मैं नंगा अवधूत हूं। आसपास व्यापा मलंग हरामियों के झुण्ड
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च पर विशेष लेख श्रंखला- चार
सत्य और विश्वास में झूलते सवालों का समाधान है हरामीपन
हरामी-परम्परा को खत्म कर सकता है पिता का यह उत्तर
कुमार सौवीर
लखनऊ : यह कोई सचमुच की घटना नहीं है। केवल तर्क के मजबूत आधार पर विश्राम कर रहा है यह सत्य। लेकिन अगर इसका पर्याप्त प्रचार कर दिया जाए, तो मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि हमारे समाज में हरामी शब्द को हमेशा-हमेशा के लिए विदा किया जा सकता है। कम से कम गाली के संदर्भ तो हर कीमत पर।
तो इस काल्पनिक कहानी को सुन लीजिए। एक बच्चे ने अपने पिता से सहज प्रश्न किया। बेटा यह समाधान चाहता था कि सत्य और विश्वास में क्या फर्क है।
पिता दरअसल बुद्धि के स्तर पर एक सक्षम और जिम्मेदार शख्स थे। उन्होंने इसकी जो तर्कशील व्याख्या दी वह लाजवाब है। पिता बोले:- बेटा। यह सत्य है कि तुम अपनी मां के बेटे हो। लेकिन मेरा यह विश्वास है कि तुम मेरे बेटे हो।
बाप रे बाप। कोई सामान्य आदमी हो तो, यह सुन कर ही दहल सकता है। लेकिन हकीकत यह है कि आज न सही कल, इस तर्क को मानना ही पड़ेगा कि कोई संतान किसी बाप की इजारेदारी-जमीन्दारी नहीं है। यही बात जल्द से जल्द समझाने की जरूरत है हर शख्स को। और अगर इस सत्य और विश्वास के बीच खोदी जा चुकी खाई को पाट लिया जाए, तो दुनिया के अधिकांश झगड़े हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगे।
दरअसल, इसी घटाटोप अंधेरों वाली सोच ने सदियों तक नृवंश को हलकान रखा है। ऐसे लोग दूसरों के घरों की कोख को चुपके से आबाद कर देते हैं, लेकिन जब उनके घर में कोई कोख को कोई दूसरा आबाद करने की कोशिश करता है, तो कहर टूटना शुरू हो जाता है। स्त्री का सामग्री या पदार्थ के तौर पर देखने, संरक्षित रखने की साजिश ने महिलाओं को बहुत संकुचित कर रखी। अब यह शारीरिक प्रताड़ना से भी ऊपर बढ़ चुकी है। वहां तक पहुंच चुकी है, जहां मानसिक प्रताड़ना होती है। महिला की सोच पर कब्जा कर रखा है इस सोच ने। वरना क्या वजह है कि आपसी बातचीत या झगड़े में दो महिलाएं जिन गालियों का इस्तेमाल करती हैं, वह भी स्त्री अंगों पर केंद्रित होती है।
आप पुलिस में काम कर रही महिलाओं से बात कीजिए। किसी महिला अस्पताल में काम करती डॉक्टर, नर्स या आया की बातचीत सुनिये। ऐसी अधिकांश महिलाएं एक-दूसरे से बातचीत के दौरान मां-बहन-बेटी की खुली गालियां देती दिखेंगी। अस्पताल में यह हंसी-ठिठोली और झुंझलाहट के चलते यह गालियां फूटती हैं, जबकि पुलिस में तो यह बात-बात पर गालियों का स्तुतिगान होता है। खास तौर पर तब, जब ऐसी कोई पुलिसवाली गुस्से में होती है।