मुस्लिम औरतों का दर्द महसूस करना चाहिए तो नाइश से मिलिये

सक्सेस सांग

: शाहबानो को भले नहीं मिल पाया, मगर अब इमराना को तो इंसाफ मिले:  अकेले बूते पर डटी हुई है बेमिसाल उसूलों की जिन्दा नजीर :

सुल्तानपुर के तेरिन गांव वाले निजाम अली का नाम आजादी की लड़ाई में सुनहरे सर्फ में दर्ज है। जिन्दगी भर महात्मा गांधी के अनुयायी रहे। अंग्रेजों ने उन्हें पानी काला भिजवा दिया और नाखून तक खिंचवाया। विधायक भी रहे। लेकिन कोई यकीन करेगा कि मरने के बाद इस शख्स  की लाश, मुट्ठी भर खाक करने को तरसती रही। नमाज-ए-जनाजा तक नहीं पढ़ा गया। एक वर्ग ने फूल चढ़ाये, लेकिन दूसरे वर्ग ने उसे बेरहमी से दुत्कार दिया। बावजूद आजादी के बाद बने दो मुल्कों में अली का नाम जिन्दाबाद होता रहा। लेकिन नाइश हसन के उसूल अपने बाबा निजाम अली की जमीन पर ही तामीर किये गये थे, सो उसने जमाने की बेहद संकरी गली में अपना चौड़ा रास्ता खुद बना ही डाला।

नाइश हसन की पहचान मजलूम मुस्लिम की जुझारू हमदर्द की है। सन-77 की 4 मई को जन्मी नाइश का अर्थ चाहे आप अल्लाह कहें, जिन्दगी देने वाला कहें या फिर सच्चा रहबर। लेकिन बचपन में नाइश ने खासा संघर्ष किया। पिता का होटल शिमला में था, जहां वह अपने 7 भाई-बहनों के साथ पढ़ती थी। लेकिन बाबा की मौत के बाद नाइश का परिवार अपने गांव सुल्तानपुर आने पर मजबूर हुआ। मदरसे में कक्षा 4 तक पढ़ाई की, जबकि समाजशास्त्र से एमए सुल्तानपुर में किया। राष्ट्रीय सेवा योजना से जुड़ी रहीं। बैडमिंटन भी खेला, लेकिन सिर्फ खेल से यह सिलसिला आगे नहीं बढ़ पाया। आने-जाने का साधन था सायकिल। लेकिन लोगों को हजम ही नहीं आया उनका यह अंदाज। लेकिन एमए के बाद लगा कि सुल्तानपुर में कोई खास फ्यूचर है ही नहीं। सो, लखनऊ में डेरा डाल दिया। गोमतीनगर में ताऊ के पास।

ख्वाहिश थी कि प्रशासनिक सेवा में जुड़ेंगी। खूब तैयारी की, लेकिन अचानक पता चला कि चयनित होने के बावजूद 3 लाख रूपयों का खर्च, घूस में लगेगा। हिम्मत टूट गयी। नेट यानी डिग्री कालेज में शिक्षक बनने की तैयारी शुरू की, लेकिन लगा कि हो सकता है कि नेट में भी यही हालत रहे। उसे भी छोड़ दिया और एनजीओ से जुड़ने का मन बना डाला। शिक्षाविद् रूपरेखा वर्मा के साथ काम शुरू किया और एमफिल की डिग्री हासिल कर ली। इसी बीच सुभाषिनी अली, मधु गर्ग जैसी महिलाओं का साथ मिला तो लगा कि यह रास्ता ही ठीक है। लेकिन जल्दी ही यह भ्रम भी टूट गया। लेकिन उन्हें अपनी एक वरिष्ठ प्रोफसर हबीब साबरा से सुने शेर की वह लाइनें हौसला देती ही रहीं कि:-

उसूलों पे जो आंच आये

तो टकराना जरूरी है,

जो जिन्दा हो तो, फिर

जिन्दा नजर होना भी जरूरी है।

तय किया कि अब मुस्लिम महिलाओं को लेकर काम करेंगी। फिर हुए कई और भी दौर, जिन्दगी में मोड़ पर। रहने के बंदिशों से लेकर गोश्त खाने तक को लेकर सिर्फ और सिर्फ ऐतराज ही। लेकिन खूब लड़ीं और अब नाइश हसन महिला अधिका‍रों का अलम्बरदार बन गयी हैं।

