मनुष्य और कुछ नहीं, मात्र एक भटका हुआ देवता है
घर-घर में गुंजा दिया सिंहनाद: हम बदलेंगे, युग बदलेगा
पूरी विश्व-वसुधा को पाट दिया अपनी मानस संतानों से
मूल्यों पर बात की व धरा पर स्वर्ग के अवतरण की कल्पना
दुनिया भर में गायत्री पीठों की संख्या आज हजारों में
आधुनिक भारत में दो महान संत हुए। एक ने समाज के सांस्कृतिक व धार्मिक मूल्यों से हटकर खुदा को हासिल करने का रास्ता खोजा, जबकि दूसरे ने भारतीय सांस्कृति के मूलभूत तत्वों को पुनर्जीवित कर मानव में देवत्व और धरा पर स्वर्ग के अवतरण की कल्पना की।
पहले संत का डंका तो शुरूआत में अमेरिका से गूंजा और बाद में भारत तक फैला, जबकि दूसरे ने बीहड़नुमा अपने गांव से निकलकर स्वतंत्रता संग्राम व पत्रकारिता जैसे अनेक दायित्व निभाये। लेकिन वह भारत के कोने-कोने में अपनी जमीन मजबूत करने में सफल हो गया। उसके बाद तो देश-विदेश तक में उसका सिंहनाद गूंजा। पहले संत को उपभोक्तावाद से ऊबे लोगों का साथ मिला, जबकि दूसरे ने देश और समाज के दलित, वंचित और निर्बल समाज को अपनाया। अपने सहयोगियों से मात्र बीस पैसा अंशदान से उसने एक बेमिसाल इमारत खड़ी कर दी। उसने अवाम को देवत्व प्रदान कराने के लिए गायत्री और वेद मंत्र जैसे तत्वों को जन-जन तक पहुंचा दिया।
तो पहले संत का नाम आचार्य रजनीश है जबकि दूसरे का नाम आचार्य श्रीराम शर्मा। लेकिन रजनीश के नाम के साथ सम्पूर्ण हैं, जबकि श्रीराम शर्मा के नाम के साथ अर्धनारीश्वर के तौर पर उनकी पत्नी गायत्री का नाम अविभाज्य रूप से जुड़ा है। श्रीराम शर्मा-गायत्री शर्मा की मेहनत का नतीजा आज देश के हर गांव-कस्बे-मोहल्लों और शहरों में गायत्री पीठ के तौर पर देखा जा सकता है। जहां पीतांबर वस्त्रधारी स्त्री-पुरूष प्रात: चार बजे से ही वेदमंत्रों का जाप करते मिल जाएंगे। यह लोग स्वयं को आचार्य के सूक्ष्म अस्तित्व का मानसपुत्र मानते हैं। आध्यात्मिक केंद्र के रूप में हरिद्वार की गायत्री पीठ और मथुरा का युगनिर्माण योजना पीठ आज सामाजिक-सांस्कृतिक नवजागरण की नित नयी गाथाएं लिख रहा है। इस समय आचार्य की जन्मशती वर्ष भी है। श्रीराम शर्मा को तो बाकायदा वेदमूर्ति कहा जाता है। अनुमानों के अनुसार ब्राह्मण की मौलिक परिभाषा का प्रसार करने वाले इस संत ने अपनी अस्सी साल के जीवन में आठ सौ साल का काम कर दिखाया।20 सितम्बर सन 1911 को अश्विनि की तेरहवीं अंधेरी रात में आगरा के निकट आवंलखेड़ा में जन्मे इस श्रीराम शर्मा किशोरावस्था तक गांव में ही रहे। धार्मिक पिता रूपकिशोर शर्मा ब्राह्मण, मगर जमींदार थे। बच्चे पर भी इसका गहरा असर पड़ा। भावुक बालमन आत्मशिक्षा की ओर भी बढ़ा। जाति-भेद ने झकझोरा तो कुष्ठरोग से पीडित गांव की ही एक अछूत महिला की सेवा में जुट गये। एक अछूत के घर कथा भी कर आये। विरोध हुआ तो एक दिन भाग निकले घर छोड़कर। पकड़े गये तो वंचित नारियों और युवाओं के लिए बुनकर आश्रम खोला। सन 26 की वसंत पंचमी पर महामना मदनमोहन मालवीय ने उन्हें गायत्री मंत्र देकर गुरूसत्ता का बोध कराते हुए दीप-प्रज्ज्वलन का महत्व समझाया। बस राह मिल गयी। जीवन जौ की रोटी और छाछ पर आश्रित हो गया। निजी आवश्यकताएं सीमित और सामाजिक दायित्व विशालतम होते गये। स्वतंत्रता संग्राम में कूदे। कई बार जेलयात्राएं कीं। लेकिन हर जगह वे दूसरों को अक्षरज्ञान व खुद को स्वाध्याय कराते रहे। आसनसोल जेल में नेहरूजी की माता, रफी अहमद किदवई, मालवीय जी, देवदास गांधी जैसी हस्तियों का सानिध्य मिला। जरारा आंदोलन में अंग्रेजों की मार सहते रहे, लेकिन जमीन पर तिरंगा न गिरे, इसके लिए उसे दांतों में दबोचे रखा। नया उपनाम पड़ा- मत्त।
