: भूख से जूझने के हौसले ने पहुंचा दिया ऊंचे मुकाम तक : कक्षा-3 से ही फैजाबाद फूल चुनने से फूंका घर का चूल्हा : राम-मंदिरों पर चढ़ाने वाले फूल बीनती थी मुस्लिम हमीदा : आज हजारों लड़कियों को हौसला दिलाने की मुहिम छेड़ रहीं : कड़ी बंशिदों के चलते दब जाती हैं मुस्लिम औरतों की आहें :
फैजाबाद के कश्मीरी मोहल्ला से सटे साहबगंज वाले धुनिया जाति के मोहम्मद यासीन को आप जानते हैं जो जिन्दगी भर अपने परिवार की भूख मिटाने के लिए रजाई-गद्दा की रूई धुनता था और उसकी बीवी शाकिरा बानो अपने दो बेटे और पांच बेटियों के साथ एक झोंपड़ेनुमा में सिमटा रहता था। लेकिन आपको कैसे पता होगी यासीन की, जो बमुश्किलन छह महीनों के धुनिया काम से बेरोजगार होने पर अपने परिवार के लिए रोटी खोजने के लिए रिक्शा चलाया करता था और रूई की धूल-गंदगी उसके फेफड़े को कैंसर का घर बना चुका था और आखिर इस तरह न तो वह रिक्शा चला पाया और न ही रूई का काम। नतीजा, अपने आठ आश्रित परिवारीजनों को इस दुनिया में अकेला छोड़ कर वह चल बसा।
हम जिस हमीदा की बात कर रहे हैं, वह उसी यासीन की चौथी नम्बर की बेटी है। घर में दुश्वारियां शुरू से ही थीं। यानी करेला और उस पर नीम चढ़ा। हमीदा के परिवार की हालत ऐसी ही थी। घर में पर्दा की कड़ी रवायत, कम उम्र से ही बेटियों का घर से बाहर निकलना बंद, गला और फेफड़े में कैंसर के चलते एकमात्र कमाऊ मुखिया का कामधाम बंद। कुछ दिन रिक्शा चलाते, तो किसी तरह चंद रोटियां मिल जातीं। यासीन की हालत देख कर शाकिरा ने अपनी बेटियों के साथ रजाई टांकने जैसे छुटपुट काम से दो-चार पैसे कमाना शुरू किया। घर का हाथ बंटाने के लिए अलस्सुबह चार बजे फूल के खेतों से फूल और कलियां चुनने से लेकर हमीदा ने हौसला दिखाने का जौहर दिखाया, वह बेमिसाल है। पर्दा में रहने वाली बहनों को फूलों की मालाएं बनाने से लेकर ऐसे काम बताये-कराये जो सम्मानजनक हो। इसी बीच मां का बीमारी हो गयी, जबकि घर को छोड़कर बड़ा भाई शादी कर घर से अलग हो गया। यह सदमा ही तो था, क्यों कि छोटा भाई मानसिक बीमार था।
लेकिन इसी बीच एक कम्पनी में सेल्सगर्ल का काम मिला। अचानक इंटर में पूरे कालेज में प्रथम आने पर 20 हजार रूपये की सरकारी मदद भी मिली, तो दो बहनों की शादी निपटायी। मगर इसके साथ विवाद भी उठे। चारित्रिक विवाद। गरीब और फाकाकशी से जूझते मोहल्ले में हमीदा का घर सबसे गरीब था। सो, उसकी नौकरी निंदा का विषय बना। मोहल्ले की महिलाएं हमीदा के घर से दूरी बनाने लगीं। अपनी बेटियों को हिदायत दी गयी कि वे हमीदा से दूर ही रहें। आरोप लगा कि यह धंधा करती है और होटलबाजी करती है। एक तरफ से इस घर से दूसरों ने बहिष्कार कर दिया। बीए करने कालेज गयी तो हमीदा से पहले उसकी शोहरत पहुंच गयी। जीना हराम कर दिया। न पिता, न भाई, और ऊपर से ऐसी शर्मनाक तोहमतें। पूरे परिवार का सिर शर्मसार था। अचानक हमीदा ने तय किया फैजाबाद छोड़ देगी। कम्पनी का भी काम नहीं करेगी, भले सिलाई-कढ़ाई करनी पड़े। यह हौसले की की ही बात थी कि हमीदा वनांगना नामक संस्था से जुड़ गयी और बहुत कम वक्तत में ही उतना सीख लिया, जितना सामान्य तौर पर नहीं हो सकता।
आज हमीदा सैकड़ों-महिलाओं को उनके सामाजिक, पारिवारिक, वैवाहिक आज मसलों पर परामर्श दिलाती हैं। उनके कानूनी मसायल पर भी। लेकिन उनका खास मकसद महिलाओं में आत्मनिर्भरता व औरत व मर्द के बीच बराबरी का माहौल पैदा करना। और हां, आपको बता दें कि जिस हमीदा को मोहल्ले में छुछुआती औरत के तौर पर बदनाम और लांछित किया जाता था, आज उसी मोहल्ले में अब वही घरों में महिलाएं अपनी बेटियों को हमीदा को उदाहरण और आदर्श के तौर पर हमीदा को हमीदा-फुफ्फू के नाम से सम्मानित शब्दों से बुलाती हैं।
हमने हमीदा से लम्बी बातचीत भी की, जिसमें हमीदा ने अपनी जिन्दगी और दुश्वारियों का खुलासा किया है। आप अगर इस बातचीत को देखना चाहें तो क्लिक करें कड़ी धूप में सफेद न होने का मतलब अभी कच्ची है मोगरा की कली
हमीदा पर केंद्रित लेख डेली न्यूज एक्टिविस्ट समाचार-पत्र में भी प्रकाशित हो चुका है।