शुरूआत हुई मुजफ्फरनगर से, जहां इमराना के साथ हादसा हुआ। कहने को तो यह परिवारिक मामला था, लेकिन खाप के हस्तहक्षेप के नजरिये ने मामला और दूसरा मोड़ पर ला खड़ा कर दिया। पुरूषों को ऐतराज हुआ कि औरत के मसले पर कोई औरत क्यों  हस्तक्षेप कर रही है। लोग नाइश के खिलाफ जुट गयीं। जमकर बवाल हुआ। नाइश की कार पर तोड़फोड़ हुई और जमकर पत्थरबाजी भी हुई। अकेले मुजफ्फरनगर में ही क्यों, वहां की आग ने लखनऊ के बांसमंडी तक में नाइश को झुलसाया। लेकिन नाइश का हौसला लगातार बढ़ता रहा। मामला कोर्ट से होते हुए हाईकोर्ट तक पहुंच गया और रेहाना नाम की वकील महिला ने नाइश को ताकत दी और आखिरकार नाइश के साथ ही इमराना को भी इंसाफ मिल ही गया।

नाइश को जानने वाले लोग उन्हें अति-महत्कांक्षी महिला के तौर पर पहचानते हैं जो संवेदनशील होने के साथ ही समाज और खासकर मुस्लिम समाज की महिलाओं की हालत और उनके सवालों को लेकर जूझती है। जाहिर है कि प्रभावशाली नेतृत्वकारी अंदाज है। लेखक शकील सिद्दीकी कहते हैं कि नाइश में संघर्ष करने का माद्दा है। अपने साथ के गरीब तबके के साथ नाइश दूसरों की तरह नाक-भौं नहीं बिसूरती है। उनके एक करीबी महिला का मानना है कि नाइश को पुरूष-सत्ता के साथ काम करते देख लोग सवाल जरूर खड़ा करते है। मसलन, उसे बाहरी तौर देखने वाले लोगों में उसके प्रति उपेक्षाभाव होता है। लांछन लगा देना तो आम बात है कि रात में भी उनका दूसरों से बातचीत करना और काफी-हाउस वगैरह में जाना। जबकि हकीकत यह है कि करीब लोगों में शोषण का भाव होता है। लेकिन दूसरों के मुताबिक नाइश में जूझने की समझ है। वह हर कीमत पर आगे ही बढ़ना चाहती है। लेकिन ऐसी रफ्तार के बावजूद उसके अनैतिक होने की गुंजाइश कम ही दीखती है। शकील का कहना है कि नाइश की खासियत है, दूसरों को तरीके से निपटाना। वह अपनी हद तय करती है कि किसके साथ विश्वास के साथ काम करना है और ऐसे लोगों के साथ काम करने की सीमाएं क्याक होंगी।

नाइश ने अरबी पढ़ी ही नहीं, समझी भी है। जबकि यहां अरबी समझने वालों की तादात न के बराबर है। पहली बार में नाइश को लोगबाग नाइस ही समझ लेते हैं। ऐसे नया नामकरण बुरा भी क्या है। नाइश ने बदलावों पर नयी प्रतिमान स्थापित किये हैं। दूसरों के मसाइल पर ही नहीं, बल्कि शुरूआत खुद से और अपनी जिन्दगी से की थी। मसलन, शादी। तीन साल पहले उन्होंने जब अपनी शादी का फैसला किया था तो वह ऐसा फैसला था जो अब तक किसी ने सोचा तक नहीं था। शादी के लिए शादी का फैसला करते समय उन्होंने शौहर को सख्ती से बता दिया था कि वे बहु-पत्नी प्रथा के सवाल को पूरी तरह खारिज करेंगी। साथ ही, उन्होंने ऐलान किया कि निकाह किसी मुल्ला-मौलवी के बजाय एक महिला ही पढ़ायेगी और शादी की गवाही केवल महिला ही बनेगी। अलीगढ़ में पढ़ रहे युवक से शादी हो गयी, लेकिन महज 7 महीने में भी यह शादी टूट गयी। नाइश का कहना है कि महिला की ओर से शर्तें थोपना पुरूष को नागवार लगा।