फिर टैगोर, अरविंद, बापू से भेंट करने के लिए वे देश भर घूमे। अचानक ही आगरा में कृष्णदत्त पालीवाल ने अपने सैनिक अखबार में बुलाया। अब पत्रकारिता शुरू कर दी। अपनी कल्पना की अखंड-ज्योति पत्रिका सन 38 में शुरू की जो आज विभिन्न भाषाओं में दस लाख से ज्यादा छपती है। घियामंडी में अखंड ज्योति संस्थान खोला। सन 53 में गायत्री तपोभूमि बनाने के लिए पत्नी गायत्री ने अपने जेवर और आचार्य ने सारी संपत्ति बेच दी। इसी के साथ शुरू हुआ भारत में ज्ञान व जनजागरण के समुद्र का विस्तार जो आज विश्व के अधिकांश देशों को तृप्त कर रहा है। 59 में यह दायित्व अपनी पत्नी को सौंपा और आश्रय खोजा हिमालय में जहां वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, स्मृति, आरण्यक जैसे महानतम ग्रंथों के संकलन-प्रकाशन का अब तक का सबसे विराट दायित्व निभाया। निषिद्ध माने जाने वालों के कानों तक गायत्री-मंत्र तो अब तक पहुंच ही चुका था। इस मुकाम तक पहुंचने के लिए आचार्य ने एक घंटा श्रमदान और बीस पैसा प्रतिदिन का योगदान अपने समर्थकों से लेना शुरू किया। गदगद लोगों का सहयोग हौसला बढाता गया, और काफिले की रफ्तार तूफानी होती गयी। गांव-गांव में 1008 कुंडीय यज्ञों का आयोजन शुरू हो चुका था। सन 80 से एक आंधी शुरू हो चुकी थी स्थानीय सहयोग से बनने वाले गायत्री शक्तिपीठों की। जन जागरण का सैलाब अप्रतिम। आचार्य जी का इशारा ही काफी था। माता गायत्री बाकायदा इस विशाल जहाज को किसी निपुण मल्लाह की तरह खेने में जुटी थीं। अगले एक दशक में देश-विदेश में ऐसी 4600 से ज्यादा पीठ बन चुकी थीं, जहां प्रज्ञा-संस्थान, शक्तिपीठ, प्रज्ञामंडल, स्वाध्याय मंडल के रूप में नव जनजागरण को आंदोलन का रूप दिया जा रहा था। ज्ञान की यह पीठें अब तक घर-घर में घुस चुकी थीं। एक नये युग का निर्माण करने के लिए।
आचार्य ने बेहिसाब साहित्य लिखा। हर विषय पर लिखा और बोला भी। चाहे वह देश-विदेश के महानतम योगी, सांस्कृतिक महामना रहे हों, या फिर समाज को एक नयी दिशा देने वाली समाजसेवी, वैज्ञानिक, चिंतक अथवा ऋषि या राजनेता। विशद अध्ययन और प्रस्तुतिकरण लोगों में परागकणों की तरह फैला। आचार्य ने आध्यात्मिक सोच को अमली जामा पहनाने के लिए ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान बनाया। जहां विज्ञान और आध्यात्म को एकसाथ जोड़कर नये तथ्य प्रतिपादित किये। विशाल लाइब्रेरी बनी और प्रयोगशाला भी। वे अदृश्य जगत से लेकर आधुनिक अनुसंधानों तक को समझना-समझाना चाहते थे। आम आदमी के लिए। जंगली ओषधियों, यज्ञविज्ञान और मंत्रशक्ति का प्रयोग उन्होंने गायत्री साधकों पर करना शुरू किया। यह प्रयोग अनुपम रहा जो आज प्रज्ञापेय जैसी ओषधियों के तौर पर हमारे सामने है। वे ध्यान, साधना, मंत्र चिकित्सा व यज्ञोपैथी को विधा के तौर पर मान्यता देते थे। मानव को उन्होंने सृष्टि से जोड दिया। उन्होंने जिस अश्वमेध यज्ञ की शुरूआत की उसका 26 वां आयोजन अमेरिका के शिकागो में सम्पन्न हुआ। आचार्य का नारा था- हम बदलेंगे, युग बदलेगा। वे बोले कि हमें युगदृष्टा बनना होगा। अगर हमारे क्रांति के बीज यदि ठीक से फैल गये तो पूरी विश्व वसुधा को हिलाकर रख देंगे। यह ऐसा सिंहनाद था जिसके आकर्षण में प्रणव पांड्या जैसा डॉक्टर और वीरेश्वर उपाध्याय जैसे महान चिंतक और इंजीनियर अपना सबकुछ छोड़कर गुरूसत्ता के चरणों में सिमट गये। दरअसल, उन्होंने साधना-प्रार्थना शक्ति का महानतम विखंडन कर सृष्टि को ऊर्जावान कर दिया। नयी पौध में विशाल दायित्वों का स्थान खोजते थे आचार्य। कभी हरिद्वार जाइये। भीतर जाते ही आभास होगा कि केंद्र से विस्तारित साधनापथ अब खुद संचालित कर रहा है इस केंद्र को। उन्होंने सूक्ष्मीकरण की साधना की और मानसपुत्रों को पूरी दुनिया में फैलाया।
सांस्कृतिक पुनर्जागरण का यह अमर-ऋषि का दैहिक रूप तो 2 जून 90 को समाप्त हो गया, लेकिन उसके विचार आज हर घर-गांव में मशाल जलाये हुए हुंकार भर रहे हैं कि युग-दृष्टा बनो, क्रांति करो। और हां, आचार्य के इस दायित्व को माता गायत्री ने अगले चार बरसों तक अपने ऋषि-दायित्वों का सघन पालन करते हुए 19 सितंबर, 94 को आचार्य में ही एककार हो गयीं।