सत्य और विश्वास के बीच फर्क का सत्य खोजिये हरामीपन में

सक्सेस सांग

चलो दुष्कर्म ही कह लो, पर तोहमत उस स्त्री-बच्चे पर क्यों
तुमसे जो भी करते बने, कर लेना। मैं तो अपनी लीक पर हूं
मुनिया की तरह मत सोचो, गहरे पानी पैठने की आदत पालो

कुमार सौवीर

लखनऊ : मैं जानता हूं कि अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर जब मैं यह विषय और उससे जुड़े तन्तुओं को उधेड़ना शुरू करूंगा, तो मुझ पर हमले चहुंओर होंगे। ऐसे हमले तो सबसे पहले इस आरोप पर होंगे कि यह अश्लील प्रकरण है। जब मैं उसका निराकरण-तर्क प्रस्तुत करूंगा तो ऐसे ही लोग अपने अश्लील तर्क छोड़ कर मुझे एक नया आरोप मढ़ देंगे कि यह विषय निर्वस्त्र है और उसपर सार्वजनिक चर्चा नहीं की जा सकती है। जब मैं उनके ऐसे आरोपों की धज्जियां उड़ाना शुरू करूंगा तो वे लोग फिर अपना पाला बदल देंगे कि कुमार सौवीर की शैली ही अभद्र है। यानी वे मुझ पर आरोप-दर-आरोप ही थोपते रहेंगे। तो उनके जी में जो भी आये, वे कर लूं। लेकिन आज मैं बोलूंगा जरूर।

एक बच्ची है। अब उसके नाम पर चर्चा मत शुरू कराइये। बस यह समझिये कि वह हमारी-आपकी ही बेटी तुल्य है। बहुत प्यारी, समझदार, जिज्ञासु, तर्कशील। लेकिन हैरत मुझे तब हुई जब वह अपने पिता से झगड़ पड़ी। उसके बाप भी मेरे ही तरह झक्की हैं और फेसबुक मित्रता से होते हुए मेरी दोस्ती अब गाढ़ी हो चुकी है। रिश्ते पारिवारिक, यानी एक-दूसरे के घर आना-जाना। खैर, बाप-बिटिया के बीच अचानक झंझट शुरू हुआ। जब यह दंगल देखा मैंने, तो बीच-बचाव मैंने शुरू किया। लेकिन उस बच्ची ने अपने बाप पर उल्टा आरोप लगा दिया कि मेरे पापा फेसबुक पर गालियां लिखते हैं।

मैंने पूछा:- मुनिया, क्या तुमने वह लिखा जो तेरे बाप ने लिखा।

मुनिया का जवाब देखिये। बोली:- पढ़ा तो नहीं, लेकिन मेरे दो-एक मित्रों ने मुझे बताया कि पापा गालियां लिखते हैं।

मैंने उसे समझाने के लिए कहा:- मुनिया, अपने पापा को तुम सबसे ज्यादा वक्त से जानती हो। जबकि तुम्हारे दोस्त बस चंद-एक-दो साल से ही तुम्हारे सम्पर्क में हैं। तुम्हें तो अपने दोस्तों की बात सुनने के बजाय, सीधे अपने बाप की वाल को बांचने के बाद ही तर्क देना चाहिए।

गजब हालत है। आपने कभी देखा-अनुभव तक नहीं किया, और आप अपने बाप को गरियाय रहे हैं। अब इसका क्या समाधान हो सकता है। मैं दावे के साथ कहता हूं कि इसका समाधान कुछ भी नहीं हो सकता। जब अनुभव ही नहीं है, फिर दावों का क्या अर्थ। मुनिया यह भी समझने की कोशिश नहीं कर रही कि उसके बाप की बात का अर्थ क्या है, संदर्भ क्या है। यह भी नहीं देख रही है कि उसके दोस्त क्यों उसके बाप के खिलाफ उसे बरगला रहे हैं। यही है वह मर्म-तत्व् जो हमें असल मसले से तोड़ता-बिखराता है।

ठीक यही दिक्कत जायज और नाजायज औलाद को लेकर है। जायज और नाजायज दोनों ही प्राकृतिक तौर पर मनुष्य हैं, लेकिन हम उसका विभिन्न परिस्थितियों से व्याख्या करते हैं। हम उन्हें मानने को तैयार तक नहीं, जो प्राकृतिक तौर पर हमारे समाज में मौजूद हैं। रिश्ते का निरूपण और उसका प्रारूप समाज ने तय किया, फिर तो जिन लोगों पर यह दोषारोपण होना चाहिए जिन्होंने यह रिश्ता् बनाया। लेकिन उन पर यह आरोप-तोहमत थोपी जा रही है, जिसमें इस कृत्यो में तनिक भी संलिप्तता ही नहीं थी। और तो और उस कृत्य के समय वह दुनिया में था ही नहीं। फिर ऐसे रिश्ते स्थापित करने के नौ महीने बाद जन्मे उस शख्स को हरामी कह कर उसकी जिन्दगी बर्बाद किया जा सकता है। आपको अगर दण्डित करना ही है, तो उस कर्म में लिप्त स्त्री -पुरूष को कठघरे में खड़ा कीजिए, लेकिन उसके जन्मे बच्चे को इस तरह कैसे कत्ल कर सकते हैं।

लेकिन चूंकि हो रहा है समाज में, तो हो रहा है। समाज और उसकी इकाइयां उसी लीक पर चल रही हैं, तो चलती रहें। मैं उन्‍हें नहीं मानता हूं। मैं तो अपने ही खुले नजरिये से सोचूंगा, और करूंगा भी। चूंकि इस पूरे विवाद में सबसे प्रभावित केवल स्त्री ही है, इसलिए मैं स्त्री के साथ ही हूं और हमेशा रहूंगा। मुझे जो भी कहना था, कह दिया। अब तुमसे जो करते बने, कर लेगा।

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