अब नाइश चाहती हैं कि कम से कम मुस्लिम समाज की महिलाओं को नये दौर में पहचान दिलायी जाए। चाहे जो भी कीमत अदा की जाए। और अब नाइश कीमत अदा कर रही है। फैसला है कि शादी अब नहीं होगी।

बातचीत:——————-

खूब पापड़ बेले हैं आपने अपनी जिन्दगी में

हां। आप कह सकते हैं यह। कभी मैं अफसर बनना चाहती थी, नहीं बन पायी। फिर शिक्षिका बनने चली, मगर वह भी नहीं बन पायी। लेकिन गनीमत है कि मेरा तीसरा लक्ष्य अब सटीक बैठा। मैं खुद से संतुष्ट हूं अब।

पूरे समाज के बजाय आप केवल मुस्लिम महिलाओं पर ही काम कर रही हैं। क्यों

यह मजबूरी थी, वरना मैं तो ऐसा करती ही नहीं। कालेज और यहां तक कि लखनऊ में भी मुझे बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ा। अभी चंद साल पहले तक मैं शाकाहारी ही थी। बचपन में बात होती है कि जैसा खाओ अन्न, वैसा बने मन। लेकिन आखिरकार पता चल ही गया कि मुस्लिम समाज के प्रति लोगों की सोच और मूल्य वही है, जो पुराने थे। विकास हुआ, मगर सोच में बदलाव नहीं। जातिवाद खूब है। फिर बाद में मैंने गोश्त खाना शुरू कर दिया। फिर पाया कि खानपान का सोच से कोई लेनादेना नहीं होता। लेकिन इतना तो समझ गयी कि हमें शुरूआत मुस्लिम समाज से करनी होगी। यहां दिक्कतें ज्यादा हैं। मुझे लगा कि सबसे पहले पहल यहीं से करनी चाहिए।

जिन्दगी में आये मोड़, मसलन दिक्कतें

खूब। इमराना के मसले पर तो मैं सीधे मुजफ्फरनगर तक पहुंच गयी। मुझे लगा कि यह मसला तय करना मेरा पहला कदम साबित होगा। आखिर यह क्या मजाक है कि कोई महिला को उसका ही अपना ससुर गर्भवती कर दे और उसका दोष देखने के बजाय उसे शर्मनाक दुश्वारियों का सामना पड़े। जो दोषी था, वह मजे में था, जबकि निर्दोष के खाते में सिर्फ दिक्कतें ऐसी कि जीवन दूभर हो रहा है। खाप और फतवों ने इमराना का जीवन दोजह बना दिया। मैं बोली तो मेरी पर भी हमले शुरू हो गये। लेकिन मैंने तय कर दिया था कि इमराना का विवाद को निपटाना कानून की देहलीज का है, उसे धर्म से नहीं निपटाया जा सकता। मेरे हस्तक्षेप पर ही इमराना के ससुर पर धारा 376 के तहत मुकदमा कर जेल भिजवाया। जमानत का विरोध करने वालों से मैंने ललकारा कि यह शाहबानो वाले वक्त का दौर नहीं, इमराना का है। हाईकोर्ट तक में दौड़ी और नतीजा आज उसका ससुर को 10 साल की जेल हो गयी। देखिये, दरअसल मैंने इमरान के मसले पर नहीं, बल्कि इमराना जैसी महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए कोशिश की थीं। और मुझे संतोष है कि मैं अपने मकसद में सफल रही। यह युद्ध में महिलाएं खुल कर सामने आ गयीं थीं कि मौलवी और मुल्ला लोग अपनी हदों को पहचानें और बलात्कार के मामले में धर्म के बजाय, कानून को ही काम करने दें। जाहिर है कि हम लोगों की तरफ से यह कड़ी चेतावनी ही थी उनके लिए।

अब क्या करने का मूड है।

फिलहाल तो एक एनजीओ बनाया है। नाम है तहरीक यानी आंदोलन या मूवमेंट। मैं पहले अपनी जड़ें मजबूत करना चाहती हूं ताकि अपने आंदोलन को प्रभावकारी बना सकूं।

