मिजाजपुर्सी, यानी बर्खुरदार मलंग-चाचा प्राण

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बल्लीमारान के प्राण को 3 मई को मिलेगा दादा फाल्के सम्मान

देहरादून के जिस ठेकेदार ने मशहूर पुल बनाया था, उसके बेटे ने हिन्दी फिल्मों में सामाजिक और भावनात्मक रिश्तों वे ऐसे-ऐसे सैकड़ों पुल बना दिये जो अब तक आठवां अजूबा माने जाते हैं। प्राण ने अभिनय की जो डगर खोली-खोजी, आज के नामचीन अभिनेताओं ने उन्हीं खासियतों को अपनाकर सफलता हासिल कर ली। लेकिन इकतारा के तौर पर प्राण आज भी बेमिसाल हैं। समाज में क्रूर मानसिकता वाली भूमिका निभाने वाले प्राण ने हमेशा ऐसा अभिनय किया कि दर्शकों की आंखें भर आयें। बेहद बावजूद इसके कि दुनिया ने प्राण के नाम को कभी नहीं अपनाया। देर से ही सही, लेकिन पदमश्री के बाद अब दादा फाल्के सम्मान उनकी उपलब्धि है, लेकिन असली उपलब्धि तो हर दर्शक के दिल में बसी है। हिन्दी सिनेमा जगत को करीब 4 सौ फिल्में देने वाले 92 साल के प्राण अब मुम्बई के अस्पताल में हैं और ताजा खबर यह कि उनकी हालत सुधर रही है।

सन 1920 की 12 फरवरी को दिल्ली के बल्लीमरान मोहल्ले  में जन्मे प्राण कृष्ण सिकंद के पिता लाला केवल कृष्ण सिकंद एक सरकारी कांटेक्टर थे। समृद्ध परिवार। विशेषज्ञता थी सड़क और पुल। देहरादून का कलसी पुल उन्होंने ही बनाया था। लाला केवल कृष्ण सिकंद के बेटे प्राण की शिक्षा कपूरथला, उन्नाव, मेरठ, देहरादून और रामपुर में हुई। जिन्दगी शुरूआत लाहौर में फोटोग्राफर के तौर पर हुई। लेकिन सन-40 में वली मोहम्मूद ने पान की एक दूकान में प्राण को देखा और यमला-जट फिल्म से वे मशहूर हो गये। दीगर बात थी कि यह शोहरत लाहौर और आसपास तक ही सीमित रही। इसी बीच उनकी शादी शुक्ला से हो गयी और दो बेटे अरविंद और सुनील तथा एक बेटी पिंकी भी हुई। बाद के वर्षों में मुल्क की ही तरह उनकी जिन्दगी में उलट-फेर हुआ और आखिरकार वे मुम्बई आ गये। आज उनके कुनबे में 5 पोते-पोतियां और 2 परपोते शामिल हैं।

सन-48 में उन्होंने मुम्बई से अपनी नयी जिन्दगी बांबे टॉकीज में शाहीद लतीफ के निर्देशन में देवानंद और कामिनी कौशल के साथ जिद्दी फिल्म से की। मदद की थी मंटो ने। इसके बाद दो बदन, मधुमती, इंस्पेक्टर एक्स, गुमनाम, शीश महल, झूला, लव इन टोक्यो, हाफ टिकट, मेरे महबूब और जिस देश में गंगा बहती है जैसी 4 दर्जन से ज्यादा फिल्मों से जम गये। खेलों के प्रति प्राण का आकर्षण खूब है जो फिल्मों में भी दिखा। फुटबॉल की ही तरह उन्होंने फिल्मों में हर तरह के दांवपेंच लगाये। मकसद था सिर्फ गोल करना। चाहे खांटी खलनायकी का काम हो या नाचना या फिर सकारात्मक चरित्र-भूमिका निभाना। कई फिल्में तो ऐसी बनीं जिसमें प्राण की भूमिका नायक से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी। कहा तो यहां तक गया कि अगर प्राण न होते तो फिल्म फ्लाप हो जाती। फिल्म ही क्यों, कई अभिनेताओं को उन्होंने इस तरह तराशा कि अगर प्राण न होते तो न जाने कब के मुम्बई की हवा में उड़ जाते।

लेकिन इसके बावजूद इनकी पहली पहचान तो क्रूर खलनायक से ही बनी थी। देख लीजिए राम और श्याम। दो जुड़वा भाइयों की इस कहानी में प्राण का चाबुक जब पूरी ताकत तो दिलीप कुमार की पीठ पर बरसता था तो उसकी चोट दर्शकों के दिल और दिमाग पर पड़ती थी। प्राण की भूमिका के चलते ही प्राण पूरे हिन्दी फिल्म दर्शक-वर्ग की घृणा हासिल कर गये। प्राण मतलब घृणास्पद शख्स, जिसकी शैली ही सहमा देती थी लोगों को। इसके बाद तो किसी भी स्कूल के किसी बच्चे का नाम प्राण नहीं रखा गया। अपने पति को भी प्राणनाथ कहने से महिलाएं परहेज करती थीं। लेकिन इसके बावजूद प्राण ने कभी भी अपनी जिम्मेदारी से अन्याय नहीं किया। हर भूमिका को जिन्दा किया। सन-60 में सिगरेट के छल्ले बनाने वाले प्राण की पुकार खूब सराही गयी। ( जारी )

हिन्‍दी रजतपट के महा-अभिनेता प्राण पर तैयार लेख की दूसरी किश्‍त को देखने के लिए कृपया क्लिक करें:- प्राण के अभिनय पर इंदीवर हो गये दंडवत

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