकुल सर्कस देख कर परेशान हो जाएगा। आखिरकार जस्ट टू पे सैम्पेथी, पूछ ही लेगा कि सर क्या हुआ, कोई दिक्कत?
मुंह चिधोरते हुए देवेंद्र नाथ दुबे जी बताएंगे कि घुटने और कमर में दिक्कत है। यूरिक एसिड चेक करवाया है। पसली में दर्द तो खैर पसीने से हो जगा है, लेकिन पेड़ू का दर्द अब सहन नहीं होता। यूरोलोजिस्ट को दिखाऊंगा लखनऊ जाकर। लेकिन क्या करूँ। ऊपर वाले अफसर साले सब हमको हरामखोर समझते हैं और खुद को बड़ा होशियार। अभी दस-बीस बदमाशों को नदी के किनारे ले जाकर ठांय-ठांय करा दूँ, तो यही सब हमसे बीसों सवाल पूछना शुरू कर देंगे। जबकि हम काम पर यकीन करते हैं। देख लीजिए हमारे दोनों हाथों की कलाइयां और उंगलियां, जो दर्द से बेहाल रहती हैं। अकेले हजार अर्जियां पढ़ना और उस पर आदेश लिख कर दस्तखत बनाना कोई मजाक नहीं होता है। खैर, आप अपना काम बताइए। या फिर ऐसा कीजिये कि अगले हफ्ते आइए। तब तक मैं स्वस्थ भी हो जाऊंगा। आज तो वाकई बहुत थक चुका हूँ।

मगर आप झुक कर क्यों चल रहे हैं?
कोरोना का माहौल है, कोरोना का। एक ने बताया कि काढा पीने से कोरोना भाग जाता है, तो हमने धकाधक काढा पीना शुरू कर दिया। लेकिन नतीजा उल्टा हो गया। ठीक-ठाक निबटते थे। अब काढा से बवासीर जैसी हालत हो गयी है। कई बार तो ऐसा लगता है कि फायर ब्रिगेड ही बुलवा लूं। हो हो हो, खीखीखी।
उधर हमारा साथी था पीलीभीत का कप्तान। वहां के डीएम के साथ उसने पूरे शहर में कोरोना वाली थाली:टठिया बजवायी। बाकायदा जुलूस निकलवा दिया था उसने। हमने भी जम कर थाली-लोटा बजाया। तब से ही कंधा लगता है उखड गया है। आयोडेक्स की पांच दर्जन शीशी इस्तेमाल कर चुका हूं। क्या करूं, काम न करूं तो क्या करूं। योगी जी बांस-बल्ली लेकर खडे रहते हैं। तनिक भी चूक जाउं, तो काम लग जाए हमारा।
अब अगली हाजिरी ले लीजिए अपर पुलिस अधीक्षक की। नाम है संजय। लेकिन न जाने उनको देवेंद्र नाथ दुबे जैसी बीमारी लग गयी, कि उन्होंने अपने सरनेम यादव के बजाय सीधे संजय लिखना शुरू कर दिया। संजय समझदार हैं और यह भी हो सकता है कि वे पुरानी सरकार की जाति-परक सोच का प्रभाव योगी सरकार में अपने साथ नहीं जोडना चाहते हैं। वो गाना है न कि बुर्के में रहने दो, बुर्का न उठाओ, बुरका जो उठ गया तो…. इसलिए संजय को चुपचाप संजय ही बने रहना बेहतर लगता है।
हालांकि इन संजय का नामाराशि नाम का एक संजय और था, जो महाभारत में ​बरामद हुआ था। वह संजय विद्वान गावाल्गण नाम के एक सूत के पुत्र थे, जो मूलत: बुनकर जाति के थे। हालांंकि उनका मूल दायित्व था राजा का रथ हांकना। लेकिन बलिया वाले इस संजय का धंधा है मुकदमों में तथ्यों को तोडमरोड कर पेश करना, लोगों को सरेआम हौंकना, आम आदमी को डंडा मारना, गालियां बकना और और और खैर छोडिये। दूसरे के बारे में भी तो अभी बातचीत करनी है हमको आपसे।
सीओ सदर हैं चंद्रकेश सिंह। लेकिन शहर में उनकी छवि केवल एक पक्के बकलोल की सी ही बन गयी है। हालत यह है कि टीवी चैनल के कर्मचारी रतन सिंह की हत्या के बाद जब राज्यमंत्री उपेंद्र तिवारी अपने टेंट-फेंटा से एक लाख रुपया पीडित परिवारीजनों को देने के लिए मौके पर गये और वहां आसपास मौजूद पत्रकारों को बयान दे रहे थे, तो यही चंद्रकेश सिंह अपनी कार में बैठ कर एसी की ठण्डे झोंके में औंघाय रहे थे। जबकि उसके पहले फेफना का इंस्पेक्टर सिर्फ जांघिया-बण्डी में दौरा करता था।
तो यह तो रही यह दास्तान-ए-बलिया के कारस्तानी-ए-प्रशासन-ए-सरकार। अगली बार आपको बलिया के दीगर मसाइलों की तस्वीरें दिखायेंगे हम लोग। अब दीर्घशंका की तरह प्रतीक्षा कीजिए कल तक।

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