मेरा मतलब, आपकी योजनाएं।

पहले तो मुस्लिम कानून को संहिता-बद्ध करने के लिए अभियान छेड़ रही हूं। मेरा मानना है कि इससे अराजक और मनमर्जी तलाक की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। मैं तो इसके तहत एक पीएलए दायर करने जा रही हूं हाईकोर्ट में। मकसद है कि मुस्लिम विवाह को हिन्दू विवाह की ही तरह बनाया जाए। देखिये, क्या होता है। मुझ और मेरे लोगों में हौसला है और जाहिर है कि विरोध भी हो रहा है। जबर्दस्त।

और कैसे मुकाबिल होंगी विरोध पर

करना ही पड़ेगा। कोई रास्ता ही नहीं है इसके अलावा। चाहे कोई भी फिरका या सम्प्रदाय हो, कट्टरवाद का विरोध करना हमारा दायित्व है। इसके लिए नई दिशा खोजनी होगी और प्रतिरोध के लिए मोर्चा बनाना बनेगा। हमारे पास हौसला है और तादात भी। हमारे भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन में अब तक 24 हजार सदस्य बन चुके हैं। बाकायदा फीस अदा की है उन लोगों ने।

देखिये, यह बदलाव अब वक्त की जरूरत है। हमें विकल्प बनाना होगा। वरना अगर यही सब चलता रहा तो हमारे ही देश में पाकिस्तान और अफगानिस्तान बन कर खड़े हो जाएंगे। तो बेहतर है कि हम और हमारे लोग वक्त से पहले ही सोचे और चेत जाएं।

आरक्षण पर आपकी राय

दिक्कत यही है कि जो लोग अपने घरवालों को आजादी नहीं देते, वह संसद में आरक्षण की आजादी पर बोलते हैं। यह दोमुंहा लहजा है। हम किसी फंडामेंटल मामले के पक्ष में नहीं। लेकिन हम अपने पक्ष में हैं। समान नागरिक संहिता की बात हमने खारिज किया।

और महिला

यही तो समस्या है कि हम इंसान जरूर हैं, लेकिन समाज हमें वस्तु की तौर पर ही मान्यता देता है। जैसे घर में सोफा, टीवी, मेज वगैरह, वैसे ही हम उनकी नजर में एक औरत है। शोपीस। पहले एक एक-करके हम नजर का जाला साफ तो कर दें।

लेकिन आपका परिवार तो बनने से पहले ही बिखर गया

गलती मेरी कहां थी। मैंने तो पहले ही साफ कर दिया था कि पॉलीगेसी, दहेज, बारात, दुल्हन जैसे आबंडर नहीं चलेंगे। लड़के ने भी आदर्शवाद दिखाया। लेकिन बंगाल वाले नौगछिया के गरीब परिवार के लड़के में दिल्ली की चकाचौंध में संकल्प। खो दिया। आप को यकीन नहीं होगा कि मैंने इस मसले पर 7 बार काउंसिलिंग करायी थी। लेकिन बात बन नहीं पायी। खैर, जो हो गया, वह हो गया।

तलाक हो गया है

नहीं। मुझे तो जरूरत नहीं है इसकी। उसकी तरफ से किसी कोई जरूरत हो तो तलाक करे तो करे।

अब, नई शादी करेंगी।

नहीं। इसकी कोई जरूरत नहीं समझती। लड़के की मां से बात होती रहती है। एक बार मुलाकात भी हुई। बिलकुल पथरी हुई आंखें हैं उनकी। कोई ख्वाहिश नहीं है उनमें। उनके पिता ने दो शादियां की थीं। बाप रे। मैं तो सोचती हूं कि उस महिला को अपने घर ही लाकर रख दूं। कम मैं उनकी आंखों में सपने तो बो सकती हूं।

खर्च कैसे चलता है

मैं बताया ना, कि मेरे संगठन में सशुल्क सदस्यता होती है। सहयोग में और भी लोग जुड़ आते हैं। बस जैसे-तैसे काम चल रहा है। भई, मैं पूरी तरह संतुष्ट हूं।

kumarsauvir@yahoo.com

 

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